2/08/2023

षट्कर्म का अर्थ, महत्व/उद्देश्य

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प्रश्न; षट्कर्मो का योग साधना मे अर्थ व उद्देश्य बताइए और उनका विवरण देकर उनका महत्व प्रदर्शित कीजिए। 

अथवा" षट्कर्म के उद्देश्य बताइए। 

अथवा" षट्कर्म का महत्व स्पष्ट कीजिए। 

उत्तर-- 

षट्कर्म का अर्थ (shatkarma kya hai)

षट्कर्म छह प्रकार से शरीर की आंतरिक शुद्धिकरण की क्रिया है। आसन, प्राणायाम, मुद्रा और बंधों के अभ्यास से शरीर में जमे हुए मल धीरे-धीरे दूर होने लगते है, लेकिन शरीर मे एकत्रित हुए स्थूल मल पदार्थों को शीघ्र निकालने की योग में कुछ अचूक विधियाँ भी हैं। इन्हें ही षट्कर्म कहा जाता है। षट् का अर्थ हैं, छः और कर्म का अर्थ है क्रिया। इसके अन्तर्गत निम्नलिखित छः प्रकार की क्रियांए आती है इसलिए इसे "षट्कर्म" कहा जाता हैं-- 

1. नेति,

2. बस्ति, 

3. कपालभाति, 

4. धौति, 

5. त्राटक, 

6. नौलि।

हम जो आहार ग्रहण करते है, उसका अवशोषित हिस्सा मल और मूत्र के रूप में नियमित रूप से बाहर निकलता रहता है। नाक, कान, मुख, आंख और रोम छिद्रों से भी विकार निकलता रहता है। गलत आहार-विहार और आंतरिक अंगों की निष्क्रियता से ये मल और विकार सुचारू रूप से पूरी तरह से बाहर नहीं निकल पाते है जिससे शरीर और मन निस्तेज, भारी और अस्वस्थ हो जाता है। 

प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार ये मल जिन्हें विजातीय द्रव्य कहा जाता है, सभी रोगों के कारण बनते है। आयुर्वेद के अनुसार कफ, पित्त और वायु के असंतुलन से रोगों की उत्पत्ति होती है। इसलिए आयुर्वेद में भी त्रिदोषों के शमन के लिए शरीर के मल को बाहर निकालने के लिए कई विधियाँ बताई गई है। शरीर के अंदर आहार ग्रहण करने से रासायनिक प्रतिक्रिया तो होती ही है, ऐसे भी शरीर के कोषों की टूट-फूट हमेशा होती रहती है, जो शरीर में ज्यादा समय तक रहकर उसे तरह-तरह से नुकसान पहुँचाते है। यही नहीं भय, आशंका, असुरक्षा, ईर्ष्या और द्वेष इत्यादि मन के विकास यदि स्थाई भाव बना लेते है, तो इनसे भी शरीर के अंदर अस्वास्थ्यकर रासायनिक प्रतिक्रियाएं होती है। ऐसे सभी विकारों को शरीर से शीघ्र बाहर निकालने में षट्कर्मों की विधियाँ सहायक होती हैं। 

योग के अनुसार शरीर की बीमारियों को दूर करने के लिए तच षट्कर्मों की विधियों का प्रयोग करना ही चाहिए, स्वस्थ व्यक्ति को भी इन विधियों का प्रयोग करना चाहिए जिससे शरीर का प्रत्येक अणु, शुद्ध, चैतन्य और प्राणवंत बना रहे। वस्तुतः षट्कर्मों की विधियों द्वारा शरीर को शुद्ध कर लेने के बाद योगाभ्यास करने से ज्यादा लाभ होता हैं। 

हमारे शरीर की रचना पंचतत्त्वों से हुई है। किसी विशेष तत्व की किसी विशेष अंग में प्रधानता रहती है। शरीर के शोधन मे भी पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश इन पांच तत्त्वों का प्रयोग किया जाता है। यद्यपि आकाश तत्त्व सबसे सूक्ष्म तत्त्व है और समस्त ब्रह्मंड मे न होकर अन्य सूक्ष्म विधियों मे किया जाता है। 

इस प्रकार पृथ्वी तत्त्व सबसे स्थूल तत्त्व है इसलिए प्रयोग भी षट्कर्मों का प्रयोग कर शरीर को शोधन किया जाता है।

षट्कर्म का महत्व अथवा उद्देश्य (shatkarma ka mahatva)

षट्कर्म का मुख्य उद्देश्य काया शोधन है क्योंकि मानव शरीर का जितना बाहरी रूप होता है उससे अधिक उसका आंतरिक स्वरूप होता है। जिस प्रकार शरीर के बाहरी रूप की शुद्धि और साफ-सफाई जरूरी होती है उसी तरह से अधिक अच्छे स्वास्थ्य के लिए आंतरिक स्वरूप की शुद्धि भी बहुत जरूरी हैं। 

षट्कर्म शरीर के भीतर के शुद्धिकरण की तकनीक है। यह तकनीके हठयोग के एक खास लक्षण को निर्मित करती है। इसके लिए विभिन्न अतिरिक्त तरीके लागू किए जाते है। हठयोग ग्रंथों (जैसे हठ प्रदीपिका, घेरण्ड संहिता आदि) मे इन्हें प्राणायाम का अभ्यास शुरू करने से पहले की आवश्यक क्रियाओं के रूप मे बताया गया है। षट्कर्म के अभ्यास के द्वारा शरीर का अतिरिक्त वसा, विषाक्तता, प्रदूषित पदार्थों को आँत, नस-नाड़ियों और शरीर से बाहर कर शरीर को आंतरिक रूप से शुद्ध किया जाता है। इस प्रकार हमारे शरीर के भीतर मौजूद जीव पदार्थ या प्राण को आसानी से और सुचारू रूप से नाड़ियों द्वारा, विशेष रूप से सुषुम्ना के माध्यम से निर्दिष्ट किया जा सकता है। यदि नाड़ियाँ ही शुद्ध नहीं होगी तो जीव पदार्थ प्राण ब्रह्यरंध तक नहीं पहुँच सकता है। इसके बिना, कोई भी व्यक्ति (योग साधक) मन रहित (अनमना भाव) की स्थिति का अनुभव नहीं कर सकता है। 

षट्कर्म की 6 क्रियाओं के माध्यम से कोई भी व्यक्ति जिसके शरीर में वात, पित्त, कफ का असंतुलन है वह आसानी से संतुलित कर शरीर को योग, प्राणायाम के अनुकूल बना सकता है। जिस व्यक्ति के शरीर मे उक्त तीनों पदार्थों (वात, पित्त, कफ) का संतुलन बना हुआ है उसे उक्त क्रिया करने की आवश्यकता नही हैं। 

षट्कर्म क्रिया में जल, वायु, नमक, कपड़ा, सूत्र (रस्सी) आदि चीजों का प्रयोग शरीर के कुछ विशेष अंगों पर खास तरीके से किया जाता है। इसमे शरीर को कुछ विशेष प्रकार से घुमाव कर आंतरिक अंगों, शारीरिक तंत्रों का शुद्धिकरण किया जाता है। इसलिए इन क्रियाओं के करते समय अतिरिक्त सावधानी बरतना अत्यंत आवश्यक है। इन क्रियाओं को पूर्ण रूप से प्रशिक्षित, षट्कर्म के जानकार योगगुरू आदि व्यक्तियों की उपस्थित में निर्देशानुसार ही किया जाना आवश्यक है। अन्यथा इसके दुष्परिणाम तत्काल ही प्राप्त होते हैं।

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