Yog ka arth paribhasha uddeshy;योग एक प्राचीन भारतीय जीवन शैली है जो शरीर, मन और आत्मा को एकत्र कर एक उज्ज्वल, स्वस्थ और समतुल्य जीवन जीने का एक तरिका हैं। योग का उद्भव भारत में हुआ था इसलिए इसे भारतीय जीवन शैली कहा जाता हैं। आधुनिक समय में विश्वभर में विज्ञान की एक शैली के रूप में योग को स्वीकार कर लिया गया है। पाश्चात्य संस्कृति भी इसे वैज्ञानिक व्यायाम की एक स्वस्थ शैली के रूप में स्वीकार कर रही है। यद्यपि योग की उत्पत्ति कैसे हुई, यह स्पष्ट नहीं है, परंतु यह लंबे समय से चली आ रही परंपरा है। एक सामान्य जन के लिए योग में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, क्रिया और ध्यान के अभ्यास हैं, जो व्यक्ति को शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ और भावात्मक रूप से संतुलित रखते हैं। इस प्रकार योग व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास के लिए आधार तैयार करता है।
प्रश्न; योग का अर्थ और परिभाषा बताइए?
अथवा", योग क्या है? योग के फायदे बताइए!
अथवा", योग किसे कहते हैं? योग के उद्देश्यों का विवेचन कीजिए।
अथवा", योग की व्युत्पत्ति, परिभाषाएं, लक्ष्य व उद्देश्य बताइए।
अथवा" योग के उद्देश्यों का विवेचन कीजिए।
उत्तर--
योग का अर्थ (yog kya hai)
योग मानव शरीर को स्वस्थ बना कर अपने जीवन लक्ष्य को पाने की एक विधि हैं। योग का ज्ञान, शरीर, मन और मानसिक विकास के साथ-साथ मानव चेतना के विकास के लिए भी बहुत जरूरी हैं।
"योग" शब्द का शाब्दिक अर्थ जुड़ना, संयुक्त होना या जोड़ना होता है। योग शब्द संस्कृत भाषा का शब्द हैं। योग शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा की "युज" धातु से हुई हैं। "युज" धातुऐं के बाद कारण और भाव वाच्य में धञ प्रत्यय लगाने से योग शब्द तैयार हुआ हैं। संस्कृत में युज् धातु का प्रयोग रूधादिगण में संयोग के लिए प्रयुक्त हुआ हैं। जिसका अर्थ होता है जोड़ना यानी कि किसी भी वस्तु से स्वयं को जोड़ना या किसी भी कार्य में स्वयं को संयुक्त करना।
योग दर्शन में योग शब्द का अर्थ एक अलग और विशेष अर्थ लगाया जाता है। वहाँ पर योग को एक साधना के रूप में बताया जाता है। इस साधना में अपनी वित्तवृत्ति का विरोध कर आत्म-संयम के द्वारा चित्त को वृत्ति-शून्य कर देना ही 'योग' हैं। वित्त वृत्तियाँ और वासनाओं के विरोध के लिए कुछ उपाय भी हैं।उनके लिए योग अत्यंत आवश्यक है। अतः दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि शरीर और चित्त की क्रिया अथवा अभ्यास 'योग' हैं, जिसके करने से एक विशेष प्रकार की सिद्धि प्राप्त होती हैं।
पतंजलि के अनुसार योग मन पर विजय प्राप्त करने की एक चैतन्य प्रक्रिया हैं। पतंजलि कृत योगसूत्र में 'योग' का अर्थ 'जोड़ना' कभी नहीं लगाया जाता हैं, जिससे किसी एकत्व का निर्माण होगा। पतंजलि के अनुसार 'योग' का अर्थ केवल मात्र 'प्रयत्न' है। योग के शब्दों में योग का अर्थ पुरूष तथा प्रकृति के बीच एक वियोग है। यह वियोग एक प्रकार की विशेष खोज है, जिसके द्वारा 'अतीन्द्रिय अहम्' की पहचान होती है। अतः योग का अर्थ प्रयत्न और कठिन परिश्रम के साथ भी सम्बन्धित किया किया जाता हैं।
पतंजलि का योग दर्शन भारतीय छः दर्शनों में से एक दर्शन है। पतंजलि एक महान ॠषि थे, जिन्होनें लगभग 4 हजार वर्ष पहले (जैसा कि कुछ प्रसिद्ध पाश्चात्य इतिहासकारों ने बताया) योग की आवश्यक विशेषताओं और सिद्धांतों (जो पहले योग उपनिषदों के रूप में थे) के 'सूत्रों' के रूप में संकलित किया जो योग के क्षेत्र में यह एक महान योगदान हैं।
योग दर्शन के गुरू पातंजलि मुनि के अनुसार मानवीय प्रकृति के अलग-अलग तत्वों के नियंत्रण द्वारा पूर्णता अथवा मोक्ष की प्राप्ति के लिए नियम के साथ किये जाने वाला अभ्यास अथवा विधिपूर्ण प्रयत्न ही 'योग' है। पतंजलि का कहना हैं कि भौतिक शरीर मनुष्य की इच्छा शक्ति और मन को नियंत्रण में लेना जीवन के आदर्श के लिए बहुत आवश्यक है।
योग शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की युज धातु से हुई है, जिसका अर्थ युक्त करना, जोड़ना या मिलाना है इसलिए आत्मा से परमात्मा से मिलाने वाली क्रियाओं का नाम योग हैं।
भगवद्गीता और उपनिषदों में वर्णित योग का क्षेत्र काफी व्यापक है। स्वामी विवेकानंद ने कहा है यह (योग) किसी के कायिक अस्तित्व के विकास को किसी एकल जीवन अथवा कुछ महीनों या थोड़े से घंटो में संपीड़ित करने का एक साधन है। साधारणतया समस्त सृजन में प्रकृति से अन्योन्य क्रियाओं के कारण विकास की प्रक्रिया चलती है। किन्तु इस प्राकृतिक विकास में हजारों लाखों वर्ष लग सकते हैं, पशुओं में यह लम्बी और जटिल प्रक्रिया होती हैं। मानव को विवेक शक्ति, चैतन्य, सोचने-विचारने का संकाय, मन (बुद्धि) और समुचित रूप से विकसित स्वैच्छिक नियंत्रण प्रणालियाँ उपलब्ध हैं, जो इस विकास (वृद्धि) में तीव्रता ला सकती हैं। योग वह व्यवस्थित चैतन्य प्रक्रिया हैं, जिससे मनुष्य के विकास की प्रक्रिया बहुत कम समय में पूरी की जा सकती हैं।
योग की परिभाषा (yog ki paribhasha)
भारतीय संस्कृति और दर्शन में योग का विशिष्ट स्थान है। योग विद्या से संबंधित ज्ञान प्राचीन भारतीय ग्रंथों में अनेक स्थानों पर देखने को मिलता है। इनमें वेद, पुराण, उपनिषद्, श्रीमद्भागवत गीता आदि प्राचीन ग्रंथों में योग विद्या विद्यमान है। इन्हीं ग्रंथों के आधार पर विभिन्न विद्वानों, ॠषियों ने योग की विभिन्न परिभाषाएं दी हैं जो निम्नलिखित हैं---
योग सूत्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि ने अपनी रचना योग सूत्र के द्वितीय सूत्र में ही योग को इस प्रकार से परिभाषित किया हैं--
"योगश्चितवृत्तिनिरोधः।"
अर्थात् चित्त की वृत्तियो का सर्वथा अभाव ही योग है। चित्त का तात्पर्य यहाँ अन्तःकरण से है। ज्ञानेन्द्रियो द्वारा जब विषयों को ग्रहण किया जाता है। ज्ञानेन्द्रियो द्वारा अर्जित ज्ञान को मन आत्मा तक पहुँचाता हैं। आत्मा उसे साक्षी भाव से देखता है, वुद्धि व अहंकार विषय का निश्चय करके उसमें कर्तव्य भाव लाते है। इस सम्पूर्ण क्रिया में चित्त में जो प्रतिबिम्व बनता है, वही वृत्ति कहलाती है। चित्त हमारा दर्पण की भाँति होता है।
अतः विषय उसमें आकर प्रतिविबिम्व होता है। अर्थात् चित्त विषयाकार हो जाता है। इस चित्त को विषयाकार होने से रोकना ही योग है।
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार," प्राचीन आर्ष ग्रन्थो का अध्ययन ही योग है।"
गुरु ग्रन्थ साहिब के अनुसार," निःस्वार्थ भावना से कर्म करना ही सच्चे धर्म का पालन है, और यही वास्तविक योग है।
पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य जी के अनुसार," जीवन जीने की कला ही योग है।"
महर्षि व्यास के अनुसार योग--
"योग समाधिः।"
महर्षि व्यास ने योग को परिभाषित करते हुए कहा है, योग नाम समाधि का है। जिसका भाव यह है कि समाधि द्वारा जीवात्मा उस सत्-चित्-आनन्द स्वरुप ब्रहम का साक्षात्कार करे और यही योग है।
मनुस्मृति के अनुसार
"ध्यान योगेन सम्यश्यदगतिस्यान्तरामनः।"
ध्यान योग से भी योग आत्मा को जाना जा सकता है। इसलिए योगपरायण ध्यान देना चाहिए।
कठोपनिषद के अनुसार," जब चेतना निश्चेष्ठ मन शान्त बुद्धि स्थिर हो जाती है, ज्ञानी इस स्थिति को सर्वोच्च स्थिति मानते है। चेतना और मन के दृढ निश्चय को ही योग कहते है।
यदा पंचवतिष्ठनते ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमा गति ।।
तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रिय धारणाम्।
अप्रमत्तस्दा भवति योगो हि प्रभावप्यौ।।"
अर्थात् जब पाँचों ज्ञानेन्द्रियों मन के साथ स्थिर हो जाती है, और मन निश्चल बुद्धि के साथ आ मिलता है, इस अवस्था को परमगति कहते है। इन्द्रियों की स्थिर धारणा ही योग है। जिसकी इन्द्रियाँ स्थिर हो जाती है, उसमें शुभ संस्कारों की उत्पत्ति और अशुभ संस्कारों का नाश होने लगता है। यही अवस्था योग की है।
याज्ञवल्यक स्मृति के अनुसार
"संयोगो योग इत्यक्तो जीवात्मा परमात्मनो।"
अर्थात् जीवात्मा परमात्मा के मिलन को योग कहते है। अज्ञानता के कारण यह जीवात्मा संसार चक्र में फंसा रहता है। ज्ञान के उदय होने पर उसका परमात्मा से मिलन हो जाता है। फलस्वरूप उसके सभी दुःख समाप्त हो जाते है। इस प्रकार आत्मा परमात्मा के मिलन की स्थिति ही योग है।
अग्नि पुराण के अनुसार
"ब्रह्म प्रकाशनम् ज्ञानं योगस्थ त्राचित्तता।
चित्त वृत्ति निरोधश्चः जीवन ब्रह्ममात्मनो परः।।"
अर्थात् ज्ञान का प्रकाश पड़ने पर चित्त ब्रहम में एकाग्र हो जाता है। जिससे जीव का ब्रहम में मिलन हो जाता है। ब्रहम में चित्त की यह एकाग्रता ही योग है।
सांख्यशास्त्र में योग की परिभाषा इस प्रकार दी है--
"पुरुष प्रकृत्योतियोगेऽपि योग इत्यभिधीयते।"
अर्थात् प्रकृति- पुरुष का प्रभाव स्थापित कर अर्थात् दोनो का वियोग करके पुरुष के स्वरुप में स्थिर हो जाना योग है।
कैवल्योपनिषद के अनुसार
"श्रद्धा भक्ति योगावदेही।"
अर्थात् श्रद्धा भक्ति और ध्यान के द्वारा आत्मा को जानना ही योग है।
स्कन्ध पुराण के अनुसार
"जीवात्मा परमार्थोऽयमविभागः परमतपः
सः एव परोयोगः समासा कथितस्तव।"
अर्थात् जीवात्मा व परमात्मा का अलग होना दुःख ही का कारण है। और इसका अपृथक भाव ही योग है एकत्व की स्थिति ही योग है।
लिंग पुराण के अनुसार
"योग निरोधो वृत्तेस्तु चितस्य द्विज सत्तमा।"
अर्थात् चित्त की सभी वृत्तियों का निरोध हो जाना, उसे पूर्ण समाप्त कर देना ही योग है। उसी से परमगति अर्थात् ब्रहम की प्राप्ति होती है।
'वैशेषिक दर्शन' में योग को इस प्रकार से परिभाषित किया है--
"तदनारम्भ आत्मस्ये मनसि शरीरस्य दुःखाभावः संयोगः।"
अर्थात् मन आत्मा में स्थिर होने पर उसके (मन के काय का) अनारम्भ हैं, वह योग
है।
श्रीमद् भगवद्गीता के अनुसार
"योगस्थ कुरुमाणि संगत्यक्त्वा धनंजय।"
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।"
अर्थात् योग में स्थिर हो कर कर्म फल का त्याग कर और सिद्ध-असिद्ध में सम होकर कर्मों को कर यही समता ही योग है।
"बुद्धि युक्तो जा तीहं उभय सुकृत दुष्कृते।
तस्याद्योगाय युज्जस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।"
अर्थात् कर्मों में कुशलता का नाम ही योग है। कर्मों की कुशलता का तात्पर्य यह है, कि हमे कर्म इस प्रकार से करने चाहिए कि वे बन्धन का कारण ना बने । अनासक्त भाव से अपने कर्त्तव्य कर्मों का निर्वहन करना ही कर्म योग है।
"तं विद्या संयोग वियोगं योग संज्ञितम्।
सनिश्चितेन योक्ताव्यो योगो ऽनिर्विण्णचेतसा।।"
अर्थात् उस योग को उत्साह, श्रद्धा, धैर्य से समाहित चित्त से निश्चय पूर्वक करना चाहिए। इस दुख रुप संसार के संयोग से रहित है, वह योग है।
महर्षि अरविन्द के अनुसार," जीवन को बिना खोए भगवान की प्राप्ति योग है।"
महोपनिषद के अनुसार," मन के संवेगो पर नियन्त्रण ही योग है।"
रागेय राघव अपनी पुस्तक 'गोरखनाथ' और उनका युग में कहा है। शिव व शक्ति कामिलन को योग कहते है।
योग वशिष्ठ में योग को इस तरह परिभाषित किया गया है," संसार सागर से पार होने की युक्ति का नाम ही योग है। महर्षि वशिष्ठ का कथन है, कि योग के द्वारा मनुष्य अपने वास्तविक स्वरुप सद्-चित्-आनन्द का अनुभव कर लेता है।"
योग के उद्देश्य अथवा लक्ष्य (yog ke uddeshy)
योग जीवन की कला है। योग का उद्देश्य हमारे जीवन का समग्र विकास करना है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते है कि योग का उद्देश्य मानव जीवन का सर्वांगीण विकास करना। सर्वांगीण विकास से तात्पर्य शारीरिक, मानसिक, नैतिक, आध्यात्मिक व सामाजिक विकास से हैं। योग जीने की कला है। योग एक ऐसा साधन विज्ञान है, जिसके द्वारा जन्म-जन्मों के संस्कार क्षीण हो जाते हैं। शारीरिक एवं मानसिक निरोगता, स्वस्थता व कुविचारों, कुसंस्कारों से मुक्ति मिलती है। सुसंस्कारिता, सुविचार के द्वारा अच्छे व्यक्तित्व का निर्माण होता है। जीवन उच्च व दिव्य बनता जाता है। आत्मदर्शन व आत्म साक्षात्कार के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति संभव हैं।
मानव जीवन में योग की उपादेयता को निम्नलिखित तीन उद्देश्यों के रूप में रेखांकित किया जा सकता हैं--
1. योग स्वस्थ जीवन की कला और विज्ञान हैं
योग जीवन का विज्ञान है क्योंकि शरीर में स्वास्थ्य, मन में शान्ति, ह्रदय में आनन्द और आत्मा की मुक्ति लाता है। योग जीवन जीने की कला है क्योंकि यह शरीर, मन, भावों इच्छा शक्ति, बुद्धि में अनुशासन लाता है जिससे आत्मा को बल मिलता हैं।
2. योग व्यक्तिगत चेतनता और सार्वभौमिक चेतनता का एकाकार हैं
योग जड़ शरीर को उत्साहयुक्त मन के स्तर से शान्ततम् चेतना या आत्मा के संयोजन में रूपांतरित करता हैं। योग सामान्य चेतना जिसमें हम केवल दृश्यों से अवगत होते हैं, का पथ है जहाँ से होते हुए वह उच्च महान् एवं गहन चेतना तक पहुँचती हैं।
3. योग सम्पूर्ण मानवता के लिए एक अनुशासन हैं
योग सुखी और प्रभावशाली जीवन व्यतीत करने के लिए एक अनुशासन के रूप में भी माना जाता है। योग के दो रूप हैं-- बाह्रा और आन्तरिक। योग को बाह्रा रूप में यम, नियम, आसन और प्राणायाम आते हैं। योग के आन्तरिक रूप में प्रत्याहार (इन्द्रियाँ को वश में करना) एकाग्रता (धारणा), ध्यान अर समाधि समाहित हैं।
कुछ ग्रन्थों में योग के उद्देश्यों को इस प्रकार से परिभाषित किया गया हैं--
गोरक्ष संहिता के अनुसार योग के उद्देश्य इस प्रकार हैं--
"द्विजसेवित शाखस्य श्रुति कस्पतरो फलम्।
शमन भव तापस्य योगं भजत सम्पमाः।।"
अर्थात वेद रूपी कल्पवृक्ष के फल के समान योग शास्त्र हैं। इस योग शास्त्र के सेवन से संसार के तीन प्रकार के ताप का शमन होता हैं।
शिव संहिता में योग का उद्देश्य कुछ इस तरह बताया गया हैं--
"यस्मिन् ज्ञाते सर्वमिदं भवित निश्तिचतम्।
तास्मिन् परिश्रमः कार्य: किमत्यच्छास्य भावितम्।।"
यानि की जानने से यह संसार जाना जाता है ऐसे योग शास्त्र को जानने के लिए परिश्रम करना पड़ता हैं और फिर अन्य शास्त्रों को जानने का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता।
गरूड़ पुराण में कहा गया हैं--
"भवतापेनतप्तानांद योगोहि परमौषधम्।"
अर्थात विभिन्न प्रकार के सांसारिक कष्ट, पीड़ा तथा दुखों से ग्रसित व्यक्तियों के लिए योग एकमात्र औषधि हैं।
योग अध्ययन का मुख्य उद्देश्य ऐसे व्यक्तित्व का निर्माण करना है। ऐसे योगियों व ईश्वर भक्तों का निर्माण करना है। जिनका भावनात्मक स्तर दिव्य मानवताओं से, दिव्य योजनाओं से, दिव्य आकांक्षाओं से उमंगित हो। वे सामान्यः साधारण मनुष्यों की तुलना में कहीं अधिक उत्कृष्ट व समर्थ होते हैं। ऐसे व्यक्तियों की कार्य क्षमता उच्च स्तर की होकर जीवन दिव्य, उच्च होता हैं।
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