2/03/2023

योग की उत्पत्ति, इतिहास और विकास

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प्रश्न; योग की उत्पत्ति और विकास पर प्रकाश डालिए। 

अथवा", योग का इतिहास और विकास पर एक टिप्पणी लिखिए। 

अथवा", योग के विकास के इतिहास का विवेचन कीजिए। 

उत्तर--

भारत में योग का उद्भव हज़ारों वर्ष पूर्व हुआ। इसकी उत्पत्ति सुख प्राप्त करने और दुखों छुटकारा पाने की विश्वव्यापी इच्छा के कारण हुई। यौगिक जनश्रुति के अनुसार, शिव को योग का संस्थापक माना गया है। 2700 ईसा पूर्व, पुरानी सिंधु घाटी सभ्यता की बहुत सी मुद्राएँ और जीवों के अवशेष संकेत देते हैं कि प्राचीन भारत में योग प्रचलन में था।

परंतु योग का व्यवस्थित उल्लेख पतंजलि के योगदर्शन में मिलता है। महर्षि पतंजलि ने योग के अभ्यासों को सुव्यवस्थित किया । 

यह उल्लेखनीय है कि प्राचीन योग महान वैदिक परम्परा का हिस्सा रहा है। पतंजलि ने तो बाद मे इस शिक्षा का संकलन किया था। यौगिक शिक्षा के अन्तर्गत पतंजलि योग के समस्त पहलू शामिल है, जो पतंजलि से पहले वाले साहित्य में विद्यमान है, जैसे पुराण, महाभारत और उपनिषद जिसमें पतंजलि का नाम बाद में आता हैं। 

योग की उत्पत्ति (उद्भव) 

yoga ki utpatti;योग की उत्पत्ति भारत मे हुई हैं इस बात मे किसी भी प्रकार की कोई शंका पैदा नही होती। इस तथ्य को पूरी दुनिया भी स्वीकार कर चुकी है, लेकिन योग की उत्पत्ति या उद्भव कैसा हुआ और किसने किया इसे लेकर विद्वान एक मत नहीं हैं। इसे लेकर आज भी काफी मतभेद है। इसलिए हमें पहले भारतीय प्राचीन वैदिक काल और उस श्रुति आधारित ज्ञान यानि वेद और वैदिक ॠचाओं को समझना होगा। 

योग अति प्राचीनतम विज्ञान है। वैदिक काल से लेकर आज तक के आधुनिककाल से सभी ॠषि, सन्त, विद्वान, साहित्यकार, मनोवैज्ञानिक आदि योग की महिमा को मानते है। विभिन्न प्राचीन साहित्यों में योग के प्रथम वक्ता के सन्दर्भ में निम्नलिखित वर्णन मिलता हैं-- 

योग के आदि (प्रथम) वक्ता (खोजकर्ता) का श्रेय हिरण्यगर्भ को दिया गया है। विभिन्न आर्य ग्रन्थों, साहित्य में हिरण्यगर्भ का वर्णन इस प्रकार किया गया हैं---

याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार--

'हिरण्यगर्भो योगस्यचक्रा नान्यः पुरातनः।"

याज्ञवल्क्य स्मृति 12/5

यानि की हिरण्यगर्भ योग के आदिवक्ता है अन्य कोई नहीं ।

महाभारत में योग के आदिवक्ता हिरण्यगर्भ का वर्णन इस सूत्र से ज्ञात होता है: -

"सांख्यस्य वक्ता कपिलः परमर्षि स उच्यते। 

हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्यः पुरातनः।।"

महाभारत, 2 / 394/65

अर्थात् सांख्य के वक्ता परम ऋर्षि कपिल कहे गये हैं, और योग के प्राचीन वक्ता हिरण्यगर्भ कहे गए है।

अद्भुत रामायण में तो स्पष्ट ही हिरण्यगर्भ को जगत की अन्तरात्मा कहा गया है।

'हिरण्यगर्भो जगदन्तरात्मा।'  

अद्भुत रामायण 5/6

अर्थात् हिरण्यगर्भ ही संपूर्ण की अंतरात्मा हैं। 

टीकाकार नीलकण्ड ने महानीति च योगेषु श्लोकांश के अर्थ में कहा हैं कि--

"योगेषु एष महानीति प्रथम कार्यम।" 

अर्थात् हिरण्यगर्भ महाराज की यही इति है कि आपने वेदों से भी प्रथम योगविद्या अर्थात् पराविद्या का प्रादुर्भाव किया।

श्रीमद्भागवत में भी इसी अभिप्राय की पुष्टि की गयी हैं-- 

"इदं हि योगेश्वर योगेनपुणं हिरण्यगर्भों भगवांजगाद् यत्।

यदन्तकाले त्वयि निर्गुणमने, भक्त्या दीधितोज्भिक्त दुष्कलेवर।।" 

महाभारत 2/394/65 

अर्थात् हे योगेश्वर मनुष्य अनन्तकाल में देहाभिमान त्यागकर आपके निर्गुण स्वरूप में चित्त लगाए इसी को भगवान हिरण्यगर्भ ने योग की सबसे बड़ी कुशलता बताया हैं। अतः यहाँ हिरण्यगर्भ को योग का प्रवक्ता और परमात्मा दोनों के रूप में माना है। हिरण्यगर्भ का ब्रह्म रूप में वेदों मे भी उल्लेख हैं-- 

"हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे 

भूतस्य जातः पातिरेक आसीत्। 

सा दाधार पृथिवी घामुतेमां 

कस्मै देवाय द्वविषा विधेम्।।" 

ऋग्वेद 1/121/1, यजु. अ. 13 मन्त्र 4

अर्थात् सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ ही उत्पन्न हुए, जो संपूर्ण विश्व के एकमात्र पति है। जिन्होंने स्वर्ग और पृथ्वी को आधार किया। उन प्रजापति देव का हम ह्रदय द्वारा पूजन करते हैं। उक्त ऋग्वेद ऋचा के आधार पर कहा जा सकता है कि प्राचीनतम वेद भी हिरण्यगर्भ योग के प्रवक्ता हैं। 

उपरोक्त साक्ष्य को पढ़कर यह प्रश्न हर किसी के मन में उठना स्वाभाविक है कि हिरण्यगर्भ का अर्थ क्या हैं? हिरण्यगर्भ कौन हैं?

हिरण्यगर्भ शब्द दो शब्दों से मिलकर बना हैं-- हिरण्यं और गर्भ। हिरण्यं से तात्पर्य स्वर्णभाण्ड से और गर्भ से तात्पर्य उत्पत्ति स्थान से है। अतः हिरण्यगर्भ को सोने के अण्डे से निकला हुआ चौमुखी बह्य माना जाता है। योग के आदि वक्ता हिरण्यगर्भ को माना गया है। व्यक्ति रूप में संहिता काल में वे मन्त्र दृष्टा ऋर्षि थे। हालाँकि इस बारे में अभी व्यापक विचार और शोध किया जाना है कि याज्ञवल्यक तथा व्यास ऋर्षि द्वारा रचित हिरण्यगर्भ कौन हैं? 

सामान्यतः सात हिरण्यगर्भों का वर्णन आता हैं, जो निम्नलिखित हैं-- 

पहले हिरण्यगर्भ-- सूर्य,- 1. तत्व रूप में, 2. ऋर्षि रूप में

दसरे हिरण्यगर्भ-- बुद्धि या महत्तत्व 

तीसरे हिरण्यगर्भ-- आचार्य हिरण्यगर्भ 

चौथे हिरण्यगर्भ-- शिव के शिष्य 

पाँचवें हिरण्यगर्भ-- ऊर्जा ऋर्षि के पिता

छठें हिरण्यगर्भ-- ऋर्षि परमेष्ठी प्रजापति के पुत्र 

सतवे हिरण्यगर्भ-- प्रजापति ब्रह्म जी।

1. पहले हिरण्यगर्भ 

सूर्य को पहला हिरण्यगर्भ माना गया है। यहाँ सूर्य को दो रूपो में माना गया है। एक सूर्य देवता के रूप में और दूसरा आचार्य सूर्य के रूप में  तत्व रूप सूर्य देवता योग के आदिवक्ता है। यह किसी भी काल में प्रमाणित नही हो सका हैं। वही आचार्य सूर्य द्वारा रचित ग्रन्थ 'योगमार्तण्ड' का वर्णन भलई स्वर्गीय धनराज शास्त्री ने 'स्मृति संग्रह' नामक ग्रन्थ में किया है। परन्तु योगमार्तण्ड उपलब्ध नही है। प्रमाण के अभाव में आचार्य सूर्य भी आदिवक्ता नही कहे जा सकते हैं।

2. दूसरे हिरण्यगर्भ 

दूसरा हिरण्यगर्भ भौतिक तत्व महत्व या बुद्धि तत्व को माना जाता है। महाभारत में वर्णित हैं 'हिरण्यगर्भो भगवानेष बुद्धिरति स्मृतः।' यहाँ बुद्धि या महतत्व को ही हिरण्यगर्भ ने कहा है। बुद्धि एक भौतिक तत्व है, योग जैसी विद्या का आदिवक्ता तत्वात्मक नहीं हो सकता। इसलिए दूसरे हिरण्यगर्भ को योग का उपदेष्टा नहीं माना जा सकता है।

3. तीसरे हिरण्यगर्भ 

योगी अहिरबध्न्यु ने तीसरा हिरण्यगर्भ का वर्णन किया है। महान योगी अहिरबध्न्यु अपनी संहिता अहिरबध्न्यु संहिता' में लिखा है कि आचार्य हिरण्यगर्भ ने दो योग संहिता, निरोध संहिता' और 'कर्मयोग संहिता' की रचना की थी। निरोध संहिता के के नाम से अनुमोदित है कि यह चित्त वृत्ति निरोध से संबंधित होगा। परन्तु यह वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। अहिरबध्न्यु संहिता में वर्णित हिरण्यगर्भ योग का आदिवक्त नहीं हो सकता, क्योकि योग का विस्तृत वर्णन और प्रचलन आहिर्बध्न्यु संहिता सं भी पहले श्रुति, स्मृति, ब्राह्मण, आरण्यक और पुराणो में है। इसलिए इसमें वर्णित हिरण्यगर्भ को आदिवक्ता मानना तर्कसंगत नहीं है।

4. चौथे हिरण्यगर्भ 

चौथा हिरण्यगर्भ को योगशिखोपनिषद में कल्याणकारी शिव का शिष्य मानते हैं। परन्तु उसके द्वारा बनाया गया कोई भी योग शास्त्र का प्रमाण नहीं मिलता है, इसलिए योग के आदिवक्ता हिरण्यगर्भ ये नहीं हैं।

5. पाँचवें हिरण्यगर्भ 

पाँचवे हिरण्यगर्भ को ऋर्षि रूप में माना गया है। यह उत्तम - नामक मन्वन्तर के ऊर्जा ऋषि के पिता के नाम से प्रसिद्ध हैं। इसके द्वारा वर्णित कोई भी मन्त्र या इनका सूक्त वेदो में उपलब्ध नही है, और साथ ही साथ उनकी योग सम्बन्धी कोई कृति उपलब्ध नहीं हैं। अतः ये भी योग के आदिवक्ता या उपदेष्टा हिरण्यगर्भ है ही नही ।

6. छठे हिरण्यगर्भ 

छठे हिरण्यगर्भ ऋषि परमेष्ठी प्रजापति के पुत्र थे। इनकी एक कन्या और आठ पुत्र सहित नौ सन्ताने थी। सभी सन्ताने ऋग्वेदीय मन्त्रदृष्टा ऋषि हुयी। इनकी सन्तानों में 127 मन्त्र दिये, इनमें हिरण्यगर्भ के केवल 10 मन्त्र थे, जिनका वर्णन 10 वें मण्डल के 121 वे सूक्त के 1-10 वें मन्त्र तक मिलता हैं। इन मन्त्रो में कही पर भी योग सम्बन्धी कोई वर्णन नही मिलता हैं।

7. सातवें हिरण्यगर्भ 

सातवे हिरण्यगर्भ स्वयं प्रजापति ब्रहमा जी हैं। सृष्टि निर्माण के लिए प्रजापति ब्रहमा जी ने सर्वप्रथम योग रूप तप किया और जीवसृष्टि रचित की थी । ब्रहमा जी ने ब्रहम संहिता नामक ग्रन्थ की रचना की थी। वेदो में अनेक ऐसे मन्त्र जो योग का प्रतिपादन करते है, और प्रजापति ब्रहमा ही चारो वेदो के ज्ञाता हैं।

इसलिए सृष्टि के आदिकालिक देव और वेदज्ञ होने के कारण ब्रह्मा जी (सतवें हिरण्यगर्भ) को ही योग का वक्ता या आदि उपदेष्टा स्पष्ट ही न्यायसंगत एवं मान्य हैं।

पूर्व में वर्णित उपरोक्त तथ्यो के आधार पर हम कह सकते है कि एक दूरदर्शी, वैज्ञानिक, तत्वदर्शी ऋषि हुए जिन्होने मानव जीवन के अन्तिम लक्ष्य को प्रदान करने वाली योग विद्या को सूत्र रूप में महर्षि पतंजलि ने समेटा और योगसूत्र नामक महान ग्रन्थ की रचना की।

योग का इतिहास और विकास 

yog ka itihaas aur vikas;हिरण्यगर्भ जो ब्रह्याण्ड में रचनात्मक और विकास मूलक शक्ति को निरूपित करते है। उनको ही योग का खोजकर्ता कहा जाता है। उनके बाद योग को ऋग्वेद काल में भी ढूँढा जा सकता हैं। उनके बाद योग को ऋग्वेद काल में भी ढूँढा जा सकता है। सबसे प्राचीन हिन्दू ग्रंथ वेद हैं, जिसमें मन और अन्तर्दृष्टि को सत्य अथवा वास्तविकता के प्रकाश के साथ सम्बद्ध करने की बात कही गई। प्राचीन काल में योग गुरूओं में अनेक प्रसिद्ध ऋषियों का नाम लिया जा सकता हैं-- जैसे वरिष्ठ याज्ञवल्क्य तथा जैगीशव्य। योगियों में जो योगेश्वर कहलाते हैं वह स्वयं श्रीकृष्ण हैं जो भगवत् गीता के नायक हैं। भगवत् गीता को योग शास्त्र भी कहा गया हैं, जिसके अंतर्गत योग पर प्रामाणिक कार्य उपलब्ध हैं। 

योग के इतिहास को निम्नलिखित भागों में बांटा जा सकता हैं--

1. वैदिक काल

वेद-ऋचाएँ विश्व में सबसे प्राचीन ग्रंथ है। संस्कृत शब्द वेद का अर्थ हैं-- 'ज्ञान' और ऋक् का आशय 'प्रशंसा' से है। इस प्रकार ऋग्वेद ऐसी ऋचाओं का संकलन है जिनमें सर्वशक्तिमान की प्रशंसा की गई है। अन्य तीन वेद हैं-- यजुर्वेद (यज्ञ का ज्ञान), सामवेद (गायन का ज्ञान) तथा अथर्ववेद (अथर्व का ज्ञान)। वैदिक काल में ब्रह्यंड में उच्चता को प्राप्त करने के साधन थे-- ज्ञान या श्रुति, जिन्हें ध्यान के माध्यम से लिया जाता था। इसमें तीन योग शामिल हैं-- मंत्र योग, प्राण योग और ध्यान योग। 

(अ) मंत्र योग 

जिसमें मंत्रों में निहित शक्ति के कारण मंत्र मन के रूपांतरण के उपकरण के रूप में सक्रिय हो जाता हैं। 

(ब) प्राण योग 

प्राणायाम के द्वारा जैव तंत्र को बल या शक्ति प्राप्त होती है।

(स) ध्यान योग 

'धी' शब्द का आशय बुद्धि या मेधा से हैं, जो ध्यान शब्द का मूल है। 'धी' यानी बुद्धि मन का आन्तरिक भाग हैं, जिसके माध्यम में हमें शाश्वत सत्य को स्वीकार करने का सामर्थ्य मिलता हैं। 'धी' अथवा बुद्धि का यह संवर्धन मुख्य रूप से विवेक संकाय है, जो योग और वेदान्त की प्रमुख विशेषता हैं। 

मन को एकाग्र करके एक स्थान/विचार पर स्थिर कर लेना ही ध्यान है। 'ध्यान' वह अवस्था है जिसमें एकाग्र मन की वृत्तियाँ तेल की अनवरत प्रवाहमान धारा की तरह एकमात्र धारणा के इर्द-गिर्द प्रवाहित होने लगती है और इसके पश्चात मानसिक योग्यताएँ (मानस) में कोई भी बाहरी वस्तु मौजूद नही होती। ध्यान की पाँच विशेषताएं हैं-- एकल विचार, सहजता, धीरता, सजगता, सहज विस्तार। मन की कोई भी अवस्था, जिसमें ये पाँच विशेषताएं होती हैं उसे कहा जा सकता है कि यह ध्यान की अवस्था में हैं। 

मैत्रायणी उपनिषद् में योग को षडंग-योग कहा गया है, यानी 6 अंगों (षडंग) की समेकित प्रणाली। मैत्रायणी उपनिषद में इसे इस प्रकार वर्गीकृत किया गया है-- 

1. श्वसन नियंत्रण (प्राणायाम), 

2. इन्द्रिय नियंत्रण (प्रत्याहार), 

3. ध्यान, 

4. एकाग्रता (धारणा), 

5. तर्क तथा 

6. अन्तर्ज्ञान या अनुभवातीत/ज्ञानातीत अवस्था (समाधि), कठोपनिषद (2.5.4) के अनुसार योग एक ऐसी अवस्था है, जिसमे हमारी समस्त इन्द्रियाँ वश मे हो जाती हैं, यानी इन्द्रियों पर और मन पर पूर्ण नियंत्रण हो जाता हैं।

2. पूर्व प्राचीन काल में योग 

इसका सर्वाधिक असाधारण ग्रंथ है भगवद्गगीता, जिसकी रचना ईसा के लगभग 5 हजार वर्ष पूर्व हुई थी। भगवद्गगीता के अनुसार ईश्वर से मिलने के चार मार्ग हैं। इन्हें इस प्रकार निरूपित किया गया हैं-- 

(अ) श्रेष्ठ कर्म (कर्मयोग), 

(ब) श्रेष्ठ श्रद्धा/उपासना (भक्तियोग), 

(स) श्रेष्ठ/परिशुद्ध ज्ञान (ज्ञान योग), 

(द) संकल्प शक्ति योग (राज योग)। 

भगवत् गीता में 18 अध्ययन है प्रत्येक अध्याय योग कहलाता है।प्रत्येक अध्याय में अंतिम सत्य तक पहुँचने का मार्ग योग को ही बताया गया है। भगवद् गीता में मानव अस्तित्व, आत्मा की अमरता और ईश्वर के साथ हमारे शाश्वत संबंध के बारे में विशेष ज्ञान मिलता है। यह ज्ञान किसी अपवाद के बिना सबके लिए है।

3. प्राचीन काल 

प्राचीन काल के दौरान यानि लगभग दूसरी शताब्दी में पतंजलि ने योग सूत्र लिखे थे, जिसमे 196  सूत्र है, जिनमें जीवन के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए 8 सोपान (अष्टांग) निरूपित है, जो जन्म और मृत्यु के दुःखों से मुक्ति का मार्ग है। इसे राजयोग यानी संकल्प शक्ति का योग कहा गया हैं। 

बुद्ध का अभ्युदय भी इसी काल मे हुआ था, जिन्होंने हमें अष्ट मार्ग की शिक्षा दी, तथा जिसमें ध्यान पर विशेष जोर दिया गया है। 

विपाशना भारत की सबसे प्राचीन तकनीक है। लम्बे समय तक मानवता के लिए जिसका विलोप हो गया था उसे गौतम बुद्ध ने 2500 वर्षों से भी अधिक पूर्व पुनर्जीवित किया। विपाशना शब्द का अर्थ है, चीजों को उसी रूप में देखना जैसे वे वास्तव में होती है। यह आत्म-प्रेक्षण द्वारा स्वयं को परिशोधित करने की प्रक्रिया है। इसकी शुरूआत मन को एकाग्र करने हेतु सामान्य श्वसन क्रिया के माध्यम से होती है। इसमे गहन एकाग्रता के साथ व्यक्ति शरीर और मन की परिवर्तनशील प्रकृति का अवलोकन करता है और आगे बढ़ता रहता है तथा अर्सीई और दुःख पूर्ण जीवन के शाश्वत सत्य की अनुभूति करने लगता हैं। जैन धर्म में प्रत्याहार और ध्यान योग के दो प्रमुख खंड हैं।

4. मध्याकाल में योग 

बुद्ध ने (लगभग छठी शताब्दी में) पूरे उपमहाद्वीप में ध्यान को लोकप्रिय बनाया था। किन्तु इसमें एक बात पर सहमति नहीं है कि कोई व्यक्ति ध्यान के माध्यम से आध्यात्मिक क्रियाएँ तत्काल नहीं कर सकता। ध्यान के लिए पहले स्वयं को तत्पर करना होता हैं, छठी शताब्दी मे जब बौद्ध धर्म के प्रभाव मे कमी आ गयी थी तो मत्स्येन्द्रनाथ और गोरखनाथ जैसे कुछ महान योगियों ने इस पद्धति को परिशोधित किया। इस अवधि के दौरान हठ योग से संबंधित कई ग्रंथों की रचना हुई। 

इस अवधि में जो प्रमुख ग्रंथ लिखे गए, उनमे स्वात्माराम द्वारा रचित योग प्रदीपिका, श्रीनिवास योगी द्वारा रचित घेरंड संहिता एक संवादात्मक ग्रंथ, श्रीनिवास योगी द्वारा रचित हठरत्नावली, जिसमें योग के साथ-साथ आयुर्वेद पर भी विमर्श किया है, नित्यानाथ द्वारा रचित सिद्ध सिद्धांत पद्धति आदि शामिल हैं। 

गुरू गोरखनाथ को नाथ सम्प्रदाय का प्रणेता माना जाता है और यह कहा जाता है कि नौ नाथ और 84 सिद्धों का मानव रूप में विश्व में योग और ध्यान का संदेश प्रसारित करने के प्रयोजन से यौगिक अविर्भाव हुआ। वे वही योगी थे, जिन्होंने मानव को समाधि से अवगत कराया। कहा जाता है कि गुरू गोरखनाथ ने कई पुस्तकों की रचना की है जैसे-- गोरख संहिता, गोरख गीता और योगचिन्तामणि।

5. आधुनिक काल में योग 

यह पुनरूत्थान का काल माना जाता है। इस काल का आरम्भ 19वीं शताब्दी से हुआ । यद्यपि भारत अति प्राचीन काल से ही अपनी एक विशिष्ट आध्यात्मिक छवि आध्यात्म के कारण ही बनाये रखने में सफल रहा है। प्राचीन काल से ही अनेको छोटे-बड़े आध्यात्मिक सम्प्रदाय यहाँ पुष्पित व पल्लवित होते रहे है। ये सम्प्रदाय बहुत कम सिद्ध योगियो या तपस्वियों के संरक्षण में योग शिक्षा के प्रचार प्रसार में लगे रहते थे।

14वीं व 15वीं शताब्दी में योग के सन्दर्भ में अनेको भ्रान्तियाँ फैलाने की कोशिश की गयी। परन्तु भारत वर्ष ऐसा सौभाग्यशाली देश है, जब जब यहाँ धर्म की हानि हुई या यहाँ विकृतियाँ उत्पन्न हुई (विशेषतः योग या आध्यात्म के क्षेत्र में) तब कोई ना कोई महापुरूष उत्पन्न होते रहे, और सही मार्गदर्शन करते रहे। इन्ही महापुरूषो की श्रेणी में स्वामी कुवल्यानन्द जी, स्वात्माराम जी, स्वामी रामकृष्ण परमहंस स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी लक्ष्मणानन्द जी आदि ने योग परम्परा को आगे बढ़ाया। स्वामी कुवलयानन्द जी ने कैवल्य धाम नामक संस्था का निर्माण किया। स्वामी शिवानन्द जी ने दिव्य जीवन संघ की संस्थापना की। स्वामी सत्यानन्द सरस्वती जी ने 1956 में अन्तर्राष्टीय योग मित्र मण्डल की स्थापना कर योग संस्कृति को विश्वव्यापी बनाने का, व योग शिक्षा के प्रचार-प्रसार का बीड़ा उठाया। विश्व के मानव को योग परम्परा से अवगत कराने के लिए परमहंस सत्यानन्द जी द्वारा ही 1963 में बिहार योग विद्यालय की स्थापना की। अपनी विशिष्ट योग प्रशिक्षण पद्धति के कारण यह एक ख्याति प्राप्त संस्था है, जो देश विदेशो में योग विद्या को वैज्ञानिक कसौटियों पर अनुसन्धान करके योग विद्या को नयी दिशा दे रही है। इसी प्रकार योगी श्यामाचरण लाहिड़ी जी ने किया, योग विधि के माध्यम से प्रचार-प्रसार किया।

आचार्य श्रीराम शर्मा जी ने हरिद्वार में शान्तिकुंज व देवसंस्कृति विश्वविद्यालय व ब्रहमवर्चस्य की स्थापना कर योग के ज्ञान व विज्ञान को विश्वव्यापी पहचान दी। योग की विविध प्रक्रियाओं कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, मन्त्रयोग, नादयोग, हठयोग के साथ-साथ यज्ञ चिकित्सा, जड़ी-बूटी चिकित्सा पर अनेको अनुसन्धान ब्रहमवर्चस्व व देव संस्कृति विश्वविद्यालय में हो रहे है। आज अनेको विश्वविद्यालयो व संस्थानो में योग शिक्षा विभिन्न पाठ्यक्रम चल रहे है। जिसमे योग में प्रमाण पत्र डिप्लोमा, स्नात्कोत्तर व पी. एच. डी. आदि पाठ्यक्रम संचालित हो रहे है। अब योग विषय को अध्ययन, अध्यापन हेतू विश्व विद्यालय अनुदान आयोग (यू. जी. सी.) ने भी स्वीकृति प्रदान कर दी है।

स्वामी रामदेव जी ने योग का प्रचार प्रसार विश्व में जन जन तक पहुँचाकर स्वास्थ्य के क्षेत्र में जन मानस को जागरूक किया हैं। उन्होने पतंजलि योगपीठ की स्थापना कर ऋषिकुल पद्धति पर आधारित शिक्षा पद्धति का प्रारम्भ किया है। वर्तमान में योग के प्रचार-प्रसार में तथा योग शिक्षा के द्वारा शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक स्वास्थ्य की प्राप्ति हेतू अनेको संस्थान अनवरत चल रहे है, जो निम्न है-- कैवल्यधाम, विहार योग भारती, योगदासंत्संग सोसाइटी, पतंजलि योगपीठ, विवेकानन्द योग संस्थान, मोराजी देसाई, राष्ट्रीय योग संस्थान दिल्ली, अरविन्द आश्रम पाण्डिचेरी, गुरुकुल कांगड़ी विश्व विद्यालय, देव संस्कृति विश्व विद्यालय, उत्तराखण्ड मुक्त विश्व विद्यालय, कुमाऊ विश्व विद्यालय, गड़वाल विश्व विद्यालय आदि ।

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