5/25/2022

शीत युद्ध के प्रभाव/परिणाम, समाप्ति के कारण

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प्रश्न; शीत युद्ध का अंत कैसे हुआ इसका अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर क्या प्रभाव पड़ा?

प्रश्न; शीत-युद्ध की समाप्ति के कारणों की विवेचन कीजिए। 

अथवा" अन्तरराष्ट्रीय राजनीति पर शीत-युद्ध का क्या प्रभाव पड़ा।

अथवा" शीत-युद्ध की समाप्ति के क्या कारण थे?

उत्तर--

शीत युद्ध के प्रभाव अथवा परिणाम (sheet yudh ke prabhav)

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर 1945 से 1970 तक चले शीत युद्ध के निम्नलिखित प्रभाव पड़े-- 

1. शस्त्रीकरण की प्रतिस्पर्द्धा 

शीत युद्ध का पहला परिणाम यह हुआ कि संसार के अधिकांश देशों के बीच शस्त्रीकरण की प्रतिस्पर्द्धा शुरू हो गई। संसार में सैनिक संधियों की बाढ़ सी आ गई। शीत-युद्ध के परिणामस्वरूप नाटो, सीटो, सेन्टो, वार्सा संधि आदि का जन्म हुआ। अधिकांश राज्य घातक शस्त्रों के निर्माण में एवं उन्हें खरीदने व बेचने की प्रक्रिया में जुट गये। प्रतिदिन करोड़ो रूपये केवल शस्त्र बनाने में खर्च होने लगा। यहाँ तक कि 'स्टारवार' के द्वारा अन्तरिक्ष को भी शस्त्र क्षेत्र में बदलने की तैयारी की गई। 

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2. विश्व का दो गुटों में विभाजन 

शीत युद्ध के परिणामस्वरूप संपूर्ण विश्व दो गुटों में बँट गया। पहला, पूँजीवादी राष्ट्रों का गुट, जिसका नेतृत्व अमेरिका कर रहा था और दूसरा गुट साम्यवादी राष्ट्रों का गुट था जिसका नेतृत्व सोवियत संघ कर रहा था। इन दोनों महाशक्तियों ने अपनी विचारधारा एवं नीतियों को संपूर्ण विश्व पर थोपने का प्रयास किया और इस हेतु उन्होंने अनेकानेक उपायों का सहारा लिया। शीत-युद्ध की राजनीति ने दोनों महाशक्तियों को एक दूसरे का शुत्र तो बनाया ही साथ ही अनेक राष्ट्र भी परस्पर शत्रु बन गये और उनमें भीषण युद्ध हुए। 

3. गुटनिरपेक्ष आंदोलन का उदय 

अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर शीत-युद्ध का एक परिणाम यह हुआ कि इससे छोटे और कम शक्तिशाली देशों ने संगठित होकर गुटनिरपेक्ष आन्दोलन को जन्म दिया। धीरे-धीरे यह आंदोलन सशक्त होता गया और इसकी सदस्य संख्या बढ़ती गई यद्यपि शीत युद्ध का प्रभाव गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की निष्पक्षता पर भी पड़ा। परन्तु इंदिरा गाँधी के शब्दों में," गुटनिरपेक्ष देशों की निजी नीति चाहे कुछ भी हो परन्तु एक आंदोलन के रूप में वह पूरी तरह निष्पक्ष हैं।" 

4. स्नायु युद्ध 

शीत-युद्ध के कारण रूस व अमेरिका में भीषण तनाव का वातावरण हो गया। इसे 'स्नायु युद्ध' कहा जा सकता हैं। अविश्वास, आशंका तथा भय के वातावरण ने जन्म लिया। सोवियत संघ व अमेरिका से आरंभ हुई भय की मनोवृत्ति संपूर्ण संसार में फैल गई। संसार के अधिकांश राज्य तनाव ग्रस्त और आतांकित रहने लगे। 

5. परमाणु युद्ध का भय 

द्वितीय विश्वयुद्ध के समय अमेरिका ने जापान पर परमाणु अस्त्रों का प्रयोग किया था, शीघ्र ही सोवियत संघ ने भी परमाणु अस्त्रों का विकास कर लिया। यद्यपि सोवियत संघ द्वारा परमाणु अस्त्रों के विकास से दोनों महाशक्तियों के मध्य एक सन्तुलन स्थापित हुआ, किन्तु इसने दोनों के मध्य सैन्य प्रतिस्‍पर्द्धा को अत्यधिक बढ़ा दिया। सैन्य प्रतिस्पर्द्धा के परिणामस्वरूप संपूर्ण विश्व में परमाणु युद्ध का भयाक्रांत वातावरण छा गया। इसकी चरम परिणति 'क्यूबा संकट' के समय देखने को मिली, हालांकि इस संकट के बाद दोनों महाशक्तियों ने निःशस्त्रीकरण की आवश्यकता को अनुभव किया। 

6. संयुक्त राष्ट्र संघ प्रभावहीन 

शीत-युद्ध संयुक्त राष्ट्र संघ में भी पहुँचा। संयुक्त राष्ट्र संघ में समस्याओं पर निष्क्षपता से विचार होने के स्थान पर गुटों के आधार पर विचार-विमर्श एवं मतदान होने लगा। सुरक्षा परिषद् में महाशक्तियाँ अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए बार-बार वीटों का प्रयोग करने लगीं। संयुक्त राष्ट्र संघ पूरी तरह प्रभावहीन हो गया। वह सिर्फ एक वाद-विवाद करने वाली संस्था भर रह गयी। 

7. कल्याणकारी कार्यों की उपेक्षा 

शीत-युद्ध के दौरान महाशक्तियों ने अपनी शक्ति संचय के लिए अपने अधिकांश संसाधनों का उपयोग सैन्य योजनाओं में किया। इस कारण विभिन्न राष्ट्रों की जनता के हित एवं कल्याण की योजनाओं को बहुत अधिक धक्का पहुँचा, जबकि छोटे राष्ट्रों को अपने संसाधनों का प्रयोग सुरक्षा संबंधी योजनाओं में करना पड़ा, इससे भी इन राष्ट्रों के कल्याणकारी कार्यों की उपेक्षा हुई।

शीत युद्ध के अंत/समाप्ति के कारण (sheet yudh ki samapti karan)

शीत युद्ध की समाप्ति के निम्‍नलिखित कारण थे--

1. शीत-युद्ध की समाप्ति का मुख्य कारण उसकी उत्पत्ति के कारणों में ही छिपा था 

ऐसा कहा जाता हैं कि कारण में ही निवारण छुपा होता हैं। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के हम सभी अध्येता जानता हैं कि शीत-युद्ध द्वितीय विश्वयुद्ध के दो सहयोगियों के बीच लड़ा जा रहा था या उत्पन्न हुआ था। इस शीत-युद्ध के दोनों योद्धा नेतृत्वकर्ता संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ रूस द्वितीय विश्वयुद्ध में धुरी राष्ट्रों जर्मनी, इटली, जापान के विरूद्ध कंधे से कंधा मिलाकर लड़े थे। ये कोई परम्परागत शत्रु नहीं थे। दोनों के मतभेदों के सीमित आधार व स्थार्थ थे। दोनों ही यूरोप पर आधिपत्य के लिये तथा पश्चिमी एशिया में अपना वर्चस्व कायम करने के इच्छुक थे, इसलिए इनमें मतभेद उत्पन्न हुये थे। जैसे ही यूरोप की परिस्थियाँ तथा पश्चिमी एशिया की परिस्थितियाँ बदलीं और यूरोप का एकीकरण शुरू हुआ तथा पश्चिमी एशिया मे सोवियत रूस तथा संयुक्त राज्य अमेरिका दोनों को ही पूरी सफलता नही मिली, वैसे ही इनके शीत-युद्ध का मूल कारण समाप्त हो गया। उल्लेखनीय हैं, उपरोक्त दोनों क्षेत्रों में इनके राष्ट्रों की स्वचेतना के विकास के कारण दोनों ही अपने इरादों में पूर्ण सफल नहीं हुये। 

2. अमेरिकी और सोवियत दोनों के नव-साम्राज्यवादी इरादों की असफलताएं एवं चुनौतियाँ 

दुर्भाग्य या सौभाग्य से संयुक्त राज्य अमेरिका व सोवियत संघ रूस दोनों ही नव-साम्राज्यवादी थे। ये यूरोप व पश्चिमी एशिया और तीसरी दुनिया में अपना-अपना नव-साम्राज्यवादी विस्तार करना चाहते थे, परन्तु द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इन्हें इसमें सीमित सफलता ही मिली। पश्चिमी एशिया के अरब और मुस्लिम राष्ट्र, संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए चुनौती देने लगे। हंगरी और चेकोस्लोवाकिया से रूस को चुनौती मिली इससे दोनों को अपनी-अपनी नीति की निस्सारता स्पष्ट होने लगी। 

3. गुटनिरपेक्ष आंदोलन 

जब तथाकथित शीत-युद्ध शुरू हुआ तब इसके योद्धाओं को गुटनिरपेक्ष आंदोलन की उम्मीद नहीं थी। दोनों ही प्रतिद्वंद्वी यह समझते थे कि नव स्वतंत्र देश उनमें से किसी एक के साथ होंगे परन्तु भारत, मिस्र और यूगोस्लाविया ने दुनिया के सामने एक नया रास्ता प्रस्तुत किया। वह था कि तीसरी दुनिया के सैकड़ों देश न तो संयुक्त राज्य अमेरिका के गुट में शामिल हुये, न सोवियत संघ के गुट में। इसने गुटबंदी और शीत-युद्ध की सार्थकता पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया था। संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ दोनों ही इस तथ्य को समझने लगे थे, कि उनकी शीत युद्धीय नीति उचित नहीं हैं। धीरे-धीरे गुटनिरपेक्ष आंदोलन की बढ़ती लोकप्रियता ने, और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति तथा संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच पर उसकी भूमिका ने दोनों ही शीत-युद्धीय गुटों को निराश किया। इससे दोनों गुटों में कभी-कभी आपस में फूट भी देखने को मिली। 

4. संयुक्त राष्ट्र संघ की सफलताये

इससे पूर्ववर्ती राष्ट्र-संघ 20 वर्ष में असफल हो गया था और दुनिया को दूसरे महायुद्ध की विभीषिका झेलनी पड़ी थी। संयुक्त राष्ट्र संघ की सफलताओं ने शीत-युद्ध को समाप्त करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। यद्यपि संयुक्त राष्ट्र संघ को राजनीतिक सफलतायें तो कम मिली परन्तु इस संस्था की आर्थिक एवं सामाजिक सफलताओं ने शीत-युद्ध के तमाम कारणों को समाप्त किया। युद्ध जिस प्रकार मनुष्य के मन में उत्पन्न होता है। संयुक्त राष्ट्रसंघ ने इसी तथ्य को ध्यान में रखकर कार्य किया। इससे युद्ध की संभावनायें क्षीण हुई। जब युद्ध की संभावनायें क्षीण हुई और शीत-युद्ध के वास्तविक संघर्ष में बदलने की संभावनायें कम होने लगी, तो बेकार का तनावयुक्त शीत-युद्ध बनाये रखना कहाँ तक संभव और उपयोगी होता? अतः दोनों शीत-युद्ध के योद्धाओं को संयुक्त राष्ट्र ने चिन्तन पर विवश किया। संयुक्त राष्ट्र-संघ में महाशक्तियों के विरूद्ध तीसरी दुनिया की एकजुटता ने भी शीत-युद्ध समाप्त करने में योगदान दिया। 

5. सोवियत संघ की आर्थिक विफलतायें 

सोवियत संघ ने मार्क्सवाद के सिद्धांत के आधार पर पूँजीवादी विरोधी साम्यवादी अर्थव्यवस्था अपनाई थी। इसमें तमाम उद्योगों का राष्ट्रीयकरण कर सभी सरकारी उद्यम शुरू किये गये। देश का विकास करने लिये पंचवर्षीय योजनायें बनाई गई, परन्तु आर्थिक क्षेत्र में यह नया प्रयोग विफल हुआ। इससे सोवियत व्यवस्था जर्जर हो गई। निजी उद्योग धन्धे-नष्ट हो चुके थे। सरकारी उद्योगों में निन्तर क्षति हो रही थी। उद्योग में सरकारी नौकरतंत्र हावी था और अव्यवस्थाओं और कार्यकुशल न होने से सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे जर्जर होकर रूस का आर्थिक दृष्टि से धीरे-धीरे पतन हो गया। सोवियत संघ को कृषि उत्पादन में असफलता मिली उसकी लम्बी छलांगे फ्लाॅप साबित हुई। सोवियत संघ को विकास के लिए पश्चिम औद्योगिकी की आवश्यकता थी जो नहीं मिल पा रही थी। 

6. संयुक्त राज्य अमेरिका की वियतनाम इत्यादि में असफलतायें एवं जनमत

संयुक्त राज्य अमेरिका को शीत-युद्ध में कई मामलों में विफलतायें हाथ लगीं। वियतनाम, ईरान, इराक इत्यादि में उसे विफलताएं ही मिलीं। शीत-युद्ध के कारण उसको एक बहुत बड़े विश्व बाजार में भी क्षति उठानी पड़ रही थी, क्योंकि शीत-युद्ध के कारण तीसरी दुनिया के देश उसके साथ व्यापारिक संबंध बनाये रखने में सतर्कता बरतते थे। संयुक्त राज्य अमेरिका हथियारों का एक बहुत बड़ा सौदागर तो हैं ही, उसका हित अपने हथियार बेचने में हैं, स्वयं लड़ाई लड़कर युद्ध लड़ने में नहीं हैं। अमेरिका का जनमत भी शीत-युद्ध के विरूद्ध होता जा रहा था। शीत-युद्ध के कारण संयुक्त राज्य अमेरिका बदनाम भी बहुत हो रहा था। रूस इतना बदनाम नहीं था। उसकी छवि शोषक की नहीं थी। विश्व-जनमत भी शीत-युद्ध का विरोधी बन गया था। 

7. निःशस्त्रीकरण की विफलता 

शीत-युद्ध के कारण निःशस्त्रीकरण के प्रयास विफल हो रहे थे। इसके कारण हथियारों पर अपार खर्चा हो रहा था। इनकी विफलता का ठीकरा शीत-युद्ध के मत्थे मढ़ा जा रहा था, क्योंकि ऐसा माना जा रहा था कि शीत-युद्ध ने शस्त्रों की होड़ को बढ़ाया है। शीत-युद्ध के कारण रूस और अमेरिका तथा उसके सहयोगी देशों का सैनिक खर्च भी बहुत बढ़ गया था। अन्य क्षेत्रों में विकास तथा आर्थिक स्थिति पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ रहा था। शीत-युद्ध की समाप्ति का सबसे बड़ा कारण परमाणु बराबरी जनित आतंक का सन्तुलन था, क्योंकि 1962 में क्यूबा संकट के बाद अमेरिका और रूस परमाणु क्षेत्र में लगभग बराबरी के हो गये थे, इसलिए दोनों को ही परस्पर एक-दूसरे से खतरा था।

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