10/04/2020

1857 की क्रांति के कारण और स्वरूप

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सन् 1857 की क्रांति या प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 

1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम भारत के इतिहास की एक गरिमामय युगान्तकारी घटना है। 1857 की क्रान्ति भारत की पहली सशस्त्र क्रांति थी, जिसकी व्यापकता और शक्ति के सामने ब्रिटिश शासन की नींव डगमगा उठी थी। राष्ट्रीय समस्याओं को केन्द्र मे 1857 की क्रांति ने भारत मे ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के अस्तित्व को चुनौती दी। संपूर्ण देश मे 1857 की क्रांति संगठित रूप से अंग्रेजी शासन की समाप्ति के लिए प्रथम सशस्त्र संघर्ष था। 

यद्यपि संग्राम असफल हो गया परन्तु इसकी स्मृति और प्रेरणा जनमानस मे विद्यमान रही। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात भारतीयों मे जो चेतना जागृत हुई, वह विशुद्ध रूप से भारतीय थी। भारतीयों ने यह अनुभव किया कि उनके और अंग्रेजी प्रशासन के हितों मे भिन्नता है और अंग्रेज अपने स्वार्थों को पूर्ण करने के लिए भारतीयों का कभी भला नही होने देंगे। उन्हें यह भी आभास हुआ कि जब तक वे स्वयं नींद से नही जागेंगे और स्वतंत्रता,समानता, बंधुत्व, आत्मसम्मान, अखण्डता और भारतीय होने के गर्व की भावना से कार्य नही करेंगे, देश गुलाम ही बना रहेगा। इस प्रकार के विचारों ने भारतीय मे राष्ट्रीय भावनाएँ बलवती कर दी।

सन् 1857 की क्रांति या प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के कारण 

सन् 1857 की क्रांति के निम्न कारण थे--

1. राजनीतिक कारण 

अंग्रेजों की राज्य विस्तार की नीति के कारण भारत के अनेक शासकों और जमींदारों मे असन्तोष व्याप्त हो गया था। लार्ड वेलजली की सहायक संधि व्यवस्था और लार्ड डलहौजी की हड़प नीति के कारण अनेक राज्यों का अंग्रेजी साम्राज्य मे जबरदस्ती विलय कर दिया गया था। अंग्रेजों ने पंजाब, सिक्किम, सतारा, जैतपुर, सम्भलपुर, झांसी, नागपुर आदि राज्यों को अपने अधीन कर लिया था। सरकार ने अवध, तंजौर, कर्नाटक के नवाबों की राजकीय उपाधियाँ समाप्त कर राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति उत्तन्न कर दी। अंतिम मुगल साम्राट के प्रति अंग्रेजों का व्यवहार अनादरपूर्ण होता चला गया। इन परिस्थितियों मे शासक-परिवारों मे घबराहट फैल गयी थी। अंग्रेजों ने जिन राज्यों पर कब्जा किया वहाँ के सैनिक, कारीगर तथा अन्य व्यवसायों से जुड़े लोग भी प्रभावित हुए। अंग्रेजों ने अनेक सरदारों और जमींदारों से उनकी जमीन छीन ली। इसके कारण इन जमींदारियों मे कार्यरत व्यक्ति बेरोजगार हो गये।

2. भारतीय भाषा, संस्कृति एवं परम्पराओं पर आघात 

लार्ड मैकाले की शिक्षा नीति भारतीय शिक्षा पद्धति एवं संस्कृति पर आक्रमण था। वह पूर्वाग्रहों से प्रेरित था और देशी भाषाओं मे शिक्षा दिये जाने का विरोधी था। मैकाले, अंग्रेजों को सबसे उच्च नस्ल एवं अंग्रेजी भाषा को सर्वोत्तम मानता था और इसीलिए उसने अंग्रेजी भाषा और पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन को प्रोत्साहित किया। परन्तु इस समय मैकाले का उद्देश्य अंग्रेजी शिक्षा का ज्ञान देकर ब्रिटिश राज्य के हितों की रक्षा करना था और ऐसे व्यक्ति तैयार करना था जो अंग्रेजों को शासन मे मदद कर सके। मैकाले प्रजातीय अहंकार से परिपूर्ण था इसका उदाहरण यह है कि उसकी अनुशंसा पर सरकार ने प्राच्य भाषाओं की पुस्तकों के मुद्रण और अनुवाद पर प्रतिबंध लगा दिया। प्राच्य भाषा के समर्थकों ने अंग्रेजी शिक्षा नीति को अपनी भाषा, परम्परा एवं संस्कृति पर आक्रमण मानकर इसका विरोध किया। 

3. आर्थिक कारण

अंग्रेजों द्वारा लागू की गयी भूमि व्यवस्थाओं ने किसानों को नष्ट कर दिया था। अत्यधिक करों के भार के तले दबे हुए भारतीय कृषकों की हालत निरन्तर गिरती जा रही थी। परिणाम यह हुआ कि कृषक साहूकारों के चंगुल मे फंसकर कर्जदार हो गये।

सरकार ने इंग्लैंड मे तैयार माल की खपत भारत मे बढ़ाने के लिए भारत के करघा और हस्तशिल्प कुटीर उद्योगों को बरबाद दिया।

4. पेन्शनें बन्द करना

डलहौजी ने न केवल राज्य हड़पे बल्कि राज्यों से अपदस्थ राजाओं और नवाबों की पेन्शनें और उपाधियों को भी छीन लिया। 1852 मे बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र को शासक स्वीकार न कर उसकी 80,000 पौंड की पेन्शन आकस्मिक रूप से बन्द कर दी। 1855 मे तंजौर के राजा की मृत्यु पर यही व्यवहार करते हुये उसकी भी पेन्शन और जागीर छीन ली। इसके पश्चात कर्नाटक भी शिकार बना। अतः अपदस्थ राजा, नवाब और पेशवा जो पहले ही क्रोधित थे अब उनके सम्मुख संघर्ष के अतिरिक्त कोई विकल्प नही रहा।

5. धार्मिक कारण

भारत मे ईसाई मिशनरी ब्रिटिश राज्य से छूट और प्रोत्साहन पाकर लोभ, आतंक और चालाकी से निर्धन जनता की मजबूरी का लाभ उठाकर उन्हें तेजी से ईसाई बनाने मे लगी थी। अनके स्थानों पर ईसाई धर्म स्वीकार न करने के कारण उनकी सम्पत्ति छीन ली या आग लगवाकर सहानुभूति प्रदर्शित कर ईसाई बनाया। इससे धर्मनिष्ठ भारतीय जनता बहुत असन्तुष्ट हुई।

6. सामाजिक कारण 

भारतीय धारणाओं व विश्वासों से अपरिचित होने के कारण अंग्रेजों ने भारतीय समाज के अनेक नियमों मे परिवर्तन करके यहाँ जनता को अप्रसन्न कर दिया। उन्होंने पाश्चात्य धारणाओं को भारत मे प्रचलित किया। अंग्रेजी सरकार ने सती प्रथा व बाल विवाह पर प्रतिबंध लगाए, इसका विरोध यहाँ की कट्टर हिन्दू जनता ने किया। विधवा विवाह को वैध करार देने से भी यहाँ की जनता नाराज हो गई। भारतीयों मे अंग्रेजी शिक्षा के प्रति घृणा के भाव थे। इन कारणों के परिणामस्वरूप भारत मे असंतोष उत्पन्न हो गया।

7. सैनिक कारण 

अंग्रेजों ने भारतीय सेना के माध्यम से ही भारतीय राज्य की स्थापना की थी और कंपनी की सेना मे इनकी ही संख्या अधिक थी, किन्तु भारतीय सैनिकों के प्रति अंग्रेजों का व्यवहार अच्छा नही था। उन्हें अंग्रेज सैनिकों की अपेक्षा कम वेतन मिलता था व उन्हे उच्च पदों से वंचित रखा जाता था। 1856 मे सामान्यवर्ती कानून द्वारा भारतीय सैनिकों को कही भी सेवा के लिए भेजा जा सकता था, जबकि वे समुद्र पार जाना धर्म के विरुद्ध मानते थे, इससे सैनिकों मे असंतोष फैल गया।

8. तत्कालीन कारण

ऐसे असंतोष के वातावरण मे सैनिकों को नए प्रकार के कारतूस दिए गए जिन पर गाय व सुअर की चर्बी लगी होती थी। इन कारतूसों को उपयोग मे लाने से पूर्व इन्हें दाँत के किनारे से काटना पड़ता था। बैरकपुर छावनी मे 29 मार्च 1857 को मंगल पाण्डेय नामक सैनिक ने चर्बी वाले कारतूस को भरने से इन्कार कर दिया और उत्तेजित होकर अंग्रेज अधिकारियों की हत्या कर दी। फलस्वरूप उसे बन्दी बनाकर 8 अप्रैल 1857 को फांसी दे दी गयी। मंगल पाण्डेय का बलिदान इस विद्रोह मे पहली आहुति थी।

1857 की क्रान्ति का स्वरूप 

भारत के इतिहास मे सन् 1857 की उथल-पुथल एक ऐसी घटना है जो सबसे अधिक विवाद का विषय रही है। अंग्रेज अधिकारी व इतिहासकार इसके स्वरूप को संकुचितकर इसे सिपाही गदर या असन्तुष्ट राजा-महाराजाओं का अपने खोये हुए राज्यों की प्राप्ति के लिए व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास मानते रहे तो राष्ट्रवादी भारतीय लेखक इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम मानते है। इन दो छोरों के बीच अन्य इतिहासकार इसके स्वरूप की व्याख्या करते हुए इसे राष्ट्रीय विद्रोह, धार्मिक, सामाजिक विद्रोह, स्वतंत्रता संग्राम, सभ्यता और बर्बरता के बीच युद्ध मानते है।

सर जाॅन लाॅरेन्स तथा सीले का मत था कि गदर का आरंभ सेना से हुआ था तथा उसका आसन्न कारण चर्बी वाले कारतूसों की घटना ही थी अन्य कुछ नही।

इसका खण्डन इंग्लैंड के तत्कालीन रूढ़िवादी दल के प्रमुख नेता बेन्जामिन डिजरेली ने ही किया, जब उन्होंने कहा कि यह एक राष्ट्रीय विद्रोह था। यह विद्रोह एक आकस्मिक प्रेरणा नही था वरन् एक सचेष्ट संयोग का परिणाम था। वह एक सुनियोजित और सुसंगठित प्रयत्नों का परिणाम था जो सही मौके की तलाश मे थे। साम्राज्य का उत्थान और पतन चर्बी वाले कारतूसों के मामले नही होते। ऐसे विद्रोह उचित और पर्याप्त कारण के एकत्र होते है।

एल.ई.आर. रीस ने इसे ईसाइयों के विरुद्ध धर्मयुद्ध की संज्ञा दी है। इस मत का भी खण्डन किया गया है। विद्रोह पर धार्मिक नियंत्रण कभी भी नही रहा। अंग्रेज जीत गये पर ईसाई धर्म नही। उसकी चारों ओर स्थापना नही हुई। इसी प्रकार यह जातियों का युद्ध भी नही कहा जा सकता। 

कैप्टन जे.जी.मेडले के अनुसार प्रत्येक अंग्रेज के साथ कैम्पों मे 20 भारतीय थे कंपनी की सेना मे बड़ी संख्या मे निष्ठावान काले सैनिक थे। भारत ब्रिटिश राज का आधार उनकी सिपाही सेना थी, जो कभी पूर्णरूप से उनके प्रति विद्रोही ही नही हुई।

सर जेम्स आउट्रम का विश्वास है कि यह हिन्दुओं के कष्टों से लाभ उठाने वाले मुसलमानों का षड्यंत्र था, प्रमाणित नही होता।

टी. आर. होम्स तथा उनके समर्थक इसे सभ्यता और बर्बरता का संघर्ष मानते है। यह विचार गलत है। विद्रोह के समय यदि भारतीय बर्बर हो गये थे तो अंग्रेजों ने भी कम बर्बरता नही दिखायी। सन् 1857-58 मे किसी भी पक्ष ने न शरण माँगी और न दी। युद्ध के नियम भी हटा दिये गये और मनुष्य की मनुष्य के प्रति हैवानियत ने अगणित देवदूतों को रूला दिया। दोनो ओर से ही रक्त मंथन हुआ। यदि दिल्ली, कानपूर, लखनऊ मे अंग्रेज स्त्री-बच्चों की हत्या हुई तो हडसन ने दिल्ली मे अंधाधुंध गीलियाँ चलायी। नील ने शेखी मारी थी कि उसने सैकड़ों भारतीयों को बिना किसी अपराध के फाँसी पर लटका दिया। इलाहाबाद के आसपास कोई ऐसा पेड़ नही बचा था जहाँ अभागे भारतीयों को फांसी पर न लटकाया गया हो।

हडसन ने दिल्ली मे मुगल शहजादों की हत्या करने के बाद उनका खून पिया था और उनके सिर काटकर वृध्द बहादुरशाह को भेंट किये थे। वास्तव मे दोनो ओर से प्रतिशोध की भावना ने मनुष्यों को अभिभूत कर दिया था।

इसके विपरीत अशोक मेहता और वीर सावरकर जैसे राष्ट्रवादी लेखको ने इसे राष्ट्रीय विद्रोह तथा सुनियोजित स्वतंत्रता संग्राम की संज्ञा दी है और कहा है कि 1757 की प्लासी की लड़ाई याद रखना तथा एक शताब्दी तक लगातार विद्रोह होना इसी योजना की ओर संकेत करते है।

आधुनिक भारतीय इतिहासकार 1857 के विद्रोह (क्रांति) को किसी यत्नपूर्वक बनायी गयी योजना का परिणाम नही मानते और न ही इसके पीछे किसी कुशल और निपुण व्यक्ति का होना स्वीकार करते है। इस सम्बन्ध मे डाॅ. आर. सी. मजूमदार ने " सिपाॅय म्युटिनी एण्ड द रिवोल्ट ऑफ 1857 तथा ब्रिटिश पैरामाउण्टमी एण्ड द इण्डियन रेनायसा" मे अपने विचार खोजपूर्वक विस्तार से व्यक्त किये है। डाॅ. एन. एन. सेन ने भी 1857 नामक ग्रंथ मे इस पर पर्याप्त शोध किया है। डाॅ. एस. बी. चौधरी ने सिवल रिवेलियन इन द इण्डियन म्युटिनीज 1857-59 नामक ग्रंथ मे सैनिक असैनिक विद्रोह का विश्लेषण किया है।

निष्कर्ष 

पहली बार भारतीयों ने इतना व्यापक संघर्ष किया। इसमे सैनिक, जनता और भूतपूर्व शासक शामिल थे। इसका मुख्य उद्देश्य अंग्रेजों को भारत भे हटाकर उनकी शक्ति नष्ट करना था। क्रांति के स्वरूप के बारे मे इतिहासकारों के विभिन्न मत है। फिर भी क्रांति का महत्व है। भारतीय इसे भारतीय स्वाधीनता संग्राम के रूप मे मानते है। भारतीय युवकों को इससे प्रेरणा मिलती रहेगी।

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