2/09/2022

राज्य की उत्पत्ति का दैवीय सिद्धांत

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राज्य की उत्पत्ति का दैवीय सिद्धांत 

rajya ki utpatti ka devi siddhant,राज्य की उत्पत्ति के सम्बन्ध में अब तक जितने भी सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है, उनमें दैवीय उत्पत्ति का सिद्धान्त सबसे प्राचीन है। यह सिद्धान्त बताता है कि राज्य मानवीय नहीं वरन् ईश्वर द्वारा स्थापित एक दैवीय संस्था है। ईश्वर राजा के रूप में अपने किसी प्रतिनिधि को नियुक्त करता है। चूँकि राजा ईश्वर का प्रतिनिधि है। अत: वह ईश्वर के प्रति ही उत्तरदायी है। राजा की आज्ञाओं का पालन करना प्रजा का परम पवित्र कर्तव्य है।
इस सिद्धान्त के अनुसार राज्य की सृष्टि प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में ईश्वर ने की हैं। राज्य मानव निर्मित संस्था न होकर दैवी संस्था हैं। राज्य ईश्वर का अभिकर्ता अथवा प्रतिनिधि हैं। मानव जाति के कल्याण के लिए ईश्वर ने राज्य का निर्माण किया है, इसलिए मानव का एकमात्र कर्त्तव्य हैं राज्य के आदेशों का बिना किसी शर्त के पालन करना। 
हिन्दु, यहूदी, ईसाई, मुसलमान तथा विश्व के अन्य सभी धर्मों के लोग इस मत को मानते हैं कि राजनीतिक सत्ता का मूल दैवी वरदान हैं। उदाहरण के लिए 'महाभारत' के शान्ति पर्व मे भीष्म ने कहा हैं," राजनीतिक सत्ता के अभाव में स्थिति को असहनीय पाकर लोग ब्रह्रा जी के पास पहुँचे और प्रार्थना कि," हे भगवान, किसी रक्षक के बिना हम नष्ट हो रहे हैं। हमें संरक्षक दीजिए जिसकी हम सब मिलकर पूजा करेंगे और वह हमारी रक्षा करेगा।" भगवान् ने प्रार्थना स्वीकार की तथा उन पर शासन करने के लिए मनु को नियुक्त किया। तथापि मनु इस नियुक्ति को स्वीकार करने में हिचकिचाए क्योंकि उन्हें उन लोगों पर शासन करना बड़ा कठिन लगा जिनका आचरण सदा छलपूर्ण होता हैं। परन्तु अन्ततः उन्हें आश्वस्त किया गया कि लोग उन्हें वित्तीय, नैतिक एवं आध्यात्मिक समर्थन देंगे।"
यहूदियों का भी ऐसा मत हैं। "ओल्ड टैस्टामेण्ड" में इस आरणा का स्पष्ट उल्लेख हैं कि ईश्वर शासकों को चुनता हैं, नियुक्त करता हैं, पदमुक्त करता है और यहाँ तक कि बुरे शासकों की हत्या करता है। ऐसा माना जाता है कि जानबूझकर अथवा भूल से किए गए अपने सभी कृत्यों के लिए राजा ईश्वर के प्रति उत्तरदायी हैं। 
ईसाइयों की "न्यू टैस्टामेण्ड" में सत्ता का स्त्रोत ईश्वरीय इच्छा में निहित माना गया हैं। बड़े स्पष्ट या प्रबल शब्दों में पाॅल के रोम लोगों ने कहा," प्रत्येक आत्मा उच्च शक्तियों के अधीन हो, क्योंकि ईश्वरीय शक्ति को छोड़कर कोई शक्ति नहीं हैं, जो शक्तियाँ हैं वे ईश्वर के निर्देश से हैं, अतः जो कोई शक्ति का प्रतिरोध करेगा वह दैवी कोप भोगेगा।" 
मध्य युग में यही विचार चलता रहा कि पोप इस धरती पर ईसा मसीह का प्रतिनिधि हैं और इसलिए उसका शब्द ईसा मसीह की शिक्षाओं जैसा सत्य हैं। 
गेटेल के अनुसार," मानव इतिहास में दीर्घ काल तक राज्य को ईश्वरकृत या दैवी समझा जाता था और सरकार का स्वरूप धार्मिक था।" 
दैवी सिद्धान्त के प्रचलन काल में जनता के जीवन में धर्म का अत्यधिक महत्व था और ईश्वर के प्रति भय की भावना विद्यामान थी। इसलिए राज्य का निर्माता भी ईश्वर को मान लिया गया। राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना गया जो अपने कार्यों के प्रति सिर्फ ईश्वर के प्रति उत्तरदायी ठहराया गया। चूँकि राजा ईश्वर का प्रतिनिधि हैं, इसीलिए उसकी आज्ञाओं का पालन करना प्रजा का पुनीत कर्त्तव्य माना गया। उसकी आज्ञाओं का उल्लंघन करने का अर्थ है ईश्वर की आज्ञाओं का उल्लंघन करना अर्थात् पाप करना। 
संक्षेप में, दैवी सिद्धान्त की व्याख्या तीन रूपों में की गई हैं-- 
प्रथम, ईश्वर ने स्वयं इस पृथ्वी पर आकर शासन की स्थापना की। 
द्वितीय, ईश्वर ने अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से जनता पर शासन स्थापित किया। 
तृतीय, ईश्वर ने मनुष्यों में ऐसी प्रवृत्तियाँ उत्पन्न की जिनसे शासन और व्यवस्था की आवश्यकता प्रतीत हुई और उनमें अनुशासन व आज्ञापालन की भावना का जन्म हुआ। 

दैवी सिद्धांत की विशेषताएं 

राज्य की उत्पत्ति के दैवी सिद्धान्त की निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएं हैं-- 
1. राजा ईश्वर का प्रतिनिधि हैं, उसे ईश्वर ने राजा बनाया हैं। 
2. राजा का पद पैतृक हैं। 
3. राजा केवल ईश्वर के ही प्रति उत्तरदायी हैं। यदि वह कोई गलती करता हैं तो इसका मतलब हैं ईश्वर ने उससे वैसा करने के लिये कहा हैं। 
4. ईश्वर ने ही उसे यह राजसत्ता उपहार स्वरूप प्रदान की हैं। वह उसका जन्म से अधिकारी हैं। राजा का दैवीय सिद्धांत राजा को दैवी अधिकार प्रदान करता हैं। निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी शासकों ने इस सिद्धान्त के माध्यम से राजा के दैवी अधिकारों की स्थापना की। 
5. राजा की आज्ञा ईश्वर की आज्ञा हैं, उसका उल्लंघन करना पाप हैं। 

दैवी सिद्धांत का पतन 

सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में इस सिद्धान्त का पतन होने लगा। जैसे-जैसे मनुष्य का बौद्धिक विकास हुआ, इस सिद्धान्त के समर्थन में कम प्रमाण दिखाई देने लगे। गिलक्राइस्ट के अनुसार इस सिद्धान्त के ह्रास या पतन के तीन प्रमुख कारण थे-- 
प्रथम, सामाजिक समझौता सिद्धान्त द्वारा इस धारणा का प्रतिपादन करना कि राज्य की उत्पत्ति ईश्वर के द्वारा न होकर लोगों के आपसी समझौते के परिणामस्वरूप हुई। 
द्वितीय, चर्च की शक्ति का ह्रास होना अर्थात् चर्च का राज्य से पृथक किया जाना और जीवन में लौकिक प्रश्नों के महत्व का सर्वोपरि माना जाना। 
तृतीय, इस सिद्धान्त को सबसे करारी चोट लोकतंत्र की भावना के विकास से मिली। लोकतंत्रवाद ने राजा के स्वेच्छाचारी एवं निरंकुश शासन का विरोध और खण्डन किया।

दैवी सिद्धान्त की आलोचना 

इस सिद्धान्त ने लोगों के ह्रदयों में राजा के प्रति असीम सम्मान और आदर भाव भर दिया था जिसके परिणामस्वरूप राजाओं ने मध्य युग में जनता पर ईश्वर के नाम का सहारा लेकर घोर अत्याचार किये। वर्तमान वैज्ञानिक युग ने यह प्रमाणित कर दिया कि राजा की वास्तविक शक्ति राजा के राज्य हाथ में नहीं हैं, वह तो जनता के हाथों में निहित हैं। राजा अपने सम्मान का उपभोग जनता के समर्थन पर ही कर सकता हैं। इस भावना के कारण प्रजातंत्र राज्यों का निर्माण हुआ और यह प्रमाणित हो गया कि राज्य ईश्वरकृत नहीं बल्कि मानवकृत हैं। 
दैवीय सिद्धान्त की निम्न आधारों पर आलोचना की जाती हैं-- 
1. आलोचकों की राज्य के दैवी सिद्धान्तों के संबंध में यह धारणा रही है कि जब राजा निरंकुशता को स्वीकार कर लेते हैं तब वे राज्य की सभी शक्तियों का उपयोग अनैतिक कार्यों की पूर्ति में करने लगते हैं। 
2. दैवीय उत्पत्ति सिद्धान्त प्रजातंत्र विरोधी है। प्रजातांत्रिक प्रणाली मे शासन का चुनाव जनता द्वारा किया जाता हैं, जो गलत कार्यों के करने पर उसे हटा भी सकती हैं। इसमें शासक जनता के प्रति उत्तरदायी होता हैं, किन्तु यह सिद्धान्त प्रजातंत्र की इन मान्यताओं को स्वीकार नहीं करता हैं। 
3. इस सिद्धान्त के विषय में आलोचकों का विचार रहा है कि यह पूर्ण रूप से अनैतिहासिक हैं, क्योंकि इसका इतिहास के अंदर कोई विवरण नहीं प्राप्त होता। इतिहास में इस बात का कहीं भी कोई प्रमाण नहीं प्राप्त होता कि राज्य की स्थापना ईश्वर द्वारा की गई हैं। 
5. दैवी सिद्धान्त की मान्यता रूढ़िवाद पर आधारित हैं। यह अहितकर इसलिए भी है कि यह राजा की स्वेच्छाचारिता तथा निरंकुशता का समर्थन करता हैं। 
6. आज के वैज्ञानिक युग मे यह रूढ़िवादी सिद्धान्त सर्वथा अमान्य हैं। आधुनिक युग में कोई सिद्धान्त तब तक स्वीकार नहीं किया जा सकता, जब तक कि वह तर्क और तथ्यों की कसौटी पर सत्त सिद्ध नहीं हो जाता। यह सिद्धान्त भी मनुष्य की जिज्ञासाओं का संतोषजनक उत्तर नही देता हैं, अतः इसे भी स्वीकार नही किया जा सकता। गिलक्राइस्ट के शब्दों में," यह विचार कि ईश्वर इस या उस व्यक्ति को राजा बनाता हैं, अनुभव एवं साधारण ज्ञान के एकदम विपरीत हैं।" 
7. यह सिद्धान्त राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि बनाकर उसकी स्वेच्छाचारिता तथा निरंकुशता का समर्थन करता हैं। इससे राजाओं को मनमाने ढंग से शासन करने का अधिकार मिल जाता हैं। यह राजा को अत्यधिक शक्तिशाली बना देता हैं तथा उसे किसी के प्रति उत्तरदायी नहीं रखता। 

दैवी सिद्धान्त का महत्व 

यह सिद्धान्त आज मृतप्राय हो चुका है फिर भी राज्य के संबंध मे इस सिद्धान्त की उपयोगिता हैं। 
सर्वप्रथम, यह सिद्धान्त राज्य के नैतिक आधार पर जोर देता है। राज्य को ईश्वर की कृति मानने का अर्थ राज्य को उच्च स्तर प्रदान करना हैं। राजा का यह नैतिक कर्त्तव्य है कि सुराज्य स्थापित करे अर्थात् इसमें अर्थ निहित हैं कि राज्य का उद्देश्य लोककल्याण हैं। 
द्वितीय, अराजकता और अव्यवस्था को समाप्त कर समाज में शांति व सुव्यवस्था कायम करने में यह सिद्धान्त काफी सहायक सिद्ध हुआ हैं। प्रारंभिक मनुष्य ईश्वर से डरता था, धर्म प्रेमी था, इसलिए शासकों के लिए इस सिद्धान्त के आधार पर जनता पर शासन करने में बड़ी सुविधा हो गई। इससे लोगों में आज्ञाकारिता की भावना का विकास हुआ। 
गेटेल के शब्दों में," इस सिद्धान्त ने उस समय लोगों को आज्ञा का पालन करना सिखाया, जिस समय वे अपने ऊपर शासन करने के लिए तैयार नहीं थे। 
गिलक्राइस्ट ने भी लिखा हैं," यह कितना ही गलत और विवेकशून्य सिद्धान्त क्यों न हो, कम से कम अराजकता के निवारण का श्रेय इसे अवश्य प्राप्त हैं।"
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