राज्य की उत्पत्ति के सिद्धांत
rajya ki utpatti ke siddhant;राज्य की उत्पत्ति राजनीति शास्त्र की एक अनसुलझी गुत्थी है। इस विषय में लेखकों के अलग अलग विचार है कुछ लेखक इसे मनुष्य में निहित राजनैतिक चेतना का परिणाम मानते है।
गार्नर के अनुसार," वे परिस्थितियों जिनमें आदि मानव में प्रथमतः राजनैतिक चेतना का अनुभव किया और उससे प्रेरित होकर राजनैतिक संगठन के अधीन होते हुए राज्य की उत्पत्ति की ओर आगे बढ़े इतिहास के काल खण्डों में हुई घटनाओं और परिस्थितियों के अनुसार राज्य की उत्पत्ति के अनेक सिद्धान्त प्रतिपादित हुए।
राज्य की उत्पत्ति के सिद्धांत निम्नलिखित है--
राज्य की उत्पत्ति का दैवीय सिद्धान्त
राज्य की उत्पत्ति का यह सबसे प्राचीन और एक काल्पनिक सिद्धान्त है। यह इस मान्यता पर आधारित है कि राजा ईश्वर की रचना है। राजा पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि है। राजा के माध्यम से ईश्वर पृथ्वी पर शासन करता है राजा अपनी शक्ति ईश्वर से प्राप्त करता है और केवल ईश्वर के प्रति उत्तरदायी होता है। राजा अपने कार्यों के लिये किसी मानव, किसी मानवीय संस्था या लोगों के प्रति उत्तरदायी नहीं है। इस सिद्धान्त के समर्थकों में यहूदी सर्वप्रथम थे। ग्रीस और रोम ने भी इस सिद्धान्त को मान्यता दी। भारतीय परम्परा के अन्तर्गत महाभारत के शान्तिपर्व में दैवी सिद्धान्त का संकेत मिलता है। मनुस्मृति में कहा गया है कि इस लोक में अराजकता फैल जाने के कारण जब लोग इधर उधर भाग रहे थे तब प्रभु ने राजा का सृजन किया। बाइबिल ईश्वर को समस्त शक्तियों का स्त्रोत और राजा को उसका प्रतिनिधि मानता है। भारत में राजा को सूर्य पुत्र और नेपाल में विष्णु का अवतार कहा है। राबर्ट फिल्मर ने अपनी पुस्तक पैट्रियाकी मे आदम को मे पृथ्वी पर पहला राजा माना है।
इंग्लैण्ड के राजा जैम्स प्रथम ने अपनी पुस्तक "टूल्स ऑफ फ्री मोनार्कीज" में लिखा है कि राजा पृथ्वी पर ईश्वर की श्वास लेती प्रतिमाएँ है। राजा कभी दुराचारी नहीं होत। एक दुष्ट राजा के आचरण की जाँच ईश्वर के द्वारा की जा सकती है। इसी प्रकार फ्रांस के राजा लुई 14 वें ने इस सिद्धान्त का समर्थन किया और कहा कि राजा ईश्वर का प्रतिबिम्ब है।
दैवी सिद्धान्त का प्रयोग
1. राजाओं ने अपनी शक्ति मजबूत करने और लोगों की अन्ध भक्ति प्राप्त करने के लिये इसका प्रयोग किया।
2. लोकतन्त्र के विरोध के लिये इसका प्रयोग किया गया।
3. राजा और पोप के संघर्ष में राजा को श्रेष्ठ बनाने के लिये इसका प्रयोग किया गया।
दैवयी सिद्धान्त के पतन के कारण
1 . सामाजिक समझौता सिद्धान्त का उदय जिसने यह प्रतिपादित किया कि राज्य दैवी संस्था न होकर एक मानवीय संस्था है।
2. राजा और चर्च में चले संघर्ष ने भी इसके पतन में भूमिका निभाई।
3. प्रजातान्त्रिक विचारधारा के उदय के कारण भी इस सिद्धान्त ने अपना महत्व खो दिया।
दैवीय सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताएं
दैवीय सिद्धान्त की निम्नलिखित विशेषताएं हैं--
1. दैवीय सिद्धान्त के अनुसार राज्य ईश्वर निर्मित संस्था है।
2. राजा ईश्वर का प्रतिनिधि है।
3. राजा अपने अधिकार सीधे ईश्वर से प्राप्त करता है, यह दैवीय गुणों से युक्त है।
4. राजसत्ता निरंकुश है, कोई भी मानवीय इकाई इसे चुनौती नहीं दे सकती। जिस प्रकार ईश्वर जो भी करता है ठीक करता है, वैसे ही राजा भी कभी कुछ गलत नहीं करता।
5. राज्य शासन और राजा तीनों एक रूप है।
6. राजपद वंशानुगत है प्रजा इस अधिकार को छीन नहीं सकती है।
7. राजा की आज्ञाओं का पालन करना, प्रजा के लिये अनिवार्य है।
दैवीय सिद्धांत आलोचना
राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धान्त की निम्नलिखित आधार पर आलोचना की जाती हैं--
1. अनैतिहासिक
इतिहास में इस बात का कोई प्रमाण नहीं कि राजा ईश्वर का प्रतिनिधि है। यह सिद्धान्त राजनैतिक चेतना, आर्थिक आवश्यकता रक्त सम्बन्ध आदि की भी उपेक्षा करता है।
2. निरंकुशता का पोषक
यह सिद्धान्त राजा को निरंकुश और अत्याचारी बनाता है क्योकि जनता राजा को हटाने में असमर्थ होती है। 3. प्रतिक्रियावादी
यह सिद्धान्त लोगों में अन्ध-भक्ति पैदा करता है जो विवेक सिद्धान्त के विरुद्व हैं।
4. प्रजातन्त्र विरोधी
यह सिद्धान्त जनता को किसी प्रकार के कोई अधिकार नहीं देता और उनकी सुरक्षा की व्यवस्था नही करता।
5. यह सिद्धान्त केवल राजतन्त्र पर लागू होता है जनतन्त्र पर लागू नहीं होता।
राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत का महत्व
इस सिद्धान्त का अपना एक विशेष महत्व रहा है। सभ्यता के प्रारम्भिक काल में जब राज्य की प्रमुख समस्या सुरक्षा और व्यवस्था थी, उस समय इस सिद्धान्त ने समाज को अराजकता से बचाकर लोगों को राजा के नेतृत्व में संगठित किया। जिस समय नैतिक, सामाजिक और आर्थिक आदर्शों का अभाव था, उस समय धर्म ने सुरक्षित और व्यवस्थित जीवन दिया।
राज्य की उत्पत्ति का पितृसत्तात्मक एवं मातृसत्तात्मक सिद्धान्त
अनेक विद्वानों की राय में राज्य की उत्पत्ति परिवार से हुई है। पारिवारिक परिवेश में आज्ञा पालन सत्ता आदि का रूप देखा जा सकता है।
अरस्तु के अनुसार राज्य परिवार और ग्रामों का समुदाय है जिसका लक्ष्य पूर्ण और आत्मनिर्भर जीवन है। अरस्तु के अनुसार जब अनेक परिवार संयुक्त हो जाते है तो ग्राम का निर्माण होता है अर्थात् ग्राम से ही राज्य की उत्पत्ति होती है। इस सिद्धान्त के दो पक्ष है--
1. पितृसत्तात्मक सिद्धान्त (Patriarchal Therory)
2. मातृसत्तात्मक सिद्धान्त (Matriarchal Theory)
पितृसत्तात्मक सिद्धान्त
इस सिद्धान्त का उल्लेख हमें यूनान, रोम और यहूदियों के प्राचीन इतिहास में देखने को मिलता है। इस सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक हेनरी मेन है। यहुदियों की धार्मिक पुस्तक ओण्डटेस्टामैण्ट, बाइबिल, रोम और भारत में भी यह सिद्धान्त देखने को मिलता है। हेनरी मेन के अनुसार प्राचीन समय में समाज परिवारों का समुह था और उस परिवार का सबसे वृद्ध व्यक्ति परिवार का पैट्रिआर्क (मुखिया) होता था। पहला परिवार पुरुष, उसकी स्त्री और बच्चे थे। धीरे-धीरे परिवारों की संख्या में वृद्धि होती गयी। परन्तु परिवारों पर मूल परिवार के मुखिया का अधिकार बना रहा। इसके उत्तराधिकारी का भी इन परिवारों पर नियन्त्रण बना रहा। धीरेधीरे पितृ प्रधान परिवार का विकास हुआ परिवार से गोत्र और गोत्र से कबीलों का निर्माण हुआ और कबीलों से राज्य की उत्पत्ति हुई। कबीले का सबसे वृद्ध व्यक्ति मुखिया का चुनाव करता था। लीकॉक ने परिवार से राज्य के विकास को इस प्रकार व्यक्त किया है पहले एक गृहस्थी, उसके बाद एक पितृ प्रधान परिवार उसके पश्चात एक वंश के लोगों का कबीला और अन्त में एक राष्ट्र हैं ।
पितृसत्तात्मक सिद्धान्त के मुख्य लक्षण
पितृसत्तात्मक सिद्धान्त के मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं--
1. परिवार का पैट्रियार्क (मुखिया) पुरुष था।
2. परिवार की वंश परम्परा पिता से चलती थी।
3. परिवार में विवाह प्रथा स्थाई थी कही बहुपत्नी, कही पर एकल पत्नी प्रथा थी।
4. रक्त सम्बन्ध परिवार के सदस्यों की एकता का मुख्य सूत्र था।
5. परिवार मे मुखिया की शक्तियाँ निरपेक्ष थी।
6. राज्य के विकास आधार पितृ प्रधान व्यवस्था थी।
पितृसत्तात्मक सिद्धान्त की आलोचना
1. पितृ प्रधान सिद्धान्त सब जगह विद्यमान नही
यह व्यवस्था पूरे विश्व में नहीं थी। एशिया और आस्ट्रेलिया में तो मातृ प्रधान व्यवस्था के उदाहरण मिलते हैं।
2. प्रारम्भिक सामाजिक इकाई कबीला था
मार्गन, मैक्सवैल आदि के अनुसार प्रारम्भिक सामाजिक इकाई कबीला थी। कबीला टूटने पर गौत्र और गौत्र से परिवार का निर्माण हुआ। इनके अनुसार वंश स्त्री से चलता था, पुरुष से नही।
3. अत्यन्त सरल
यह एक सरल सिद्धान्त है जबकि राज्य की उत्पत्ति जटिल विकास का परिणाम है जिसमें अनेक छोटे और बड़े तत्वों का योगदान है।
4. यह सिद्धान्त राजनैतिक कम और समाज शास्त्रीय अधिक लगता है।
महत्व
इन सभी आलोचनाओं के बाद भी यह कहना निरर्थक है कि इसमें सत्य का कोई अंश नहीं है। राज्य की उत्पत्ति का विकास वादी सिद्धान्त भी इस बात को स्वीकार करता है कि राज्य के विकास में रक्त सम्बन्ध का अत्यधिक महत्व रहा है। समाज में परिवार संगठन, एकता की प्रमुख इकाई थी।
मातृसत्तात्मक सिद्धान्त
इस सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक मेक्लेनन, मॉर्गन और जंक्स है। इन व्याख्याकारों ने अपनी पुस्तकों में इस सिद्धान्त की व्याख्या की है। मातृ प्रधान सिद्धान्त के समर्थकों का मानना है कि प्राचीन समाज में स्थाई विवाह की संस्थाए नहीं थी। समाज में बहुपतित्व की व्यवस्था थी। इस व्यवस्था में नारी के अनेक पति होते थे उनकी होने वाली सन्तानों को पिता नहीं माता के कुल के नाम से जाना जाता था। सम्पत्ति और सत्ता की अधिकारिणी माता होती थी। इस व्यवस्था के विकास ने आगे जाकर राज्य को जन्म दिया।
आलोचना
1. अत्यन्त सरलीकरण
2. मातृ प्रधान और पितृ प्रधान दोनों के उदाहरण मिलते है।
3. राजनैतिक नहीं सामाजिक सिद्धान्त।
4. अन्य तत्वों की उपेक्षा
महत्व
इस सिद्धान्त का महत्व भी पितृ सत्ता सिद्धान्त के समान है। रक्त सम्बन्ध राज्य के विकास का महत्वपूर्ण बिन्दु है जिसका यह सिद्धान्त निरुपण करता है।
राज्य की उत्पत्ति का शक्ति सिद्धान्त
इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य की उत्पत्ति का एकमात्र कारण शक्ति है। राज्य का उदय शक्तिशाली व्यक्तियों के द्वारा निर्बल व्यक्तियों को अपने अधीन करने की प्रकृति के कारण हुआ दूसरे शब्दों में युद्ध राज्य की उत्पत्ति का प्रमुख कारण था युद्ध में विजेता शासक और पराजित प्रजा बन गए। वाल्टेयर के अनुसार प्रथम राजा एक भाग्यशाली योद्धा था। जैक्स के अनुसार ऐतिहासिक दृष्टि से यह सिद्ध करना तनिक भी कठिन नहीं है कि आधुनिक राजनैतिक समाजों का अस्तित्व सफल युद्धों में निहित है। ब्लंशली भी इस मत का समर्थन करता है वह कहता है कि शक्ति के बिना न कोई राज्य जीवित रहता है और न जीवित रह सकता है। इस प्रकार युद्ध शक्ति को पैदा करता है और शक्ति राज्य को जन्म देती है तथा शक्ति ही इसे कायम रखती है। बिस्मार्क के अनुसार राज्य का आधार रक्त और लोहा होना चाहिये। ट्रिस्के के अनुसार राज्य में आक्रमण करने और रक्षा करने की जन शक्ति है।
इस सन्दर्भ में शक्ति सिद्धान्त की निम्नलिखित विशेषताएँ सामने आती है--
1. शक्ति राज्य की उत्पत्ति का एक मात्र आधार है।
2. शक्ति का आशय भौतिक और सैनिक शक्ति से है।
3. प्रभुत्व की लालसा और आक्रामकता, मानव स्वभाव का अनिवार्य घटक है।
4. प्रकृति का नियम है कि शक्ति ही न्याय है।
5. प्रत्येक राज्य में अल्पसंख्यक शक्तिशाली शासन करते है और बहुसंख्यक शक्तिहीन अनुकरण करते है। वर्तमान में राज्यों का अस्तित्व शक्ति पर ही केन्द्रित है।
शक्ति सिद्धान्त का प्रयोग
1. मध्ययुग में धर्मगुरुओं ने राज्य को दूषित और चर्च को श्रेष्ठ संस्था बताने में किया।
2. व्यक्तिवादियों ने व्यक्तिगत स्वतन्त्रता में सरकार के हस्तक्षेप को रोकने के लिये इसका उपयोग किया।
3. अराजकतावादी समाजवादी विचारकों ने भी व्यक्ति की स्वतन्त्रता हेतु इस सिद्धान्त का प्रयोग किया।
4. फासीवादी और नाजीवादियों ने भी इस सिद्धान्त का समर्थन और प्रयोग किया।
शक्ति सिद्धांत की आलोचना
राज्य के शक्ति सिद्धांत की निम्नलिखित आधार पर आलोचना की जाती हैं--
1. शक्ति राज्य की उत्पत्ति का एक मात्र तत्व नहीं है। यद्यपि इसने राज्य की उत्पत्ति में प्रमुख भूमिका का निर्वाह किया परन्तु इसकी उत्पत्ति के अन्य कारण चेतना, धर्म, रक्त सम्बन्ध आदि भी रहे।
2. टी. एच. ग्रीन के अनुसार राज्य की उत्पत्ति का आधार इच्छा है न कि शक्ति लोगों की इच्छा के बिना न तो राज्य संगठित हो सकता है और न कायम रह सकता है। लोग राज्य के आदेशों का पालन शक्ति के भय से नहीं, अपने विवेक और बुद्धि से करते हैं।
3. शक्ति सिद्धान्त जिसकी लाठी उसकी भैंस जैसे सिद्धान्तों को जन्म देता है जिसका अर्थ है कि सिर्फ बलशाली को जीवित रहने का अधिकार है।
4. यह सिद्धान्त राज्य को निरकुंश बनाता है, जिसके लोगों की स्वतन्त्रता का लोप और जनतन्त्र का विनाश होता है।
5. यह सिद्धान्त अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और विश्व बन्धुत्व का विरोधी है, शक्ति पर ही जोर देने के कारण यह एक साम्राज्यवादी सिद्धान्त है।
6. यह सिद्धान्त केवल भौतिक शक्ति पर जोर देता है। आधुनिक युग में आध्यात्मिक, तकनीकी और वैधानिक शक्ति को में भी महत्व दिया जाता है। शक्ति सिद्धान्त की आलोचना
इन आलोचनाओं के अनुसार राज्य की उत्पत्ति में शक्ति सिद्धान्त मान्य नहीं है परन्तु राज्य के जन्म और विकास में शक्ति की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। प्राचीन समय में अराजक समाज को संगठित करने में तथा अनुशासन और आज्ञापालन का भाव शक्ति के कारण ही आया। आधुनिक समय में भी जब राज्य शक्तिशाली नहीं होते है तो अराजकता और विघटन का शिकार हो जाते हैं।
महत्त्वपूर्ण बिन्दु
राज्य की उत्पत्ति में कोई सर्वमान्य सिद्धान्त नहीं है। इस विषय में समय समय पर उस समय की परिस्थिति के अनुसार अनेक सिद्धान्त दिये गये पर वो सर्वमान्य नहीं हो पाये। इन सिद्धान्तों में दैवीय सिद्धान्त, शक्ति सिद्धान्त, मातृ सत्तात्मक सिद्धान्त, पितृ सत्तात्मक सिद्धान्त सामाजिक समझौता सिद्धान्त, विकास वादी सिद्धान्त प्रमुख है।
दैवीय सिद्धान्त
दैवीय सिद्धांत के अनुसार राज्य की उत्पत्ति ईश्वर द्वारा की गयी है राजा को ईश्वर द्वारा राज्य को संचालित करने के लिये भेजा गया है। प्रजा का कर्तव्य है कि राजा का विरोध न करे, क्योंकि वह ईश्वर का प्रतिनिधि है।
शक्ति सिद्धान्त
शक्ति सिद्धान्त अनुसार राज्य की उत्पत्ति का मूल आधार शक्ति है। राज्य बलशाली द्वारा दुर्बल लोगों पर प्रभुत्व जमाने का परिणाम है।
पितृसत्तात्मक सिद्धान्त
इसके अनुसार राज्य की उत्पत्ति का कारण कुल है, जिसका मुखिया पिता होता है। कुलों से कबीला और कबीलों से राज्य का विकास हुआ।
मातृसत्तात्मक सिद्धान्त
यह सिद्धान्त राज्य की उत्पत्ति का कारण है तथा स्थाई वैवाहिक सम्बन्धों के अभाव को मानता है। परिवार का मुखिया पिता न होकर माता होती थी सन्तानों को माँ के नाम से जाना जाता था।
संदर्भ; माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान, अमेर
लेखगण
डॉ. मधुमुकुल चतुर्वेदी, विभागाध्यक्ष राजनीति विज्ञान शहीद कैप्टन रिपुदमनसिंह राजकीय महाविद्यालय, सवाईमाधोपुर
डॉ. मनोज बहरवाल, सह आचार्य (राजनीति विज्ञान) सम्राट पृथ्वीराज चौहान राजकीय महाविद्यालय, अजमेर
भवशेखर, सहायक आचार्य (राजनीति विज्ञान) राजकीय मीरा कन्या महाविद्याल ,
उदयपुर प्रवीण कौशिक, प्रधानाचार्य राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय खरवालिया जिला नागौर
सुनील चतुर्वेदी, प्राचार्य मास्टर आदित्येन्द्र राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय भरतपुर
गोपाललाल अग्रवाल, प्रधानाचार्य राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय रेल्वे स्टेशन, दौसा।
Bhart m rastvad ka udaye ka Vikas
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