महालवाड़ी भू-राजस्व व्यवस्था
महालवाड़ी व्यवस्था ब्रिटिश सरकार की भू-राजस्व के संबंध मे एक ग्राम व्यवस्था थी।
प्रदेश के अधिकांश भागों पंजाब, मध्यप्रदेश,उत्तरप्रदेश मे यह व्यवस्था शुरू की गई थी। इसके अन्तर्गत सरकार ने कुछ स्थानों पर 30 वर्ष के लिये और कुछ अन्य स्थानों पर 20 वर्ष के लिए राजस्व निर्धारित किया। स्थायी समझौते के अनुसार यह समझौता अलग-अलग जमींदारों के साथ नही, बल्कि सारे गाँव के साथ किया गया। इस व्यवस्था के अनुसार सारा गाँव सम्मिलित रूप से और गाँव का प्रत्येक व्यक्ति अलग-अलग रूप से सारे गाँव के लगान की अदायगी के लिये उत्तरदायी बन गया। भूमि समस्त ग्राम-सभा की सम्मिलित रूप से होती थी जिसे भागीदारों का समूह कहते थे। इस व्यवस्था के अन्तर्गत गाँव की ओर से गाँव का नम्बरदार गांव को निश्चित लगान देने के सम्बन्ध मे हस्ताक्षर करता था। गांव की सम्मिलित लगाने गाँव का प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी जोतों (खेती) के अनुसार राशि देता था। अतः गांव का प्रत्येक व्यक्ति जब तक अपनी जमीन का लगान देता रहता था तब तक अपनी जमीन का मालिक बना रहता था, यदि कोई व्यक्ति अपनी भूमि को छोड़ देता था तो ग्राम समाज उस भूमि को संभाल लेता था।
महालवाड़ी व्यवस्था के गुण
इस प्रणाली का प्रमुख गुण इस तथ्य मे निहित था कि लगान की राशि विभिन्न तरह की जमीन तथा उसकी उत्पादन क्षमता पर निर्धारित की गई थी। इससे भूमि पर पैदा की जाने वाली फसल तथा उत्पादन क्षमता शासन को ज्ञात हो गई थी। लगान की यह राशि निर्धारित समय तक प्राप्त की जाती थी।
महालवाड़ी व्यवस्था के दोष
महालवाड़ी व्यवस्था या प्रणाली का सबसे बड़ा दोष यह था कि गांव के नम्बरदार एवं बड़े लोगों को विशेषाधिकार मिल गए थे क्योंकि यही लोग सरकार के समझौता पर हस्ताक्षर करते थे। गांव के छोटे किसान अनपढ़ थे एवं उनका दर्जा भी इस व्यवस्था मे कम हो गया था। नम्बरदार तथा बड़े लोग इस व्यवस्था का दुरूपयोग कर अपना स्वार्थ सिद्ध करने लगे। यह एक मध्यस्थ वर्ग था। यह वर्ग किसानों की भूमि पर कब्जा करने लगा। सरपंच छोटे कृषकों का दमन करने लगा। गरीब छोटे किसानों को बहुत कम मुआवजा देकर उनकी फसल के अधिकांश भाग पर बड़े लोग अधिकार कर लेते थे।
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