प्रथम विश्व युद्ध
pratham vishwa yudh ki ghtnayen karan parinam;1914 ई. का प्रथम विश्व युद्ध यूरोप के इतिहास की सबसे प्रमुख घटना है। इस घटना को अजांम तक पहुचांने में 1870 ई. से 1914 ई. में यूरोप की राजनीति में जो अस्थिरता आई उसने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। इस अवधि में यूरोप में जो शक्ति संतुलन बन रहा था या बिगड़ रहा था। उससे यूरोप के ‘महान सत्ता‘ कहे जाने वाले देश एक दूसरे पर विश्वास दिखाते हुए भी अन्दर से अविश्वास करते रहे। इस बढ़ते हुए अविश्वास और परस्पर एक दूसरे के विरूद्ध होने वाली संधियों ने सम्पूर्ण विश्व को दो विपरीत ध्रुवों में विभाजित कर दिया। उपर्यूक्त अवधि में यूरोप की कूटनीति राजनीति का संचालन और निर्धारण यूरोप के छह बड़े राष्ट्र - ब्रिटेन, रूस, जर्मनी, आस्ट्रिया, फ्रांस और इटली कर रहे थे। ये राष्ट्र अपने आपको ‘महान सत्ता‘ भी कहते थे। ‘‘यूरोपीय शक्ति-संतुलन इन्हीं देशों के मध्य पारस्परिक संधियों तथा समझौतों पर निर्भर करता था। इन सभी यूरोपीय महान् सत्ताओं में सक्रिय विदेश नीति अपनाकर अपनी महानता का सिक्का जमाने की प्रबल इच्छा देखने में आई।‘‘ यह प्रबल इच्छा ही वास्तव में दूनिया को महायुद्ध तक ले गई।
यूरोप की बदलती हुई आर्थिक स्थितियों ने यूरोप के देशों को विस्तारवादी नीति अपनाने के लिए विवश किया। औद्योगिकीकरण ने कच्चे माल की मांग को बढ़ाया और साथ ही उत्पादित माल को खपाने के लिए बाजारों पर अधिकार करने की नीति अपनाने के लिए विवश किया। 1870 ई. के बाद के यूरोप के सभी बड़े देश साम्राज्यवादी नीति को अपना रहे थे। औद्योगिक क्षेत्र में इंग्लैण्ड़ का कोई प्रतिद्वंद्वी नही था, परंतु जब उसका प्रतिस्पर्द्धी देश सामने आया तो अब प्रतिस्पर्द्धा के स्थान पर युद्ध अनिवार्य सा हो गया था।
1870 ई. के बाद यूरोप का शक्ति संतुलन छह बड़ी शक्तियों के बीच होने वाले समझौतों और संधियों के बीच स्थित था। इस अवधि में यूरोप में गुप्त संधियों का जाल सा बिछ गया था। इन कूटनीतिक गुटबंदियों ने सम्पूर्ण यूरोपीय जीवन को अस्त-व्यस्त और अशांत कर दिया था। जर्मनी यूरोप की कूटनीति पर छाया हुआ था। जर्मनी फ्रांस के बीच कटूता और फ्रांस द्वारा बदला लेने की आशंका के कारण जर्मनी ने सारे देशों को कूटनीतिक गुटबंदियों में उलझा दिया। जर्मनी का मुख्य लक्ष्य था कि फ्रांस को मित्र विहीन रखा जाए जिससे वह उससे बदला लेने की बात सोच भी न सके। जर्मनी के मन में इस बात के भय ने कि फ्रांस अवसर पाते ही प्रतिशोधात्मक कार्यवाही करेगा, सारे यूरोप की राजनीति को प्रभावित किया। जैसा कि अमेरिका के राष्ट्रपति विल्सन ने बाद में कहा था कि, इस प्रश्न के कारण यूरोप के सार्वजनिक जीवन में जहर घुल गया।
प्रथम विश्व युद्ध के कारण (pratham vishwa yudh ke karan)
1. राष्ट्रीयता की भावना और उग्र राष्ट्रवाद
प्रथम विश्व पर किताब लिखने वाले प्रौफेसर फे ने राष्ट्रीयता की भावना और उग्र राष्ट्रीयता को प्रथम विश्व युद्ध का एक प्रमुख कारण माना है। 1789 ई. की फ्रांस की राज्यक्रांति से उपजी राष्ट्रीयता की भावना को वियेना कांग्रेस 1815 ई. के बाद, 1830 ई. एंव 1848 ई. की क्रांतियों तथा इटली और जर्मनी के एकीकरण के रूप में विस्तार पाते देखा जा सकता है। 1871 ई. के बाद राष्ट्रीयता की भावना ने धीरे-धीरे उग्र राष्ट्रवाद का रूप धारण कर लिया। उग्र राष्ट्रवाद ने यूरोप और यूरोप और विश्व में अनेक नई समस्याओं को जन्म दिया, जिनसे विभिन्न देशों के बीच में शत्रुता और प्रतिद्वन्दता बढ़ती रही। जर्मनी और फ्रांस तो इसके बड़े उदाहरण हैं ही, बाल्कन प्रदेशों में तो उग्र राष्ट्रवाद का मसला इतना ज्यादा उलझता गया कि सारा अन्तर्राष्ट्रीय जगत भीषण तनाव से भर गया। संयोग से इसी माहौल में प्रथम विश्व युद्ध का तात्कालिक कारण भी इस क्षेत्र में उग्र राष्ट्रवाद से ही उपजा था।
2. साम्राज्यवाद एंव औपनिवेशिक स्पर्धा
विश्व की प्रमुख शक्तियों को आर्थिक तथा राजनैतिक साम्राज्यवाद से होने वाले लाभों ने उनको उपनिवेशों को हथियाने के लिए प्रेरित किया। इस औपनिवेशिक स्पर्धा के कारण कई बड़े देशों के बीच शीत युद्ध जैसी स्थिति लगातार बनी रही। औद्योगिक उत्पादनों के लिए बाजारों की तलाश ने जिस आर्थिक साम्राज्यवाद को जन्म दिया, उसने कालांतर में राजनैतिक प्रतिष्ठा का रूप धारण कर लिया। दूसरों की धरती, पैसा और सत्ता को हथियानें की साम्राज्यवादी प्रवृत्ति को बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में अंतर्राष्ट्रीय तनाव के एक बड़े कारण के रूप में आसानी से समझा जा सकता है। जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैण्ड़, रूस और अमेरिका आदि देशों की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा के कारण ही अफ्रीका, बाल्कन तथा एशिया क्षेत्र में अनेक ऐसे संकट उत्पन्न हुए जिनके कारण एक बड़े युद्ध का वातावरण बनता गया। 1905 ई. से 1914 ई. तक ऐसे अन्तर्राष्ट्रीय संकटों की श्रृंखला को भली-भांति महायुद्ध के सन्दर्भ में समझा जा सकता है।
3. गुप्त अभिसन्धियां
बिस्मार्क से 1865 ई. लेकर 1914 ई. तक गुप्त संधियों, प्रति-संधियों ने विभिन्न राष्ट्रों के मध्य सदैव आशंकाओं और यद्ध का भय बनायें रखा। जैसे बिस्मार्क ने फ्रांस को एकाकी रखने के लियें द्विवर्गीय, त्रिवर्गीय, त्रिसम्राट संधियां की फिर कैसर विलियम ने त्रिवर्गीय, जर्मन-तुर्की संधियां की, इसकी प्रतिक्रिया में फ्रांस-रूस, फ्रांस-इंग्लैण्ड़, इंग्लैण्ड़-रूस संधियां की। यही कार्य बाल्कन प्रदेशों में भी किया गया। जैस - यूनान- सर्बिया संधि जिससे बल्गेरिया-सर्बिया युद्ध हुआ। ऐसी और भी सन्धियां थी। अतः यूरोप में प्रतिद्धन्दी गुट बनाना आरम्भ हो गये।
4. सैन्यवाद
फ्रांस की राज्य क्रांति के बाद सैनिकवादी प्रवृत्ति ने विशेष जोर पकड़ा। वैसे यूरोप में जर्मनी ने इस प्रवृत्ति को आरम्भ किया था। परन्तु इसका दायित्व इंग्लैण्ड़ पर भी था, जिसकी जल सेना विश्व में प्रथम कोटि की सेना थी। इसी के कारण वह अन्य राष्ट्रों का अपमान करता था दूसरों को व्यापार करने से रोकता था। अतः फ्रांस, जर्मनी, आस्ट्रिया अपनी सैन्य-शक्ति से जर्मन राज्यों और इटली के राज्यों को अपने शोषण का शिकार बनाये हुये था और सैन्यवाद से ही आस्ट्रिया और फ्रांस 1870 ई. तक पराजित हुये थे। अब फ्रांस भी इसका प्रतिरोध सैन्य बल के द्वारा लेना चाहता था। आस्ट्रिया ने सर्बिया आदि अपनी सैन्य-शक्ति से दबाने का यत्न तैयार किया। कैसर विलियम ने भी सैन्य शक्ति का प्रयोग किया। बाल्कन राज्यों ने भी स्वाधीनता संग्राम हो या अपने हितों की पूर्ति हो सैन्य शक्ति से ही की। अतः सैन्यवाद द्वितीय महत्वपूर्ण कारण था।
5. फ्रांस का असन्तोष
प्रशा द्वारा फ्रांस की पराजय, फ्रेंकफर्ट में बिस्मार्क का कठोर और अपमानजनक व्यवहार, खनिज-पदार्थो के बाहुल्य से सम्पन्न अल्सेस-लॉरेन का छीना जाना, भारी क्षतिपूर्ति राशि और सेना की उपस्थिति, फ्रांसीसी देशभक्त नेता और नागरिक प्रशा से प्रतिशोध और अल्सेस-लॉरेन लेने के लिये कुछ भी करने को तैयार थे। फ्रेंकफर्ट के बाद बिस्मार्क के द्वारा आस्ट्रिया, रूस, इटली, के साथ गुप्त संधि समझौता से फ्रांस को सदैव अपने खिलाफ षड़यंत्र और आक्रमण का भय लगा रहा। इस कारण फ्रांस और भी अधिक सैनिक तैयारी में और अपने मित्रों की खोज में लगा रहा। इस कारण फ्रांस और भी अधिक सैनिक तैयारी में और अपने मित्रों की खोज में लगा रहा। इस कारण फ्रांस और भी अधिक सैनिक तैयारी में और अपने मित्रों की खोज में लगा रहा। विलियम ने भी फ्रांस को नगण्य माना परन्तु रूस को भी उपेक्षित रखा। अतः शीघ्र ही फ्रांस-रूस संधि हो गई उसके पश्चात् 1904 ई. में इंग्लैण्ड़ से फ्रांस ने सम्बन्ध सुधार कर उससे भी संधि कर ली बाद में रूस और इटली भी फ्रांस-इंग्लैण्ड़ के साथ हो गये। इस प्रकार एक सशक्त गुट तैयार हो गया। अतः फ्रांस के असंतोष और बिस्मार्क तथा कैसर विलियम ने प्रथम विश्व युद्ध के लिये फ्रांस को विवश कर दिया।
6. जर्मनी तथा इंग्लैण्ड़ के बीच वैमनस्यता
सम्राट विलियम द्वितीय ने जर्मनी के समुद्री बेड़े को बढ़ाने तथा शक्तिशाली बनाने का बहुत प्रयास किया। इससे ब्रिटेन के सामूहिक प्रभुत्व हेतु खतरा पैदा होने लगा। जर्मन की नीति से इंग्लैण्ड़ चिंतित हो उठा। दोनों के बीच शत्रुता के यही कारण थे।
7. रूस-ऑस्ट्रिया-हंगरी की शत्रुता
रूस-ऑस्ट्रिया-हंगरी की शत्रुता भी विश्व युद्ध हेतु जिम्मेदार थी। ऑस्ट्रिया तथा हंगरी के शासक सर्बिया से जलते थे। उनका यह विचार था कि उनके साम्राज्य में बसने वाले स्लावों को सर्बिया भड़काता है तथा विद्रोह की भावना पैदा करता है। रूस की स्लावों के प्रति सहानुभूति स्वाभाविक थी। रूस यह नहीं बर्दाश्त कर सकता था कि स्लावों को कोई हानि पहुंचाए। यही शत्रुता का कारण था।
8. रूस तथा जर्मनी के मध्य वैमनस्य
जर्मनी, रूस के शत्रु तुर्की से मित्रता बढ़ा रहा था, जिससे पूर्व की ओर उसका साम्राज्य बढ़े। इस उद्देश्य से विलियम ने 1898 ई. में तुर्की सुल्तान अब्दुल हमीद से भेट कर उसकी सुरक्षा का आश्वासन दिया, लेकिन इन दोनों की मित्रता से रूस चिंतित हुआ, क्योकि तुर्की पर जर्मनी रूस के हितो के विरूद्ध था। अतः वैमनस्य की खाई और गहरी हो गई।
9. कैसर विलियम का आक्रामक व्यक्तित्व
कैसर विलियम द्वितीय के अत्यंत अस्थिर एंव असंतुलित व्यक्तित्व को भी विद्वानों ने प्रथम विश्व युद्ध का एक कारण माना है। जर्मनी का यह युवा सम्राट चाहता था कि वह और जर्मनी विश्व के सिरमौर बनें। विश्व की हर महत्वपूर्ण घटना से जर्मनी का सरोकर होना चाहिए। विश्व राजनीति वाले इस जर्मन सरोकर ने अन्य राष्ट्रों को शंकित और आतंकित कर दिया। इससे कई अन्तर्राष्ट्रीय संकटों का जन्म हुआ, जिनके फलस्वरूप युद्ध की संभावना बार-बार बनती रही। उसके जिद्दी और अहंकारी स्वभाव के कारण इंग्लैंड जर्मनी से विमुख हो गया। यह वह कूटनीतिक भूल थी जिसने विश्व और यूरोप की राजनीति तथा गुटबन्दी में नया मोड़ ला दिया। फ्रांस तथा रूस से इंग्लैण्ड़ की मैत्री एक असंभव संभावना थी, लेकिन कैसर विलियम के व्यक्तित्व एंव नीति के कारण यह संभव हो सका। इसी प्रकार जर्मनी के चमकते कवच के दम पर ही आस्ट्रिया ने सर्बिया के विरूद्ध युद्ध की घोषणा की थी। यही विश्व युद्ध की शुरूआत थी।
10. समाचार पत्र और प्रचार माध्यम
समाचार पत्र और प्रचार माध्यम मानव समाज की ऐसी उपलब्धियां हैं जिन पर उसे गर्व होना ही चाहिए। लेकिन आमतौर पर राष्ट्रीयता और उग्रराष्ट्रवाद के प्रभाव के कारण एक-दूसरे देशों के समाचार पत्रों आदि ने अपने-अपने देश की जनता की भावनाओं को उकसाने में मदद की। समाचारों को बढ़ाकर और रोमांचक तरीके से खबरें छापने से भी अलग-अलग देशों की जनता एक-दूसरे के खिलाफ उत्तेजित होती रहीं। जर्मनी-इग्ंलैण्ड़ सम्बन्धों को लेकर तथा तीन मोरक्को संकटों में ऐसे अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। 1914 में आर्च ड्यूक फर्डिनेन्ड की हत्या को लेकर, आस्ट्रिया एंव सर्बिया के समाचार-पत्रों एंव प्रचार माध्यमों ने जो आक्रामक वातावरण बनाया, किसी हद तक स्वाभाविक होते हुए भी उसने प्रथम महायुद्ध के आगमन में सहयोग प्रदान किया।
11. तात्कालिक कारण
यूरोप बारूद के ढेर पर बैठा हुआ था। केवल एक चिन्गारी यूरोप में युद्ध भड़का सकती थी। इस स्थिति में ऑस्ट्रिया के राजकुमार फर्डिनेण्ड का पत्नी समेत बोस्निया में कत्ल हो गया। ऑस्ट्रिया का राजकुमार नवीन प्रान्त बोस्निया की यात्रा पर था कि वहां के एक छात्र गेवरीला प्रिसिप द्वारा 28 जुन, 1914 ई. को राजकुमार की हत्या करने पर युद्ध की स्थिति बन गई। यह छात्र सर्विया के ‘‘काला हाथ‘‘ नामक क्रान्तिकारी तथा आतंकवादी संस्था का सदस्य था। हत्या के लिये सर्विया में निर्मित हथियारों का उपयोग किया गया था।
युद्ध की भूमिका
युवराज की हत्या का दोष ऑस्ट्रिया ने सर्विया को दिया और अत्यन्त कठोर शर्तो के साथ सर्विया को 48 घंटे को अल्टीमेटम दिया। सर्विया ने रूस का समर्थन प्राप्त कर लिया था। इंग्लैण्ड़ के विदेश मंत्री एडवर्ड ने बीचबचाव का प्रयत्न किया, किन्तु विफल रहा।
प्रथम विश्व युद्ध का प्रारंभ
ऑस्ट्रिया ने सर्विया पर आक्रमण 28 जुलाई, 1914 ई. कर दिया जिसे युद्ध की घोषणा माना गया और इसके बाद से ही प्रथम विश्व का प्रारंभ हो गया। जिसमें रूस ने सर्विया के पक्ष में सैनिक तैयारी एंव गतिविधियां प्रारंभ कर दी। जर्मनी ने रूस को चेतावनी दी तथा चेतावनी के पश्चात् भी रूस के आक्रमक व्यवहार को देखकर जर्मनी ने 1 अगस्त 1914 ई. को रूस पर आक्रमण कर दिया। बेल्जियम की तटस्थता एंव स्वतंत्रता के हित में इंग्लैण्ड़ को युद्ध में उलझना पड़ा 4 अगस्त, 1914 ई. को जर्मन सेना द्वारा फ्रांस पर आक्रमण हेतु बेल्जियम की भूमि का अतिक्रमण करने के कारण ही इंग्लैण्ड़ ने प्रथम महायुद्ध में प्रवेश किया था।
इटली तटस्थ बना रहा था, किन्तु परिस्थितिवश वह सन् 1915 ई. में जर्मनी तथा ऑस्ट्रिया के विरूद्ध युद्ध में सम्मिलित हो गया। टर्की तथा बल्गारिया जर्मनी के पक्ष में युद्ध में कूद पड़े। यूरोप स्पष्टतः दो खेमों में बंटकर युद्धरत हो गया। इस व्यापक विनाशकारी युद्ध में विश्व के 36 राष्ट्रों ने भाग लिया। इतिहासकर लिप्सन के अनुसार, ‘‘पहले युद्धों के समय में दो वर्ग माने जाते थे अर्थात् कर्ता और द्रष्टा। इस युद्ध ने सबकों एक ही वर्ग में रख दिया अर्थात् सब कर्ता ही कर्ता थे, द्रष्टा कोई नहीं रहा। लोग चाहे लड़े न हों और युद्ध की सामग्री तैयार न करे।‘‘
प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम या प्रभाव (pratham vishwa yudh ke parinam)
प्रथम विश्व युद्ध इतिहास की एक बड़ी भयंकर विनाशकारी घटना थी। इस युद्ध में 36 राष्ट्रों ने भाग लिया था जिनमें 32 मित्रों राष्ट्रों के साथ चार केन्द्रीय शक्तियों के साथ थे। इस युद्ध में अत्यन्त भयंकर अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग हुआ, टैंक काम में लाये गये, विषैली गैसों का प्रयोग हुआ, हवाई जहाजों से गोले बरसायें गये, समुद्र में पनड़ब्बियों ने भयंकर विनाश किया और शत्रुओं के प्रहार से असैनिक नागरिक जनता भी न बच सकी। इस युद्ध में संसार के सभी देशों ने प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से भाग लिया। इस युद्ध में 36 राष्ट्रों के लगभग साढ़े छः करोड़ व्यक्तियों ने भाग लिया। इसमें विभिन्न राष्ट्रों की जनशक्ति और धनशक्ति का जो निवास हुआ उसका आकलन किया गया है। इसका अध्ययन करने से हमे यह बात समझ में आ जायेगी कि यह युद्ध के कितना विनाशकारी था। इसके अलावा प्रथम विश्व युद्ध में निम्नलिखित गंभीर राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिणाम सामने आये--
1. जनशक्ति का विनाश
इस युद्ध में कुल मिलाकर अस्सी लाख आदमी मारे गये। घायलों की संख्या दो करोड़ दस लाख थी, इनमें आठ लाख ऐसे व्यक्ति शामिल थे, जो कि पूर्णतः अपाहिज हो गये थे। इनमें जर्मनी तथा उनके साथी राष्ट्रों के तीन लाख व्यक्ति मारे गये और अस्सी लाख घायल हुए। मित्र राष्ट्रों के पचास लाख व्यक्ति मारे गये और एक करोड़ दस लाख घायल हुए। इनके अलावा सत्तार लाख से अधिक व्यक्ति ऐसे थे जो कि लापता हो गये। इस प्रकार युद्ध में तीन करोड़ चालीस लाख आदमी या तो जान से मारे गये या गुम हो गये या घायल हो गये। सैनिकों के अतिरिक्त नागरिकों को भी सामुद्रिक तथा हवाई युद्धों के कारण जान की भारी क्षति उठानी पड़ी। 1,912 अमेरिकी तथा 20,690 अंग्रेज समुद्रों में जहाजों के डुबोये जाने के कारण मारे गये। 1,270 ब्रिटिश नागरिक हवाई गोलीवारी से मारे गये। तुर्की लोगों ने अपने कई लाख ईसाई और यहूदी नागरिको की युद्ध के दौरान हत्या कर दी। युद्ध के बाद मित्र राष्ट्रों ने जर्मनी की जो नाकेबन्दी की, उसमें कई लाख जर्मन, जिनमें स्त्रियां और बच्चे भी शामिल थे, भूख से मर गये। युद्ध के पश्चात् यूरोप में जो महामारियां फैलीं, उनमें लगभग चालीस लाख व्यक्ति मारे गये। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि युद्ध में जवान लोग मारे गये, जिससे आगे चलकर यूरोप की भारी आर्थिक हानि हुई।
2. सामाजिक परिणाम
प्रथम महायुद्ध में बड़ी संख्या में पुरूषों के मारे जाने या युद्ध में फंस जाने के कारण-सामाजिक संतुलन गड़बड़ा गया। पुरूषों की संख्या कम होने तथा महिलाओं की संख्या बढ़ने से अनेक नई सामाजिक समस्याएं पैदा हो गई। इसके साथ ही प्रथम महायुद्ध के फलस्वरूप स्त्रियों का सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था में महत्व बढ़ गया। युद्ध के दौरान पुरूषों के अभाव में या आवश्यकतानुसार महिलाओं, ने कारखानों, दफ्तरों, आदि में दिन-रात काम करके हर प्रकार के उत्पादन में सहयोग प्रदान किया। इससे स्त्री समाज का आत्मविश्वास और महत्व बढ़ा। इंग्लैंड में 1918 ई. में महिलाओं में पहली बार मताधिकार प्राप्त हुआ। रूसी क्रांति के बाद मजदूर आंदोलन में भी स्त्रियों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण हो गई।
3. शिक्षा, संस्कृति एंव विज्ञान
शैक्षणिक एंव सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में यह युद्ध बहुत हानिकारक सिद्ध हुआ। अनिवार्य सैनिक सेवा तथा युद्ध से जुड़ी देश की अन्य जिम्मेदारियों के कारण करोड़ों युवकों को स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालय को छोड़ना पड़ा। बहुत सी ऐतिहासिक-सांस्कृतिक महत्व की इमारतें एंव कृतियां युद्ध में नष्ट हो गई। विनाश के लिए ही सही, युद्ध के दौरान, युद्ध के साधनों एंव हथियारों के लिए नये वैज्ञानिक आविष्कार हुए। हवाई जहाज, टैंक, जहरीली गैसें आदि के निर्माण और विकास में नये-नये प्रयोग होने लगे।
4. आर्थिक परिणाम
प्रथम विश्व युद्ध के कारण आर्थिक रूप से काफी क्षति हुई, जिसका अनुमान कुछ अर्थशास्त्रियों के द्वारा लगाया गया। उनके अनुसार युद्ध में साढ़े अट्ठावन हजार करोड़ रुपयें खर्च हुए। इनमें से एक-तिहाई जर्मनी तथा उनके साथियों का तथा शेष दो-तिहाई मित्र राष्ट्रों का खर्च हुआ। इसके अलावा तेरह हजार दो सौ करोड़ की सम्पत्ति का विनाश हुआ। युद्ध में सम्मिलित राष्ट्रों पर कर्ज का भारी बोझ आ पड़ा। उदाहरणार्थ, युद्ध के अन्त तक इंग्लैण्ड़ का ऋण 7,080 लाख से बढ़कर 74,350 लाख पाउण्ड हो गया, फ्रांस का राष्ट्रीय ऋण 3,41,880 लाख से बढ़कर 14,74,720 फ्रेंक हो गया। जर्मनी का ऋण 50,000 लाख से बढ़कर 16,06,000 लाख मार्क हो गया था। इसके अलावा अनेक यूरोपीय राष्ट्रों का सर्वनाश हो गया। जो प्रदेश शत्रुओं के अधिकार में रहे (जैसे- उत्तरी फ्रांस, बेल्जियम, उत्तरी इटली, रूस, पोलैण्ड, सर्बिया, ऑस्ट्रियन गेलेशिया आदि) उनका तो सर्वनाश ही कर दिया गया। इतने भारी आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा उपज बहुत कम हो गयी, कीमनें बढ़ने लगीं और मुद्रा का मूल्य गिर गया तथा व्यापार अस्त-व्यस्त हो गया।
5. राष्ट्रीयता का तीव्र विकास
प्रथम विश्व-युद्ध ने राष्ट्रीयता की भावना को अत्यधिक प्रोत्साहन दिया। युद्ध के दौरान मित्र राष्ट्रों ने नारा लगाया था कि राष्ट्रों को आत्मनिर्णय का अधिकार मिलना चाहिए। पेरिस के शान्ति सम्मेलन ने यूरोप की नवीन राजनीतिक व्यवस्था को राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के सिद्धांत के आधार पर खड़ा करने का प्रयास किया और उनके अनुसार आठ नये राज्यों की स्थापना की। ये चैकोस्लावाकिया, यूगोस्लाविया, हंगरी, पोलैण्ड़, लिथूनिया, लेटेविया, एस्थोनिया तथा फिनलैण्ड़ थे। इस प्रकार प्रथम विश्व युद्ध के बाद सभी देशों में राष्ट्रीय भावना का तीव्र विकास हुआ।
6. साम्यवाद का उदय
साम्यवाद के प्रवर्तक कार्ल मार्क्स थे। युद्ध के परिणामस्वरूप रूस में साम्यवादी सिद्धांतों के आधार पर लेनिन के नेतृत्व में क्रान्ति हुई, जिसमें जार के शासन का अन्त कर दिया गया और सर्वहारा वर्ग का अधिनायकतंत्र स्थापित हुआ। इस अधिनायकतंत्र के अन्तर्गत एक नयी अर्थ-व्यवस्था स्थापित की गई। इस व्यवस्था में उत्पत्ति के साधनों-भूमि, पूंजी, श्रम, प्रबंध आदि पर सारे समाज का स्वामित्व होता है। वे कुछ थोड़े-से व्यक्तियों की निजी सम्पत्ति नहीं होतीं, जैसा कि पूंजीवादी व्यवस्था में होता है। इस नयी व्यवस्था ने विश्व के मजदूर-वर्ग में एक नवीन चेतना का संचार किया और उनमें शोषण के विरूद्ध संघर्ष करने की प्रेरणा जागृत हुई, जिसके दूरगामी परिणाम हुए।
7. अन्तर्राष्ट्रीयता तथा विश्व-शान्ति के आदर्शो का उदय
युद्ध की विभीषिका ने अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना और विश्व-शान्ति के आदर्श को प्रोत्साहन दिया। यह युद्ध अत्यन्त ही विनाशकारी हुआ जिनमें जन-धन की अपार क्षति हुई। इससे विचारक, राजनीतिज्ञ तथा साधारणजन सभी आतंकित हो गये और यह अनुभव करने लगे थे कि मनुष्य जाति के लिए युद्ध भारी अभिशाप है। सर्वत्र यह आवाज उठाई जाने लगी कि संसार के सभी राष्ट्रों को परस्पर मिलकर और शान्तिपूर्वक रहना चाहिए। इसी भावना ने राष्ट्रसंघ को जन्म दिया। आगे चलकर यह भी प्रयास किये गये कि संसार के राष्ट्र अपनी-अपनी सेनांए कम कर दें और उन पर व्यय होने वाले धन को मनुष्यों के रहन-सहन के स्तर को ऊंचा करने के लिए व्यय करें। लेकिन इन सब प्रयासों को सफलता नहीं मिली और अन्त में द्वितीय विश्व युद्ध होकर ही रहा।
Jinu
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