अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय का संगठन (antarrashtriya nyayalaya ka sangathan)
संयुक्त राष्ट्र संघ की सातवीं धारा के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय को संघ का एक अभिन्न अंग माना गया हैं। अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के में न्यायाधीशों की संख्या 15 हैं। इन्हीं के मध्य एक न्यायालय का सभापति व एक उप-सभापति होता हैं। इसको मनोनीत स्थायी अन्तर्राष्ट्रीय मंच न्यायालय की सूची से किया जाता है। इस प्रकार की सूची पर पुनः सुरक्षा परिषद् व महासभा में मतदान होता हैं। न्यायाधीशों का कार्यकाल 9 वर्ष का है पर उनका पुनर्निर्वाचन भी हो सकता है। निर्वाचित करते समत महासभा व सुरक्षा परिषद को यह दृष्टिगत रखना पड़ता है कि एक ही राज्य के एक से अधिक व्यक्ति निर्वाचित न हो जाए।
निम्नलिखित योग्यता वाले व्यक्ति न्यायाधीश पद पर निर्वाचित हो सकते हैं--
1. चरित्रवान व नैतिक दृष्टि से श्रेष्ठ।
2. अपने देश के उच्चतम न्यायालय के उच्चतम पद पर नियुक्त होने की योग्यता रखने वाले।
3. अन्तर्राष्ट्रीय कानून के विशेषज्ञ।
इसके अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और रजिस्ट्रार की नियुक्ति न्यायालय द्वारा ही की जाती हैं।
विशेष विवादों के लिए अस्थायी न्यायाधीशों की नियुक्ति होती है। उनकी नियुक्ति सम्बन्धित पक्षों द्वारा होती हैं। जब तक वह विवाद अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के सम्मुख रहता हैं, तभी तक इन न्यायाधीशों का कार्यकाल रहता हैं। न्यायाधीशों के निर्वाचन में न्यायाधीशों के लिए विश्व की मुख्य कानून पद्धतियों का ज्ञान तथा इनके द्वारा समस्त संसार की सभ्यता का प्रतिनिधित्व होने का ध्यान रखा जाता हैं। इसकी नियुक्ति में नैतिक चरित्र तथा योग्यता का भी ध्यान रखा जाता हैं।
इन न्यायालय का प्रयोग निम्नलिखित राज्य कर सकते हैं--
(अ) संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य।
(ब) वे राष्ट्र जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता ग्रहण नहीं की हैं, किन्तु उन्होंने सुरक्षा परिषद् की सिफारिशों के आधार पर निश्चित की गई सामान्य सभा की शर्तों को स्वीकार कर लिया हैं।
(स) वे राज्य जो सुरक्षा परिषद की शर्तों को स्वीकार करते हैं लेकिन अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालयों के नियम जिन्हें मान्य नहीं हैं।
विधि
अनुच्छेद 38 में बतलाया गया हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय निम्नलिखित विधि को प्रयुक्त करेगा--
न्यायालय का कार्य है कि वह अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अनुसार उन समस्त झगड़ों का फैसला करे जो उसे सौंपे जायें। इसके लिये वह निम्नलिखित साधनों से काम लेगा--
1. सामान्य या विशेष अन्तर्राष्ट्रीय अभिसमय जिनसे उन नियमों की स्थापना होती हैं जिन्हें विवादी राष्ट्र निश्चित रूप से जान चुका हो।
2. अंतर्राष्ट्रीय रीति-रिवाज जो इस बात के प्रमाण हैं कि किसी सामान्य चलन को कानूनी मान्यता मिल गयी हैं।
3. कानून के सामान्य सिद्धांत जो सभ्य राष्ट्रों द्वारा स्वीकार किये गये हैं।
4. अनुच्छेद 59 के आधीन विभिन्न राष्ट्रों के अन्तर्राष्ट्रीय कानून को जानने वाले सबसे अधिक योग्य व्यक्तियों के न्यायिक निर्णय और कथन जो कानूनी नियमों को निश्चित करने में सहायक साधन सिद्ध होंगे।
कार्य
अन्तर्राष्ट्रीय कानून के आधार पर अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय अन्तर्राष्ट्रीय विवादों पर अपना निर्णय देता हैं। राज्यों द्वारा प्रस्तुत किये गये विवादों पर इस न्यायालय में विचार किया जाता हैं। इस न्यायालय को चार्टर में उल्लिखित विषयों, अन्तर्राष्ट्रीय संधियों एवं समझौतों पर भी विचार करने का विशेष अधिकार हैं।
अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का क्षेत्राधिकार (antarrashtriya nyayalaya ka ksheradhikar)
इस न्यायालय का क्षेत्राधिकार विश्वव्यापी हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के समस्त सदस्य राष्ट्र इसके सदस्य है। इनके अतिरिक्त गैर सदस्य राज्य भी इच्छानुसार इसके सदस्य बन सकते हैं। न्यायालय का क्षेत्राधिकार तीन प्रकार का हैं--
(अ) ऐच्छिक क्षेत्राधिकार
(ब) अनिवार्य क्षेत्राधिकार
(स) परामर्शीय क्षेत्राधिकार
1. अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के संविधान के अनुच्छेद 38 के अनुसार न्यायालय उन समस्त मामलों पर विचार कर सकता हैं, जिन्हें सम्बन्धित राज्य उसके विचाराधीन रखना चाहें। यहाँ पर यह आवश्यक है कि सम्बन्धित राज्य यह घोषणा करे कि वे अपने विवाद को अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय द्वारा तय करना चाहते हैं। सदस्य राज्यों द्वारा प्रस्तुत प्रत्येक विधि और न्यायिक प्रश्न पर विचार करना इस न्यायालय का प्रथम कार्य हैं। सदस्य राज्य किसी अन्य राज्य के साथ अपने विवाद को इस न्यायालय के सम्मुख रखने के अधिकारी हैं।
2. अनुच्छेद 36 खण्ड 2 में यह कहा गया है कि कोई भी राज्य यह घोषणा कर सकता है कि जैसे ही किसी राज्य के साथ यदि कुछ विशिष्ट विषयों में उसका विवाद उत्पन्न होगा वह अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के क्षेत्राधिकार को स्वतः अनिवार्य स्वीकार करेगा। ये विषय निम्न हो सकते हैं--
(अ) संधि का अर्थ स्पष्ट करने से संबंधित।
(ब) अन्तर्राष्ट्रीय कानून से संबंधित।
(स) अन्तर्राष्ट्रीय उत्तरदायित्व को भंग करने वाली बात से संबंधित।
(द) अन्तर्राष्ट्रीय दायित्व के समाप्त होने पर प्रतिकर की धनराशि तथा उसके रूप से संबंधित।
3. चार्टर के अनुच्छेद 96 के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय को परामर्श मांगने की दशा में निम्नलिखित विषयों पर परामर्श देने का अधिकार हैं--
(अ) महासभा व सुरक्षा परिषद अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय में किसी वैधानिक प्रश्न पर परामर्शदात्री सम्मति देने के लिए प्रार्थना कर सकती हैं। पर वे न्यायालय के परामर्श को स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं हैं।
(ब) संयुक्त राष्ट्र संघ के अन्य अंगों जैसे आर्थिक और सामाजिक परिषद व विशिष्ट संस्थायें भी महासभा द्वारा इस संबंध में कभी भी अधिकार दिये जाने पर अपने-अपने अधिकार क्षेत्रों के अन्तर्गत उत्पन्न होने वाले कानूनों पर न्यायालय की परामर्शदात्री सम्मति के लिए प्रार्थना कर सकते हैं।
अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय ने अब तक अनेक विवादों में अपने निर्णय दिये हैं। यह न्यायालय निर्विवाद रूप से अपना कार्य निष्ठापूर्वक करता आ रहा हैं। इस समय आवश्यकता इस बात की हैं कि इस न्यायालय का क्षेत्राधिकार कम से कम कुछ विषयों में सभी के लिए अनिवार्य कर दिया जाये।
यह सुरक्षा परिषद और महासभा को कानूनी विषयों पर परामर्श प्रदान करता हैं।
न्यायालय के निर्णयों को क्रियान्वित करने की विधि
अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के निर्णय अन्तिम होते हैं। इसके निर्णय के विरूद्ध अन्यत्र अपील नहीं की जा सकती। न्यायालय के निर्णयों को क्रियान्वित किये जाने की व्यवस्था चार्टर के अनुच्छेद 94 के खण्ड दो में की गई हैं," यदि विवाद से संबंधित कोई पक्ष न्यायालय के निर्णय के अनुसार अपने दायित्व को पूरा न करे तो विपक्षी को सुरक्षा परिषद् की शरण लेनी चाहिए जो न्यायालय के निर्णय को लागू करने के लिए आवश्यक सिफारिश करेगी।"
सुरक्षा परिषद इन निर्णयों को मनवाने के लिए बाध्य नहीं हैं। वह चाहे तो संबंधित राष्ट्र से इस निर्णय को मानने की सिफारिश कर सकती हैं या निषेधाधिकार का प्रयोग कर सकती हैं।
मूल्यांकन
अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय संयुक्त राष्ट्र संघ के संस्थापकों की आशाओं के अनुरूप नहीं बन पाया हैं। यह "युद्ध की अस्थिरताओं तथा पाशविक शक्ति के शासन का विकल्प नहीं बन पाया हैं।" यह राष्ट्रों में इस भावना का संचार करने में असमर्थ रहा हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का शांतिपूर्ण समाधान संभव है।
अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय की आलोचना निम्नलिखित आधारों पर की जाती हैं--
1. न्यायालय का क्षेत्राधिकार राष्ट्रों की सहमति पर निर्भर करता हैं।
2. न्यायालय के पास अपने निर्णयों को लागू करवाने की शक्ति का अभाव हैं। यद्यपि सुरक्षा परिषद् इसके निर्णयों को लागू करवा सकती हैं, पर आज तक सुरक्षा परिषद ने किसी निर्णय को लागू नहीं कराया हैं।
3. प्रतिवादी राष्ट्र तो न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत ही नहीं होते तथा वे न्यायालय के निर्णय को ही निरर्थक मानते हैं।
4. विभिन्न राष्ट्र न्यायालय का प्रयोग करना ही उचित नहीं समझते।
5. न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किये गये विवादों की संख्या अत्यन्त न्यून रही हैं।
6. यह भी एक राजनीतिक तथ्य है कि किसी राज्य को न्यायालय के समक्ष घसीटने से उसे शत्रुतापूर्ण कार्य समझा जाता हैं।
7. क्षेत्रीय तथा तकनीकी विषयों के लिए अन्य न्यायाधिकरण अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय से अधिक उपयोगी सिद्ध हुए हैं।
8. अनिवार्य क्षेत्राधिकार से पंच निर्णय के प्रति राज्यों की अभिरूचि अधिक हैं।
उपर्युक्त कठिनाइयों के होते हुए भी न्यायालय ने कुछ विवादों को निपटाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की हैं। न्यायालय ने विभिन्न विवादों में अन्तर्राष्ट्रीय कानून को लागू करके अन्तर्राष्ट्रीय कानून के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया हैं। अपने बहुमूल्य परामर्श के द्वारा उसने अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के कानूनी पहलुओं की व्याख्या की हैं।
एम.सी. छागला के शब्दों में," न्याय का अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय संयुक्त राष्ट्र संघ का अत्यधिक महत्वपूर्ण अंग हैं। यद्यपि यह पूर्ण नहीं हैं, इसके पास वह सत्ता और अधिकार नहीं है जो इसे प्राप्त होने चाहिए। फिर भी यह एक महान विचार का मूर्त रूप हैं। एकमात्र यही विचार राष्ट्रों में शान्ति और सद्भावना लाने वाला हैं।"
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