10/11/2020

बौद्ध धर्म के सिद्धांत/आदर्श, शिक्षाएं या विशेषताएं

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बौद्ध धर्म (baudh dharm)

भारतीय इतिहास मे छठी शताब्दी ई. पूर्व. मे हुई धार्मिक क्रांति के कारण जैन धर्म की भांति ही अन्य नवीन धर्म का उदय हुआ, जिसे बौद्ध धर्म के नाम से जाना है। उस समय कर्मकाण्ड बढ़ता जा रहा था, जिसके कारण पशुओं की हत्या होती थी; ब्राह्मण-पुरोहितों की प्रधानता थी और शूद्रों को आर्य संस्कृति की सीमा से परे धकेल दिया गया था। इसके कारण समाज मे धार्मिक और आर्थिक शोषण बढ़ रहा था। इस संस्कृति के काल मे नए धर्मों के उद्भव ने तथा उनके क्रांतिकारी विचारकों ने समाज मे धार्मिक पाखण्डों और उसकी मानव विरोधी भूमिका का विरोध किया। सामाजिक दृष्टि से पिछड़े और गरीब, उपेक्षित और पीड़ित जन समुदाय को आश्रय देकर हक की लड़ाई का कार्य जैन धर्म और बौद्ध ने किया। बुद्ध ने आत्मपीड़न से रहित जीवन जीने का उपदेश दिया और वैदिक यज्ञों तथा कर्मकांडों का विरोध करके मध्यममार्ग अपनाने का रास्ता दिखाया।

भगवान गौतम बुद्ध का संक्षिप्त जीवन परिचय 

बौद्ध धर्म के संस्थापक तथा प्रवर्तक गौतम बुद्ध थे। गौतम बुद्ध का जन्म शाक्य गणराज्य के प्रमुख राजा शुद्धोधन के घर मे हुआ था। महात्मा बुद्ध के जन्म पर कालदेवल नामक तपस्वी ने यह घोषणा कि थी की वह आगे चलकर बुद्ध होगे।  गौतम के जन्म के सात दिन बाद ही उनकी माता निधन हो गया था। अतः प्रजापति (उनके पिता) ने उनका लालन-पालन किया। सिद्धार्थ बाल्यकाल से ही चिंतनशील थे। वे एकांत मे वृक्ष के नीचे बैठकर चिंतन किया करते थे। उनकी चिंतन प्रवृत्ति को देखकर उनके पिता शुद्धोधन ने 16 वर्ष की आयु मे उनका विवाह यशोधरा के साथ कर दिया, लेकिन इससे बुद्ध पर कोई प्रभाव नही पड़ा। 28 वर्ष की अवस्था मे उनको पुत्र की प्राप्ति हुई। उनके पुत्र का नाम राहुल रखा गया। 29 वर्ष की अवस्था मे आधी रात को यशोधरा व राहुल का त्याग कर घर छोड़ कर वे वन चले गये। उनके घर छोड़ने के कारणों मे वैराग्य के साथ-साथ एक राजनीतिक कारण भी था, वह यह कि शाक्य और कोलिय राजाओं मे रोहणी नदी के पानी के विषय पर युद्ध हुआ करता था। कोलियों के दमन के लिए गौतम को नियुक्त किया गया था, वे इस शत्रुता से बहुत परेशान थे। संभवतः उनके घर छोड़ने की यह भी एक वजह रही हो। 

यह महाभिष्क्रमण कहलाता है। बुद्ध ज्ञान की खोज मे इधर-उधर भटकते रहे। 35 वर्ष की आयु मे पीपल के वृक्ष के नीचे बोध गया मे उन्हे ज्ञान रत्न प्राप्त हुआ। इसी समय से वह सिद्धार्थ से बुद्ध (बन गये) कहलाए।

बोद्ध धर्म के सिद्धांत (बौद्ध धर्म की शिक्षाएं, आदर्श, दर्शन या विशेषताएं)

1. चार आर्य सत्य 

बुद्ध का मार्ग मध्यम मार्ग का प्रतिपादन करता था। और वह जीवन को इसी भव मे दु:खों से मुक्ति का मार्ग प्रतिपादित करता था। उनके अनुसार दु:ख जीवन का मूल तत्व है। उन्होंने चार महान (आर्य) सत्यों का प्रतिपादन किया वे दुःख को जीवन का यथार्थ मानते है: दुःखो की वास्तविकता, दुःखों का कारण, दुःखों से छुटकार पाने की सम्भावना और दुःखों से छुटकारा पाने का मार्ग। इन्हें शास्त्रीय भाषा मे इस प्रकार कहा गया है--

(अ) दुःख 

गौतम बुद्ध के अनुसार विश्व मे सभी स्थानों मे दुःख ही दुःख है। जन्म वृद्धावस्था, मृत्यु, शोक, अप्रिय का संयोग, प्रिय का वियोग आदि दुःख है।

(ब) दुःख समुदाय (दुःख के कारण) 

भौतिक वस्तुओं का सुख भोगने की वासना अथवा तृष्णा, काम तृष्णा, भव तृष्णा, विभव तृष्णा आदि दु:ख के मुख्य कारण है।

(स) दु:ख निरोध

दुःखों का कारण जाने लेने से उन्हें दूर करना सरल है। अविद्या, अज्ञान वासनाएं दुःखों का कारण है। दुःखों का निरोध (दूर) करना ही बौद्ध धर्म की विशेषता है। 

(द) दुःख निरोध मार्ग 

वासनाओं, तृष्णाओं तथा अविद्या के विनाश हेतु बार-बार प्रार्थना, हवन, मंत्र आदि निरर्थक है। तृष्णाओं के विनाश हेतु अष्टांगिक मार्ग बतलाया गया है। इस मार्ग का अनुसरण कर सभी मनुष्य अपने दुःखों से मुक्ति पा सकते है।

2. अष्टांगिक मार्ग 

गौतम बुद्ध ने संसार के दुःखों को दूर करने के लिये 8 प्रमुख बाते बतालई। जिन्हे अष्टांगिक मार्ग कहा जाता है। जो इस प्रकार से है--

(A) सम्यक दृष्टि 

कायिक, वाचिक और मानसिक कार्यों के सही ज्ञान को सम्यक दृष्टि कहा गया। 

(B) सम्यक संकल्प 

सही ज्ञान अर्थात् उचित-अनुचित का विवेक। इसमे विवेकपूर्वक सही संकल्प होना आवश्यक है। यह संकल्प राग, हिंसा और प्रतिहिंसा से रहित होना चाहिए।

(C) सम्यक वचन 

हित-मित-प्रिय वचन बोलना चाहिये। ऐसी वाणी बोलना चाहिये जिससे किसी के तन-मन को दुःख न पहुँचे और जो सत्य के समीप हो।

(D) सम्यक कर्म 

कर्म के बिना जीवन मे मुक्ति नही है। कर्म हमारे उचित हों, मानव सेवार्थ हों, हिंसात्मक और अनुचित न हों।

(E) सम्यक आजीविका

जीवनयापन के साधन उचित हो। पाप और हिंसा से रहित होना चाहिये। दूसरों को दुःख पहुंचे ऐसे आजीविका के साधन नही होना चाहिए।

(F) सम्यक प्रयत्न 

हमारी पतित इच्छाओं और आकांक्षाओं पर नियंत्रण रखने का प्रयत्न करना चाहिये।

(G) सम्यक स्मृति 

हमे हमेशा यह स्मरण रखना चाहिये कि शरीर और मन के धर्म क्षण विध्वंसी होते है।

(H) सम्यक समाधि 

चित्त की एकाग्रता को समाधि कहा जाता है।

3. पुनर्जन्म 

प्राचीन ग्रन्थों के पुनर्जन्म के सिद्धांत को गौतम बुद्ध भी मानते थे। पुराने कर्मों के कारण ही मनुष्य अच्छा या बुरा जन्म लेता है। गौतम बुद्ध के अनुसार पुनर्जन्म आत्मा का नही, बल्कि अनित्य अहंकार और वासना का होता है जिसके कारण जन्म और मृत्यु एक प्रवाह के समान होती रहती है। वास्तव मे पुनर्जन्म कर्म-कारण के विधान से होता है। मनुष्य की तृष्णा, वासना और घमण्ड, मीह आदि उत्पन्न करती है तभी मनुष्य कार्य करता है। अतः इसके कारण को ही नष्ट करना चाहिए अर्थात् तृष्णा का नाश करने से मनुष्य कर्म मुक्त हो सकता है और मोक्ष प्राप्त कर सकता है। यहीं पुनर्जन्म भी रूक जाता है।

4. अनीश्वरवाद 

बुद्ध किसी भी ईश्वर को नही मानते थे। न किसी ईश्वर को वे सृष्टि की उत्पत्ति का कारण मानते थे। उनके अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति कार्य कारण  और परिणाम के अनुसार होती है। अतः गौतम बुद्ध को अनीश्वरवादी कहा गया है।

5. दस शील 

1. अहिंसा 2. सत्य 3. अस्तेय (चोरी न करना) 4. अपरिग्रह (संग्रह और संपत्ति का त्याग) 5. ब्रह्राचर्य 6. नृत्य गान का त्याग 7. सुगंधित द्रव्यों का त्याग 8. असमय भोजन का त्याग 9. कोमल शैय्ता का त्याग 10. कामिनी कंचन का त्याग।

6. निवार्ण 

बौद्ध धर्म मे निर्वाण पाना इसी जीवन मे संभव है। गौतम बुद्ध के अनुसार अन्तिम उद्देश्य निर्वाण है। निर्वाण का अर्थ इच्छा, वासना और घमण्ड से मुक्त होना है। निर्वाण इस जन्म मे भी मिल सकता है और मृत्यु के बाद भी मिल सकता है। अष्टांगिक मार्ग के अनुसरण से निर्वाण प्राप्त करने मे मदद मिलती है।

7. क्षणिकवाद 

समस्त संसार क्षणिक है। कही कोई स्थायी या अमर तत्व नही है। सभी कुछ अस्थाई है। मानव शरीर मे भी निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। यही प्रक्रिया सृष्टि मे भी चलती रहती है। यही अस्थायित्व और नश्वरता क्षणिकवाद के नाम से विख्यात है।

8. अनात्मवाद 

बुद्ध देव आत्मा के अस्तित्व को नही मानते थे।

9. वेदों मे अविश्वास 

बुद्ध देव कर्मकांड व वैदिक रीतियों के विरोधी थे।

10. अहिंसा 

बुद्ध देव ने हिंसा का घोर विरोध किया। गौतम बुद्ध के अनुसार अहिंसा प्रमुख सिद्धांत और व्यवहार है क्योंकि इसके लिये सद्कर्म, प्रेम, दया, करूणा आदि की आवश्यकता होती है। अहिंसा व्यक्तिगत और सामूहिक महत्व की विशेष बात है। परन्तु कुछ विशेष अवस्थाओं मे गौतम ने मांस-भक्षण की अनुमति दी थी।

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