12/17/2021

टी. एच. ग्रीन के राजनीतिक विचार

By:   Last Updated: in: ,

प्रश्न; थामस हिल ग्रीन के राजनीतिक विचारों की समीक्षा कीजिए। 

अथवा" ''राज्य का कार्य शुभ जीवन के मार्ग की बाधाओं को बाधा पहुँचनाना हैं।'' टी. एच. ग्रीन। समझाइए। 

अथवा" ग्रीन के राजनीतिक विचारों का वर्णन कीजिए। 

अथवा" टी. एच. ग्रीन के उदारवादी आदर्शवाद का वर्णन कीजिए। 

अथवा" राज्य के स्वरूप तथा कार्यक्षेत्र के विषय में ग्रीन के विचारों की विवेचना कीजिए।

उत्तर--

ग्रीन के राजनीतिक विचार 

green ke rajnitik vichar;पाश्चात्य राजनीतिक चिंतन के इतिहास में ग्रीन का नाम उदार आदर्शवादी के रूप में जाना जाता हैं। उसका आदर्शवाद केवल उस युग की जर्मन आदर्शवादी विचारधाराओं से तो प्रभावित था ही, साथ ही उस पर सबसे अधिक प्रभाव यूनानी आदर्शवाद का था। राज्य के स्वरूप के विषय में ग्रीन के विचार हीगल से मिलते हैं लेकिन राज्य के उद्देश्यों के संबंध में वह प्लेटोवादी तथा अरस्तुवादी हैं। आदर्शवादियों की तरह ग्रीन ने भी राज्य के महत्व को स्वीकार किया हैं, परन्तु उसने हीगल की तरह सर्वाधिकारवादी राज्य की कल्पना नहीं की। उसने उग्रवादियों की तरह राज्य को साध्य तथा व्यक्ति को साधन भी भी नहीं माना, बल्कि ग्रीन ने राज्य को नैतिक जीवन की उपलब्धि का एक साधन माना हैं। इस प्रकार ग्रीन का समग्र राजनीतिक दर्शन उदारवाद और आदर्शवाद का विचित्र मिश्रण हैं। 

राज्य की उत्पत्ति 

ग्रीन से पहले राजनीतिक विचारकों ने राज्य की उत्पत्ति के संबंध में अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन किया था। दैवी उत्पत्ति के सिद्धांतों के समर्थक, राज्य को ईश्‍वर की कृति मानते थे। सामाजिक समझौतावादी समझौते का परिणाम तथा शक्ति सिद्धांत के समर्थक पाशविक शक्ति को राज्य का आधार मानते थे। परन्तु ग्रीन ने इन सिद्धांतों में से किसी भी सिद्धांत का समर्थन नहीं किया। राज्य की उत्पत्ति के संबंध में उसका विचार आदर्शवादी दर्शन के अनुरूप हैं। राज्य की उत्पत्ति को ग्रीन सामान्य इच्छा का परिणाम मानता हैं। जनता राज्य की आज्ञाओं तथा कानूनों का पालन इसलिए करती हैं क्योंकि उन्हें वह अपनी इच्छा की अभिव्यक्ति मानती हैं। राज्य की आज्ञाओं का पालन दण्ड के भय से नहीं किया जाता। इस संबंध में हीगल का यह विचार अत्यधिक प्रसिद्ध हैं कि," शक्ति नहीं, इच्छा ही राज्य का आधार हैं।" 

राज्य की उत्पत्ति के संबंध में ग्रीन के विचार प्लेटो तथा अरस्तु के विचारों के सर्वथा अनुकूल हैं। वह व्यक्ति को सामाजिक तथा राजनीतिक प्राणी मानते हुए राज्य को एक प्राकृतिक संस्था मानता हैं, जिसका निर्माण व्यक्तियों की स्वतंत्र नैतिक इच्छा अथवा चेतना द्वारा हुआ हैं। 

राज्य का स्वरूप 

ग्रीन ने आदर्शवादियों की तरह राज्य को साध्य तथा व्यक्ति को साधन माना हैं परन्तु वह हीगल के सर्वाधिकारवादी राज्य का समर्थक नहीं हैं। उसका राज्य आध्यात्मिकता की आधारशिला पर टिका हुआ हैं। व्यक्ति स्वतंत्रता का इच्छुक होता हैं। स्वतंत्रता का अर्थ वे परिस्थियाँ हैं जिनमें रहकर व्यक्ति अपना सर्वोत्तम विकास कर सके। स्वतंत्रता का अर्थ कुछ अधिकारों की प्राप्ति हैं। इन अधिकारों की रक्षा के लिए राज्य की आवश्यकता होती हैं। ग्रीन के विचारों का सार प्रस्तुत करते हुए बार्कर ने लिखा हैं," मानव चेतना स्वतंत्रता चाहती हैं, स्वतंत्रता में अधिकार निहित हैं तथा अधिकार राज्य की माँग करते हैं।"

राज्य का आधार 

ग्रीन का मत हैं कि," राज्य का आधार शक्ति नहीं, इच्छा राज्य का आधार हैं।" ग्रीन का ऐसा विचार हैं कि व्यक्ति राज्य की आज्ञाओं का पालन दण्ड के भय से नहीं, अपितु अपनी इच्छानुसार करते हैं। उसका सामान्य इच्छा का सिद्धांत रूसो के सामान्य इच्छा के सिद्धांत के अनुरूप हैं। ग्रीन की यह भी मान्यता हैं कि राज्य का एक आवश्यक गुण उसकी सर्वोच्च दमनकारी शक्ति हैं। सामान्य अधिकारों की रक्षा के लिये राज्य द्वारा बल प्रयोग जरूरी हैं लेकिन राज्य द्वारा शक्ति का प्रयोग केवल व्यक्ति की स्वार्थी इच्छाओं का दमन करने के लिये किया जाता हैं। 

ग्रीन के शब्दों में," क्योंकि राज्य के पास सर्वोच्च दमकारी शक्ति हैं। इसलिए लोगों का यह मत हो जाता है कि यह बल पर आश्रित हैं। सच तो यह हैं कि राज्य के राज्य के हाथ में दमनकारी शक्ति इसलिए सर्वोच्च होती हैं क्योंकि वह राज्य द्वारा कुछ निश्चित विधियों के अनुसार लागू की जाती हैं।"  

राज्य के कार्य 

ग्रीन ने राज्य के दो प्रकार के कार्य बताये हैं-- 

1. नकारात्मक दृष्टिकोण 

राज्य के कार्यों के संबंध में ग्रीन का दृष्टिकोण अधिकांशतः नकारात्मक ही हैं। उसकी मान्यता हैं कि राज्य व्यक्तियों को कानूनों द्वारा अथवा बलपूर्वक नैतिक नहीं बना सकता। सामान्य हित की सामान्य चेतना को नैतिकता द्वारा प्रोत्साहित नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा किया गया तो इससे व्यक्ति तथा राज्य का हित होने की अपेक्षा अहित ही होगा। अतः "राज्य को केवल वे कार्य करने चाहिए जो व्यक्ति के उत्तम जीवन के मार्ग में आने वाली बाधाओं के विरूद्ध बाधक सिद्ध हों।" नैतिकता व्यक्ति की अंतरात्मा का विषय हैं,जबकि कानून व्यक्ति के आचरण को प्रभावित करने के बाहरी साधन हैं। अतः बलपूर्वक व्यक्ति में नैतिकता का संचार नहीं किया जा सकता। 

ग्रीन के शब्दों में," व्यक्ति के बाहरी आचार-व्यवहार पर प्रत्यक्ष रूप से किसी प्रकार के दण्ड की धमकी देकर कोई प्रतिबंध लगाना सामान्य हित के विरूद्ध हैं। व्यक्ति के आचारण की सारी क्रियाएँ सामान्य हित की दृष्टि से स्वाभाविक रूप से संचालित होनी चाहिए। सरकारी प्रतिबंध सामान्य हित के स्वाभाविक संचालन में हस्तक्षेप हैं और उस क्षमता के विकास में रूकावट हैं जो अधिकारों के प्रयोग के लिये लाभकारी शर्त हैं। अतः राज्य का प्रत्यक्ष हस्तक्षेप रूकावटों को दूर करने तक सीमित रहना चाहिए।" 

व्यक्ति का कोई भी कार्य तब तक नैतिक नही कहा जा सकता जब तक वह उसे स्वतंत्र बुद्धि तथा विवेक से न करे। भय तथा प्रलोभन के वशीभूत होकर किया गया कार्य नैतिक नहीं हो सकता। इसलिए राज्य व्यक्ति को कोई कार्य करने की प्रेरणा कानून द्वारा देता हैं। तो वह नैतिक नहीं हैं। हाँ, राज्य कानूनों द्वारा व्यक्ति को वह सुविधायें प्रदान कर सकता हैं जिनका उपयोग करके व्यक्ति नैतिक तथा उत्तम जीवन के मार्ग में आने वाली बाधाओं से बच सके। तात्पर्य यह हैं कि राज्य को व्यक्ति को अधिकार प्रदान करना चाहिए तथा उन्हें लागू करने का प्रयास करना चाहिए। 

2. सकारात्मक दृष्टिकोण 

ग्रीन के राज्य संबंधी विचारों से यह निष्कर्ष निकालना उचित नही होगा कि राज्य के कार्य केवल निषेधात्मक ही हैं। वास्तविकता यह है कि राज्य को अनेक सकारात्मक अथवा भावात्मक कार्य भी  करने पड़ते हैं। ग्रीन के अनुसार राज्य का कार्य "अच्छे जीवन के मार्ग में आने वाली बाधाओं के विरूद्ध बाधाएँ उपस्थित करना हैं-- केवल देखने में निषेधात्मक प्रतीत होता हैं।" 

बार्कर के अनुसार ग्रीन का दृष्टिकोण दो कारणों से भावात्मक हैं-- प्रथम, परिस्थितियों का निर्माण करने व बाधाओं को दूर करने के लिए, इनके मार्ग में आने वाली प्रत्येक बात के संबंध में राज्य का सक्रिय हस्तक्षेप जरूरी हैं। राज्य को शक्ति के प्रयोग द्वारा उस शक्ति का प्रतिकार करना चाहिए जो स्वतंत्रता की विरोधी हैं। दूसरे, राज्य का सर्वोपरि लक्ष्य हमेशा भावात्मक होता हैं। यह उद्देश्य सामान्य हित की प्राप्ति के लिए, आत्मनिर्णय करने के लिए, मानव प्रतिभा को स्वतंत्र करना हैं। इससे बढ़कर और कोई भावात्मक लक्ष्य नहीं हो सकता। 

ग्रीन का विचार हैं कि राज्य जिन कार्यों को करता हैं उनके पीछे नैतिक उद्देश्य हैं इसलिए उनका स्वरूप स्पष्टतः विधायात्मक हैं। जैसे-- अशिक्षा, दरिद्रता और मदिरापान उत्तम जीवन के मार्ग में आने वाली बाधाएँ हैं। शिक्षा के बिना व्यक्ति के श्रेष्ठ जीवन की प्राप्ति संभव नहीं। अतः ग्रीन राज्यों में अनिवार्य शिक्षा लागू करने के पक्ष में हैं। ग्रीन का कहना हैं कि "बिना ज्ञान के मनुष्य उसी प्रकार पंगु हैं जिस तरह वह विकलांग हो जाने पर पंगु हो जाता हैं।" ज्ञान के अभाव में कोई भी व्यक्ति अपने अधिकारों का समुचित प्रयोग नहीं कर सकता। 

ग्रीन के शब्दों में," बच्चों की शिक्षा की उपेक्षा उनमें अधिकारों का लाभ उठाने की क्षमता के विकास के मार्ग में बाधक बन जाती हैं। इसलिए क्षमता के विकास की अड़चन को दूर करने के लिए राज्य को अनिवार्य शिक्षा लागू करनी चाहिए और शिक्षा को माता-पिता का नैतिक कर्त्तव्य सभझकर उन पर नहीं छोड़ देना चाहिए। शिक्षा के अभाव में व्यक्ति स्वयं अपना नैतिक उत्थान नहीं कर सकता, साथ ही नागरिक के पास कुछ प्राथमिक कलाओं तथा शिक्षाओं का ज्ञान नहीं होगा तब तक वह राज्य की समुचित सेवा नहीं कर सकता। ऐसी दशा में वह अपने गुणों का भी उचित विकास नहीं कर सकता।" 

इसी तरह मदिरापान करने वाला व्यक्ति न जाने कितने अनैतिक आचरण करता हैं। ग्रीन का विचार हैं कि अज्ञानता के समान ही शराब का नशा भी मनुष्य के श्रेष्ठ जीवन के मार्ग में बाधक हैं। इसलिए ग्रीन का विचार हैं कि," राज्य को चाहिए कि वह नागरिकों से अनुरोध करे कि वे मदिरा के क्रय-विक्रय की साधारण स्वतंत्रता को कम कर दें या बिल्कुल वर्जित कर दें जिससे वे अपनी अन्य शारीरिक तथा मानसिक शक्तियों के प्रयोग में अधिक स्वतंत्र हो सकें और उसमें उन्नति कर सकें।"

इसी तरह राज्य को व्यक्ति की दरिद्रता को दूर करने के लिए आर्थिक क्षेत्र में अनेक योजनाएँ क्रियान्वित करनी चाहिए। ये समस्त कार्य केवल नकारात्मक ही नहीं सकारात्मक भी हैं। 

राज्य का विरोध 

हीगल सर्वाधिकारवारी राज्य का समर्थक था इसलिए उसने किसी भी स्थिति मे राज्य का विरोध करने का अधिकार नागरिकों को प्रदान नहीं किया। इसके विपरीत ग्रीन राज्य को व्यक्ति के नैतिक जीवन की प्राप्ति का साधन मानता हैं, इसलिए कुछ विशेष परिस्थितियों में वह राज्य का विरोध करने का अधिकार व्यक्ति को देता हैं। 

ग्रीन का निष्कर्ष यह है कि साधारणतः राज्य के विरूद्ध नहीं किया जाना चाहिए। फिर भी कभी-कभी अपनी सत्ता का प्रयोग इस प्रकार करता हैं कि अच्छा जीवन व्यतीत करने वालों को यह सामान्य हित के विपरीत दिखाई देता हैं। ऐसी स्थिति में नागरिक उन राजाज्ञाओं का उल्लंघन करने के लिए कटिबद्ध हो जाते हैं जो सामान्य हितों के विपरीत हों। अतः व्यक्ति को राज्य के विरूद्ध विद्रोह करने का अधिकार केवल इन परिस्थितियों में हैं-- 

1. जब सम्प्रभुता के विषय में झगड़ा हो और यह निश्चित न हो कि वैधानिक दृष्टि से राज्य का सही उत्तराधिकारी कौन हैं। ऐसी स्थिति में व्यक्ति अवैध सम्प्रभु की आज्ञाओं का विरोध कर सकता हैं। 

2. जब राज्य मे सर्वत्र भ्रष्टाचार व्याप्त हो जाये तथा सार्वजनिक हित की प्राप्ति असंभव हो जाए तो सार्वजनिक हित में राज्य का विरोध किया जा सकता हैं। 

3. यदि राज्य के कानूनों की वैधता संदिग्ध हो और शासन अत्याचारी ढंग से सार्वजनिक हितों की अवहेलना करने लगे। उस बुरी विधि को रद्द के सभी संवैधानिक तरीके अपना लिए गए हों तो ऐसी स्थिति में राज्य का विरोध करना व्यक्ति का न केवल अधिकार हैं अपितु कर्त्तव्य भी हो जाता हैं। 

इस प्रकार ग्रीन यह कहता हैं कि कुछ न्यायपूर्ण स्थितियों में व्यक्ति राज्य की आज्ञा का विरोध कर सकता हैं। ग्रीन का यह मत हीगल के मत के सर्वथा विपरीत हैं। प्रो. वेपर के शब्दों में," ग्रीन का कथन हैं कि व्यक्ति राज्य की आज्ञा का उल्लंघन करते हुए भी न्यायपूर्ण हो सकता हैं। हीगल के विचारों से ग्रीन का इससे अधिक मतभेद और नहीं हुआ।" इसलिए मैक्सी कहते हैं," ग्रीन लेवियाथन राज्य का अधिवक्ता नहीं हैं, न ही वह राज्य की धरती पर ईश्‍वर के अवतरण में विश्वास करता हैं।"

6. राज्य का विरोध करने के अधिकार पर प्रतिबंध 

ग्रीन ने व्यक्ति को राज्य के विरूद्ध विद्रोह करने का अधिकार अवश्य दिया हैं, लेकिन व्यक्ति का विद्रोह करने का अधिकार अत्यधिक सीमित हैं। राज्य का विरोध करने के विपक्ष में ग्रीन ने व्यक्तियों को अनेक चेतावनियाँ दी हैं-- 

1. सामान्यतः व्यक्ति को राज्य का विरोध करने का अधिकार नहीं हैं, क्योंकि सभी अधिकारों का स्त्रोत राज्य हैं। 

2. व्यक्ति को केवल वैयक्तिक स्वतंत्रता के नाम पर राज्य का विरोध करने का अधिकार प्राप्त नहीं हैं। क्योंकि कभी-कभी सार्वजनिक कल्याण के लिये राज्य व्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगा सकता हैं। ग्रीन के शब्दों में, " राज्य के आज्ञा न मानने या विधि से जी चुराने का अधिकार केवल इस आधार पर प्राप्त नहीं हो सकता कि उससे किसी व्यक्ति की कार्य करने की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप होता हैं या बच्चों की व्यवस्था करने के अधिकार में हस्तक्षेप करता हैं।" 

3. व्यक्ति का निर्णय राज्य की अपेक्षा निम्न प्रकृति का हो सकता हैं, क्योंकि राज्य का निर्णय व्यापक अनुभव तथा विवेक पर आधारित होता हैं। इसलिए राज्य के कानूनों का विरोध तभी किया जाना चाहिए जबकि यह निश्चित हो जाये कि प्रतिरोध की सफलता से सार्वजनिक हित की प्राप्ति निश्चित रूप से होगी। 

4. राज्य के विरोध के एक खतरे से ग्रीन हमें सावधान कर देता हैं। वह यह कि राज्य का विरोध करने के परिणाम भयंकर हो सकते हैं, क्योंकि इससे राज्य में अराजकता फैलने का भय रहता हैं। 

5. व्यक्ति को राज्य के विरूद्ध विद्रोह करने में शीघ्रता नही करनी चाहिए। यदि व्यक्ति किसी कानून को अनुचित समझे तो उसके विरूद्ध सार्वजनिक चेतना (जनमत) का निर्माण करना चाहिए। यदि जनमत विद्रोह के पक्ष में हो तभी विद्रोह करना चाहिए। 

6. जिन देशों में संवैधानिक शासन-तंत्र हैं वहाँ पर यथासम्भव बुरी विधियों का विरोध संवैधानिक उपायों द्वारा ही करना चाहिए। 

इस प्रकार ग्रीन ने राज्य का विरोध करने के अधिकार पर अनेक प्रतिबंध लगाकर उसे अत्यधिक सीमित कर दिया हैं। 

दण्ड सिद्धांत 

दण्ड संबंधी विचारों को ग्रीन राज्य के कर्त्तव्यों के अन्तर्गत ही रखता हैं। राज्य का कार्य चूँकि अच्छे जीवन के मार्ग में आने वाली बाधाओं का निराकरण हैं, अतः राज्य को ऐसे तत्वों के ऊपर प्रतिबंध लगाना चाहिए जो उत्तम जीवन के मार्ग में बाधायें उपस्थित करते हैं। दंड का उद्देश्य अपराधों की रोकथाम करना हैं। अपराधी व्यक्ति अपने आचरण से अन्य व्यक्तियों में उत्तम जीवन व्यतीत करने के मार्ग में बाधाएँ उपस्थित करता हैं, अतः राज्य यदि अपराधियों को दण्ड देने की व्यवस्था करता हैं तो उसका यह कार्य उत्तम जीवन के मार्ग में आने वाली बाधाओं का निराकरण माना जायेगा। 

दण्ड के संबंध में प्रचलित विभिन्न सिद्धांतों का उल्लेख भी ग्रीन ने किया हैं। ग्रीन के प्रतिकात्मक सिद्धांत का तात्पर्य हैं 'जैसे को तैसा'। इसमें बदले की भावना से कार्य करते हुए इस सिद्धान्त को मान्‍यता प्रदान की जाती हैं कि 'आँख के बदले आँख और दाँत के बदले दाँत'। ग्रीन इस सिद्धान्त का आलोचक हैं। ग्रीन का विचार है कि इस सिद्धान्त में तो ऐसा प्रतीत होता हैं कि समाज व्यक्ति से बैर-भाव रखता हैं तथा बदला लेने के लिये तत्पर रहता हैं। वास्तविकता यह हैं कि समाज और व्यक्ति के वास्तविक हितों में किसी प्रकार का विरोध हो ही नहीं सकता। 

दण्ड के विषय में दूसरा प्रचलित सिद्धांत प्रतिबंधात्मक सिद्धांत हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार दण्ड का उद्देश्य अपराधी को पीड़ा के लिये पीड़ा देना नहीं हैं, न ही इसका उद्देश्य यह है कि अपराधी भविष्य में कभी अपराध न करे; इसका उद्देश्य तो उन व्यक्तियों के मन में भय का संचार करना हैं जो कि अपराध करने के लिए प्रवृत्त हैं। ग्रीन इस सिद्धांत को भी पूर्णतः सत्य नहीं मानता क्योंकि इसमें एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्तियों को शिक्षा देने का साधन बना लिया जाता हैं, क्योंकि ग्रीन व्यक्ति को साधन नहीं साध्य मानता हैं, इसलिए प्रतिबंधात्मक सिद्धांत का वह पूर्ण रूप से समर्थक नहीं हैं। फिर भी इस प्रकार की दण्ड व्यवस्था के औचित्य को वह स्वीकार करता हैं। ग्रीन का विचार हैं कि दण्ड केवल अपराध के अनुपात में दिया जाना चाहिए।

तीसरे प्रकार की दण्ड व्यवस्था सुधारात्मक हैं जिसका उद्देश्य हैं," अपराधी से नहीं अपराध से घृणा करों।" इस प्रकार की दण्ड व्यवस्था का उद्देश्य अपराधी में सुधार करना होता हैं। ग्रीन सुधारात्मक दण्ड व्यवस्था का समर्थक हैं। ग्रीन का  विचार है कि अपराधी को दण्ड इस रूप में दिया जाना चाहिए जिससे कि वह अन्य व्यक्तियों के उत्तम जीवन के मार्ग में बाधक न हो सके। साथ ही दण्ड के परिणामस्वरूप वह भविष्य में अपराध की पुनरावृत्ति न कर और समाज का एक नैतिक सदस्य बन सके। इसके लिए ग्रीन का सुझाव हैं कि राज्य को अपराधी व्यक्तियों के लिए कारगृहों में नैतिक शिक्षा, आर्थिक प्रशिक्षण आदि की व्यवस्था करके अपराधियों को उत्तम नागरिक बनाने की योजना को कार्यान्वित करना चाहिए। 

युद्ध तथा अंतरराष्ट्रीयता 

हीगल के विचारों तथा ग्रीन के विचारों में इस दृष्टि से अत्यधिक भिन्नता हैं कि हीगल ने जहाँ युद्ध तथा उग्र राष्‍ट्रवाद का समर्थन किया हैं, वही ग्रीन ने युद्ध का विरोध किया हैं तथा अंतरराष्ट्रीयता के संबंध में अपने विचार व्यक्त किये हैं। इस दृष्टि से ग्रीन का नाम विश्वबंधुत्व के समर्थकों में गिना जाता हैं। बार्कर ने उसकी प्रशंसा में कहा हैं कि," ग्रीन द्वारा की गयी युद्ध की निंदा उसके व्याख्यानों का सबसे उत्तम अंश हैं।"

ग्रीन के राजनीतिक दर्शन की आलोचना 

ग्रीन की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जाती हैं-- 

1. क्लिष्ट एवं अस्पष्ट दर्शन

ग्रीन का राजनीतिक चिंतन अत्याधिक अस्पष्ट एवं क्लिष्ट हैं। उसके सद्इच्छा, चिंतन आत्म-चेतना, सामान्य इच्छा की सामान्य चेतना इत्यादि से संबंधित विचार अत्यधिक कल्पनात्मक, क्लिष्ट एवं अस्पष्ट हैं। 

2. राज्य के कार्यों के संबंध में नकारात्मक दृष्टिकोण 

ग्रीन ने राज्य के कार्यों के संबंध में नकारात्मक दृष्टिकोण अपनाया हैं। उसकी दृष्टि में राज्य का कार्य केवल अच्छे जीवन के मार्ग में आने वाली बाधाओं का निराकरण करना हैं। परन्तु यह दृष्टिकोण उचित नहीं हैं। वास्तविकता तो यह हैं कि राज्य को अपने नागरिकों के उत्थान एवं उनके नैतिक जीवन की प्राप्ति के लिये अनेक रचनात्मक कार्य करने पड़ते हैं। वर्तमान लोक-कल्याणकारी राज्यों का कार्य व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करना हैं। 

3. प्रभुसत्ता का सिद्धांत 

ग्रीन का प्रभुसत्ता का सिद्धान्त संतोषजनक नहीं हैं, उसने रूसो तथा ऑस्टिन के सम्प्रभुसत्ता संबंधी विचारों में समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया परन्तु उसे उसके इस कार्य में सफलता प्राप्त नहीं हुई सामान्य इच्छा के संबंध में जो व्यावहारिक कठिनाइयाँ हैं उनका समाधान ग्रीन भी प्रस्तुत नहीं कर सकता हैं। 

4. प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत 

ग्रीन की प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत की आलोचना करते हुए वेपर ने लिखा हैं," ग्रीन एक हाथ से व्यक्ति को अधिकार देता हैं और दूसरे हाथ से उसको वापस ले लेता हैं। इसका ज्वलंत उदाहरण यह कि वह मानव अन्त:करण को सब प्रश्नों का अन्तिम न्यायालय मानता हैं, पर दृढ़तापूर्वक कहता हैं कि व्यक्ति को समाज के विरूद्ध कोई अधिकार प्राप्त नहीं हैं वरन् समाज की उन्नति करना उसका कर्त्तव्य हैं। इस प्रकार ग्रीन एक ओर व्यक्ति को अधिकारों से विभूषित करता हैं; दूसरी ओर उनसे वंचित कर देता हैं। अपने इन विरोधी विचारों के कारण वह कठिनाई में फँस जाता हैं।" 

5. निरंकुशता का समर्थन 

आलोचकों का विचार हैं कि यद्यपि ग्रीन ने शासन में जनता के सक्रिय रूप से भाग लेने का समर्थन किया हैं, परन्तु उसके लेखों में निरंकुश और स्वेच्छाचारी शासन के बीच विद्यमान हैं। ग्रीन यह नही मानता कि उत्तम शासन के लिये प्रजातंत्र होना जरूरी हैं। उसका यह विश्वास हैं निरंकुश शासन भी सामान्य इच्छा के अनुसार कार्य कर सकता हैं। 

6. मानव स्वभाव के संबंध में एकाकी दृष्टिकोण 

ग्रीन मनुष्य को एक विवेकशील तथा सद्इच्छा से विभूषित प्राणी मानता हैं। मानव स्वभाव के संबंध में उसका दृष्टिकोण आदर्शवादी हैं। परन्तु यह विचार एकदम एकाकी हैं। मनुष्य में सद्गुणों के साथ ही काम, क्रोध लोभ व घृणा तथा छल-कपट आदि अनेक दुर्गुण भी पाये जाते हैं। ग्रीन रूसो के समान मानव स्वभाव के केवल उज्ज्वल पक्ष को ही देखता हैं। 

7. राज्य का विरोध करने पर प्रतिबंध 

ग्रीन ने कुछ विशेष परिस्थितियों में राज्य का विरोध करने का अधिकार नागरिकों को प्रदान किया हैं। परन्तु इस अधिकार की मान्यता के साथ ही उसने इतने प्रतिबंध लगा दिये हैं कि," राज्य के प्रति विद्रोह करने के अधिकार का कोई अर्थ प्रतीत नहीं होता।"

8. दण्ड संबंधी विचारों की आलोचना 

ग्रीन ने दण्ड के विषय में सुधारात्मक दण्ड व्यवस्था का समर्थन किया हैं। लेकिन वह इस तथ्य को भूल जाता हैं कि बहुत से अपराधी बिना भय और प्रताड़ना के अपराधी प्रकृति को नहीं रोक सकते। 

मूल्यांकन 

ग्रीन बीसवीं शताब्दी के उदारवाद का जनक था। उसने अपने विचारों में व्यक्तिवाद तथा समाजवाद का सुन्दर समन्वय किया। ग्रीन ने समाज के विरूद्ध व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता तथा भौतिक समृद्धि के अधिकारों को महत्त्व न देकर संपूर्ण समाज के, विशेष रूप से समाज के उपक्षित वर्ग के, कल्याण पर अधिक जोर दिया हैं। ग्रीन ने उपयोगितावादी दर्शन को नैतिक तथा समाजवादी स्वरूप प्रदान किया। साथ ही उग्र आक्रामक आदर्शवाद को संयत करने का कार्य किया।

यह जानकारी आपके के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी

कोई टिप्पणी नहीं:
Write comment

आपके के सुझाव, सवाल, और शिकायत पर अमल करने के लिए हम आपके लिए हमेशा तत्पर है। कृपया नीचे comment कर हमें बिना किसी संकोच के अपने विचार बताए हम शीघ्र ही जबाव देंगे।