जैन धर्म
जैन धर्म वस्तु के स्वभाव का प्रतिपादक धर्म है। " वत्थु सहावो धम्मो" - प्रवननसार-आचार्य कुन्दकुन्द चूँकि वस्तु अनादि निधन और स्वनिर्मित है। अतः वस्तु (द्रव्य) का प्रतिपादक धर्म भी अनादि निधन है। जैन मत की यह मान्यता है कि जैन धर्म का प्रारंभ किसी व्यक्ति विशेष ने नही किया। अलग-अलग युगों मे तीर्थकरों द्वारा उसको पुनर्जीवित किया जाता है। वास्तव मे जैन ग्रन्थों के अध्ययन से पता चलता है कि जैन धर्म के आदि संस्थापक ऋषभदेव या आदिनाथ भी जैन धर्म के जन्मदाता नही अपितु इस युग के आदि प्रवर्तक है। इस तरह प्रत्येक युग मे चौबीस तीर्थकरों की श्रृंखला होती है। बहरहाल इस युग विशेष मे जैनधर्म के आदि प्रवर्तक और उसे वर्तमान तक लाने मे चौबीस तीर्थकरों की श्रृंखला का योगदान महत्वपूर्ण है।
जैन धर्म के 24 तीर्थकर इस प्रकार है--
1. ऋषभदेव (आदिनाथ)
2. अजितनाथ
3. सम्भवनाथ
4. अभिनन्द नाथ
5. सुमतिनाथ
6. उद्यप्रभु
7. सुपाश्र्वनाथ
8. चन्द्रप्रभु
9. सुविधिनाथ
10. शीतलनाथ
11. श्रेयांसनाथ
12. कसुपूज्य
13. विमलनाथ
14. अनन्तनाथ
15. धर्मनाथ
16. शांतिनाथ
17. कुन्थुनाथ
18. अरनाथ
19. मल्लिनाथ
20. मुनिसुव्रत
21. नमिनाथ
22. नेमिनाथ
23. पार्श्वनाथ
24. महावीर
जैन पंथ सुधारवादी और वैदिक परम्परा की शाखा
जैन पंथ प्राचीन काल मे भी सामाजिक, धार्मिक विकृतियों के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुआ था। जैन धर्म के सत्य, अहिंसा, इन्द्रिय दमन, सत्कर्म, पुनर्जन्म, तपस्या, सदाचार आदि उपनिषदों के ही सिद्धांत है। जैने भिक्षु एवं साध्वियों की नैतिकता, चरित्र, ब्रह्राचर्य, अनुशासन, संन्यास, दिनचर्या आदि सभी ब्राह्मण धर्म से ही लिये गये है अथवा ब्राह्मण धर्म को आधार बनाया गया है।
मेक्समूलर, जेकोबी और बार्थ ने माना है कि जैन धर्म पंथ ने ब्राह्मण धर्म (वैदिक धर्म) की अच्छाइयों को लेकर उसके विकास को चरम सीमा तक पहुँचा दिया। यही कारण है कि बार्थ के अनुसार जैन और बौद्ध धर्म हिन्दू धर्म (सत्य सनातन धर्म) (आर्य धर्म) का सुन्दर प्रतिबिम्ब था। अतः यह प्राचीन वैदिक या हिन्दुत्व का न विरोधी था न विद्रोही था बल्कि यह वैदिक, उपनिषदीय या उत्तरवैदिक कालीन सुधारवादी परिवर्तन का क्रांतिकारी आन्दोलन था।
महावीर स्वामी
महावीर स्वामी जैन धर्म के अंतिम तीर्थकर थे। महावीर स्वामी का जन्म 599 ई. पूर्व गणराज्य की राजधानी वैशाली के समीप एक गांव मे हुआ था। इनके पिता का नाम सिध्दार्थ और माता का नाम त्रिशला था। महावीर कुलगोत्र से काश्यप होकर लिच्छवि राजपरिवार से सम्बंधित थे। विवाह के पश्चात तीस वर्ष की आयु मे माता-पिता का स्वर्गवास होने पर महावीर ने अपने अग्रज नन्दिवर्धन की अनुमति प्राप्त कर संन्यास धारण कर लिया था।
जिन अथवा जैन- संन्यासी बनकर घोर तपस्या कर महावीर ने कैवल्य ज्ञान प्राप्त किया तथा अर्हत, जिन (विजयी), निर्ग्रन्थ (बन्धनरहित तथा सर्वज्ञ) बनकर 72 वर्ष की आयु तक धर्म को संगठित कर प्रचार किया था। भगवान महावीर स्वामी के " जिन " कहलाने के कारण इनके अनुयायी जैन कहलाने लगे। इसके पूर्व इन्हें निर्ग्रन्थ कहते थे। 72 वर्ष की आयु मे भगवान महावीर स्वामी ने देवरिया जिले के कुशीनगर के पास पावागढ़ स्थान पर देह त्याग कर निर्वाण प्राप्त किया।
जैन धर्म के सिद्धांत/आदर्श, शिक्षाएं या विशेषताएं
वर्धमान महावीर ने जैन धर्म कि सिद्धांतों और विचारों का प्रचार-प्रसार किया। महावीर स्वामी की शिक्षाएं उनकी संगठन शक्ति से जैन धर्म के प्रमुख सिद्धांत बनकर आज भी शाश्वत है। जैन धर्म के सिद्धांत इस प्रकार है--
1. निवृत्तिवाद
भगवान महावीर स्वामी ने अपने उपदेशों मे संसार के दुःखों का वर्णन कर वैराग्य के मार्ग पर चल कर देह त्याग करने के पश्चात ही मोक्ष प्राप्त करने को कहा। सांसारिक इच्छाएं बढ़ती जाती है अतः निवृति का मार्ग अपनाकर भिक्षु बनकर मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।
2. व्यक्ति की स्वतंत्रता
जैन धर्म मे कर्म और जीवन को बन्धन माना जाता है। परन्तु इन दोनों के लिये व्यक्ति व्यक्तिगत रूप मे उत्तरदायी माना गया। वह स्वयं ही इनसे मुक्त होने के लिए प्रयत्न कर सकता है। इसमे पुरोहित या ब्राह्रा व्यक्ति कोई मदद नही कर सकता। अतः उसे स्वयं को अणुव्रतों का पालन करना चाहिये, सदाचार का जीवन अपनाना चाहिये। इस प्रकार वह निग्रन्थ (बन्धनहीन) हो सकता है। इसमे स्त्री-पुरूष का भी भेद महावीर ने नही माना तथा उन्हें भी जैन धर्म मे दीक्षित होने की और आत्मकल्याण तथा निर्वाण प्राप्त करने की स्वतंत्रता दी।
3. आत्मा मे विश्वास
महावीर स्वामी आत्मा मे आस्था प्रकट कर उसके अस्तित्व को स्वीकार करते है। जैन धर्म का विश्वास है कि आत्मा शरीर से अलग होती है, यह पूर्ण एवं निर्विकार है किन्तु कर्मों के कारण बंधन मुक्त नही हो पाती है। महावीर स्वामी जीवित प्राणियों मे ही नही वरन् जड़ वस्तुओं (अचेतन) मे भी जीव का अस्तित्व मानते है। छः प्रकार यथा- पृथ्वी, जल, वायु, तेज, वनस्पति और त्रास को भी जीव स्वीकार करते है। आत्मा कर्म के बन्धनों से कमजोर और ज्ञान से क्रियाशील होती है।
4. मोक्ष प्राप्ति के साधन- कर्म प्रधान जीवन
जैन मतावलम्बी कर्म की प्रधानता को स्वीकार कर पुनर्जन्म के सिद्धांत मे विश्वास करते है। मनुष्य कर्मों का फल भुगतने के लिए बार-बार जन्म लेता है। कर्मों का फल नष्ट होने पर ही आत्मोत्सर्ग (आत्मा का उद्धार) संभव है।
5. मोक्ष के लिए त्रिरत्न विधान
जैन धर्म का विश्वास है कि अज्ञानतावश व्यक्ति क्रोध, मोह तथा लोभ के वशीभूत होकर जीवन नष्ट कर देते है। अतः कर्मों के फल को नष्ट कर संसार से आत्मा की मुक्ति के लिए साधन आवश्यक है। जैन मत मे इन साधनों को त्रिरत्न विधान कहा गया है--
(अ) सम्यक ज्ञान
इस प्रकार का ज्ञान तीर्थकरों के उपदेशों को अंगीकार कर प्राप्त किया जाता है। यही सच्चा और पूर्ण ज्ञान है।
(ब) सम्यक दर्शन
सम्यक ज्ञान की प्राप्ति के लिए तीर्थकरों मे पूर्ण विश्वास होना आवश्यक है। तीर्थकर कर्म के बन्धनों से मुक्त माने गये है। भगवान महावीर स्वामी के अनुसार ज्ञान और श्रद्धा तब तक व्यर्थ है जब तक जीवन मे इनका उपयोग नही किया जाता।
(स) सम्यक चरित्र
सम्यक चरित्र के लिए व्यक्ति को अपनी इन्द्रियों, संभाषण तथा कर्मों पर नियंत्रण रखकर कार्य करना चाहिए।
6. अनीश्वरवादी
जैन पन्थ ईश्वर के अस्तित्व को नही मानता और न उसे सृष्टिकर्ता मानता है। यही कारण है कि कुछ विद्वानों ने इसे अनीश्वरवादी कहा है। जैन पन्थ के अनुसार सृष्टि आदि और अनन्त है, निरन्तर है।
7. तीर्थंकरों मे आस्था
जैन धर्म के महापुरुष तीर्थकरों कहलाते है। जैन पन्थ ईश्वर मे विश्वास नही करता था अतः उसमे आस्था का भी प्रश्न नही था। परन्तु तीर्थकरों मनुष्यों को नैताकता, ज्ञान, दर्शन, साधन, चरित्र, संयम, सत्य, अहिंसा आदि के द्वारा मोक्ष और निर्वाण का मार्ग बताते थे तथा व्यक्ति और समाज के जीवन को सुखमय बनाने का प्रयत्न करते थे। अतः महावीर स्वामी ने तीर्थकरों मे आस्था और विश्वास करने को कहा है।
8. अहिंसा
जैन मत में अहिंसा पर सर्वाधिक बल दिया गया है। अहिंसा का तात्पर्य किसी भी जीव को नही सताना है। जैने धर्म मे अहिंसा का मार्ग सत्य ( डरकर भी झूठ न बोलना), अस्तेय, (चोरी ना करना), अपरिग्रह (सामग्री संचय न करना), ब्रह्राचर्य ( चरित्रमय जीवन व्यतीत कर ब्रह्राचर्य का पालन करना) है।
उपरोक्त 5 सिद्धांत अथवा व्रत वैदिक साहित्य मे तथा बौद्ध साहित्य मे भी "पंचशील" के रूप मे स्वीकार किए गये है। वस्तुतः लगभग सभी धर्मों मे इनका उल्लेख मिलता है। ईसाई धर्म मे भी "दस" आदेशों मे इनका समावेश है।
9. स्यादवाद
स्यादवाद मे सत्य को परिभाषित किया गया है। महावीर स्वामी ने सत्य पर बल देते हुए उसके विभिन्न आयामों को समझाया है। मानव का यह कथन है कि मेरा विचार सत्य है तथा तथा दूसरो का असत्य, महावीर स्वामी ने स्वीकार नही किया है। सात प्रकार के ज्ञान को विभिन्न दृष्टिकोणों से अंगीकार करने के पश्चात ही सत्य और असत्य का ज्ञान होता है। जैन धर्म मे यह सिद्धांत "स्यादवाद" कहलाता है।
10. निर्वाण
जैन विचार के अनुसार यदि कोई मनुष्य किसी प्रकार के कर्म फल को संचित नही करता और सद्कर्मों से पूर्वजन्म के कर्म फलों का नाश कर देता है। यही जीव की मुक्ति है। तप, साधन, शरीर यातना से और अनुशासन से नवीन कर्मों के फलों का निर्माण नही होता और पूर्व जन्म से संचित कर्म फल धीरे-धीरे नष्ट हो जाते है। इस प्रकार कर्मफलों के विनाश या मानव के भौतिक अंश से मनुष्य मुक्त हो जाता है। इसी को जैन विचारों मे निर्वाण कहा जाता है।
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