बिस्मार्क की विदेश नीति
bismarck ki videsh niti ka varna;देवेन्द्र सिंह चैहान के अनुसार, ‘‘1871 से बिस्मार्क की विदेशी नीति का मुख्य उद्देश्य यूरोप में जर्मनी के प्राधान्य को बनाए रखना था। जर्मनी को संगठित एंव शक्तिशाली राज्य बनाने का उसका उद्देश्य पूरा हो चुका था और अब जर्मनी तृप्त राष्ट्र था। अतः अब वह युद्ध की नीति को राष्ट्र के लिए हितकर नहीं मानता था। इसी कारण यूरोप मे शान्ति बनाए रखना उसकी नीति का मुख्य ध्येय बन गया। बिस्मार्क के राजनय के सिद्धान्त मेटरनिख से मिलते जुलते थे। मेटरनिख के समान ही वह युरोप में यथापूर्व स्थिति बनाए रखना चाहता था।‘‘
बिस्मार्क की विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य था कि यूरोप में शान्ति रहे, कोई युद्ध न हो और यथास्थिति कायम रहे। इसका अर्थ था कि जर्मनी ने 1871 के पूर्व जो कुछ अपने साम्राज्य में शामिल कर लिया है वह उससे कोई न छीने। जर्मनी ने सीडान युद्ध के बाद जो फ्रेंकफर्ट की संधि हुई उसके द्वारा फ्रांस से उसके सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक क्षेत्र छीन लिए थे। ये क्षेत्र थे एल्सेस लोरेन के प्रदेश। फ्रांस और वहीं की जनता न तो अपने राष्ट्रीय अपमान को भूल सकती थी और न ही वह अपने आर्थिक महत्व के प्रदेश को जर्मनी साम्राज्य में शामिल कर लिए जाने को सहन कर सकती था। इस दृष्टिकोण से उसकी नीति का सबसे पहला काम था फ्रांस को यूरोप की राजनीति में मित्र हीन बनाए रखना। इसके लिए ही उसने शांति की नीति पर चलने की घोषणा की थी। इसके पीछे यह तर्क निहित था कि यदि युद्ध होता है तो उसके दुश्मनों को एक होने का अवसर मिल जाएगा और यह जर्मनी के लिए खतरनाक हो सकता था। उसकी 1871 तक की उपलब्धियां उससे छिन सकती थीं जो कि वह नहीं चाहता था।
बिस्मार्क की विदेश नीति के मूल तत्व
बिस्मार्क की विदेश नीति के मूल तत्व इस प्रकार है--
1. यूरोप में यथास्थिति बनाए रखना
बिस्मार्क के 1870 के पहले तथा 1870 के बाद के उद्देश्यों में कोई अन्तर नहीं था। 1870 के पहले उसका प्रमुख उद्देश्य प्रशिया के हितों की रक्षा तथा एशिया के नेतृत्व में संयुक्त जर्मनी का एकीकरण था। इसके लिए बिस्मार्क को तीन युद्ध लड़ने पड़े।
1870 के बाद भी उसका उद्देश्य प्रशिया तथा जर्मनी के हितो की रक्षा करना था। किन्तु 1870 के पश्चात् उसने अपनी नीति मे परिवर्तन किया था। 1870 के पश्चात् वह युद्ध का मार्ग नहीं अपनाना चाहता था, क्योंकि अपनी सारी शक्ति चतुराई के साथ वह जर्मनी की उन्नति और शान्ति के लिए लगाना चाहता था। इस कार्य के लिए यूरोप में शान्ति और यथास्थिति बनाए रखना आवश्यक था। बिस्मार्क चाहता था कि 1871 के पश्चात् यूरोप की भू-भागीय स्थिति और औपनिवेशिक क्षेत्रों में कोई परिवर्तन न हो।
2. फ्रांस को एकाकी तथा मित्रहीन बनाए रखना
फ्रेंकफर्ट की अपमानजनक सन्धि से अल्सास और लारेन जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों का छिन जाना फ्रांस का राष्ट्रीय अपमान था। बिस्मार्क को यह भली-भाति ज्ञात था कि फ्रांस इस अपमान का बदला लेने के लिए प्रतिशोध की आग में धधक रहा है। सेडोवा के युद्ध के पश्चात बिस्मार्क ने वर्नस्टॉफ को लिखा था, ‘‘फ्रांस की हमारे विरूद्ध कटुता किसी भी प्रकार कम नहीं हो सकती, चाहे हम उसके राज्य का कुछ भू-भाग ले लें अथवा छोड़े दें।‘‘ बिस्मार्क यूरोपीय राजनीति में फ्रांस को एकाकी तथा मित्रहीन बनाना चाहता था। अतः उसने आस्ट्रिाया , रूस तथा इटली से सन्धियाँ एवं समझौते किए।
3 .युद्धों का अन्त तथा सन्धि और समझौते का मार्ग
जर्मन साम्राज्य के निर्माण तथा जर्मनी के एकीकरण के लिए बिस्मार्क ने युद्धों की श्रृंखला लगा दी थी। किन्तु इसके पश्चात् जर्मनी के विकास के लिए यूरोपीय महाद्वीप में शान्ति आवश्यक थी। अतः उसने शन्ति की महत्ता को समझाते हुए कहा, ‘‘जर्मनी पूर्णरूपेण सन्तुष्ट राष्ट्र है। यद्यपि युद्ध द्वारा जर्मनी को राष्ट्रीय एकता और अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में प्रधानता नष्ट हो जाऍंगी। फलस्वरूप जर्मनी की आन्तरिक सुरक्षा भी, जो उसके राजनीतिक विकास के लिए आवश्यक है, काफूर हो जाएगी।‘‘
4. इंग्लैण्ड से मित्रता
यूरोपीय महाद्वीप में शान्ति एवं व्यवस्था बनाए रखने के लिए बिस्मार्क इंग्लैण्ड से मधुर सम्बन्ध बनाए रखना चाहता था। बिस्मार्क का कथन था कि जर्मनी विस्तारवादी देश नहीं है। अतः साम्राज्यवादी इंग्लैण्ड के साथ जर्मनी की प्रतिस्पर्धा का प्रश्न ही नहीं उठता। उसका कथन था, ‘‘स्थल के चूहे और जल के चूहे में कभी लड़ाई नहीं होती।‘‘
5. उपनिवेश स्थापित नहीं करना
यूरोप की राजनीति तथा विदेश नीति में यूरोपीय राष्ट्र औपनिवेशिक साम्राज्य विस्तार की प्रतिस्पर्धा में लगे हुए थे। बिस्मार्क पूर्वी समस्या में उलझना नहीं चाहता था अतः उसने कहा कि ‘‘पूर्वी प्रश्न एक जर्मन सैनिक के जीवन के मूल्य के समान भी नहीं है।‘‘
प्रारम्भ में बिस्मार्क ने घोषित किया, ‘‘मैं उपनिवेश प्राप्त करने वाला मनुष्य नहीं हूँ।‘‘
किन्तु 1880 के पश्चात बिस्मार्क ने उपनिवेश स्थापना में रूचि लेना प्रारम्भ कर दिया था।
विदेश नीति में अपने उद्देश्यों को सफल बनाने के लिए बिर्स्माक ने यूरोपीय देशों से गुप्त सन्धियाँ तथा गुटबन्दी की प्रक्रिया प्रारम्भ की थी
इतिहासकर जी.पी.गूच ने बिस्मार्क की विदेश नीति के उद्देश्यों की विवेचना कर कहा है,"1871 के पश्चात् बिस्मार्क की विदेश नीति का मूल उद्देश्य अपनी विजयों को सुरक्षित रखना और फ्रांस को एकाकी बनाकर यूरोप में शान्ति बनाये रखना था।"
बिस्मार्क की सन्धियां तथा समझौते
अपनी विदेश नीति के सिद्धांतों के तहत बिस्मार्क ने विभिन्न राज्यों से विभिन्न समझौते किए--
1. तीन सम्राटों का संघ
बिस्मार्क की विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य फ्रांस को मित्रहीन और निर्बल राष्ट्र बनाए रखना था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने तीन राष्ट्र का एक संघ बनाया। इसमें आस्ट्रिया, रूस और जर्मनी शामिल थे। बिस्मार्क की कूटनीतिक बुद्धि ने यह अनुभव कर दिया था कि फ्रांस अपने राष्ट्रीय अपमान का बदला लेने की कोशिश अवश्य करेगा, परंतु वह अकेला ही यह कार्य नहीं कर सकता, इसके लिए वह यूरोप के अन्य राष्ट्रों से मित्रता और सहायता लेने का प्रयास करेगा। उसने फ्रांस की तात्कालिक राजनैतिक स्थिति का फायदा उठाया और उसके सम्भावित मित्रों से पहले ही मित्रता करने का प्रयास किया। इस कूटनीति ने ही तीन राष्ट्र के संघ को जन्म दिया। बिस्मार्क ने आस्ट्रिया और रूस के सम्राटों को यह बताया कि फ्रांस में समाजवाद का बढ़ता जोर प्रतिक्रियावादी सम्राज्यों के लिए खतरा बन सकता है। इसी आधार पर उसने आस्ट्रिया और रूस के सम्राटों को जर्मनी के सम्राट से मिलवाकर मित्रता स्थापित कराने का प्रयास किया और वह इसमे सफल रहे।
प्रोफेसर वर्मा के अनुसार,‘‘ तीन सम्राटों का संघ जितना भी अव्यावहारिक रहा हो वह बिस्मार्क की कूटनीतिक योग्यता का जीवंत प्रमाण था। अपने समय में बिस्मार्क ने सारी शंकाओ और द्वंद्वों के बावजूद रूस को बांध रखा था। साथ ही यह भी मानना पड़ेगा कि वह संघ यूरोप में बढ़ती गुप्त संधियों और गुटबंदियों का परिणाम था। एक लक्ष्य के लिए प्रति क्रांति के समर्थकों की एकजुटता इससे प्रकट होती थी। लेकिन राष्ट्रीय हितों के लिए समझौते यदि किए जा सकते थे तो उन्हे तोड़ा भी जा सकता था।‘‘
बिस्मार्क ने तीन सम्राटों का संघ बनाने के लिए तीनों सम्राटों को बर्लिन में आमंत्रित किया। आस्ट्रिया, रूस और जर्मनी के सम्राट 1872 के सितम्बर में बर्लिन में मिले और उनमें आपस में समझौता हो गया। तीनों राष्ट्रों ने एक संघ बनाया, जिसे तीन राष्ट्रों का संघ कहा जाता है। इसमें कोई संधि तो नही हुई परंतु तीनों राष्ट्रों ने यह तय किया कि वे यूरोप में शान्ति और यथास्थिति बनाए रखने के लिए आपस में सहयोग करेंगें। कोई राज्य इस शान्ति को भंग करने की कोशिश करेगा तो तीनों मिलकर उसका मुकाबला करेंगे। उन्होंने सामूहिक रूप से यूरोप की यथास्थिति में परिवर्तन का विरोध करने का निश्चय किया। इसके अलावा उन्होंने पूर्वी समस्या में भी एक सी नीति अपनाने का वचन दिया। इस संघ के निर्माण पर बिस्मार्क ने कहा था कि ‘‘मैने वियेना के रास्ते पर एक पुल बना लिया है, बिना सेंट पीटर्सबर्ग वाला पुल तोड़े ही।‘‘ यद्यपि वह जानता था कि दो पूलों पर एक साथ यात्रा नहीं हो सकती। दो में से एक को टूटना ही था। उसे आस्ट्रिया और रूस जैसे शक्तिशाली मित्रों के मिल जाने का गर्व था।
त्रिगुट सन्धि का महत्व
बिस्मार्क ने इस सन्धि को करके विश्व इतिहास में एक असाधारण स्थिति को जन्म दिया। इटली और ऑस्ट्रिया वर्षो से दुश्मन रहे थे, परन्तु पुराने दुश्मन इससे परम मित्र बन गए। राबर्टसन ने लिखा है, ‘‘त्रिगुट द्वारा मध्ययूरोप के संगठन का कार्य पूरा हुआ।‘‘ प्रो.गुच के अनुसार, ‘‘इससे इटली को ऑस्ट्रिया की तुलना में अधिक लाभ हुआ, क्योकि ऑस्ट्रिया पर फ्रांस के आक्रमण के विरूद्ध अपने साथी को सहायता देने का उत्तरदायित्व आ गया। संगठन में आने से उसे आक्रमण के विरूद्ध अभयदान मिल गया।‘‘ इटली की लडखडाती शासन व्यवस्था को मदद मिली और वह पोप या फ्रांस के आक्रमण से निश्चित हो गया। 1882 में उसे बड़े राष्ट्र के रूप में मान्यता मिली। ट्रिपल अलायन्स रूस और फ्रांस के विरूद्ध रक्षात्मक सन्धि थी।
सन्धि का मूल्यांकन प्रथम महायुद्ध के समय इस सन्धि की शर्तो को प्रकाशित किया गया था। इसी आधार पर इतिहासज्ञों ने इस संधि का मूल्यांकन किया है। सन्धि की शर्तो से ज्ञात होता है कि किन परिस्थितियों में जर्मनी और इटली के हितों की रक्षा की गई। वस्तुतः यह सन्धि फ्रांस को एकाकी बनाए रखने की भावना से की गई थी। इस सन्धि में स्थायित्व के तत्व दृष्टिगोचर नहीं होते है। इस सन्धि को मंजूर तो कर लिया गया था किन्तु इसके प्रति किसी को भी लगाव नहीं था। यूरोपीय युद्ध प्रारंभ होते ही इस सन्धि का समाप्त होना सम्भावित था।
2. द्वि-राष्ट्रीय सन्धि
बर्लिन में सन् 1879 एक सम्मेलन हुआ इसके बाद रूस तथा जर्मनी के रिश्तों में खटास आने लगी। फिर भी बिस्मार्क ने कई माह तक तीन सम्राटों के संघ को पुनर्जीवित करने का विचार करता रहा। उसका विचार था कि इससे पूर्वी यूरोप में अनुकूल स्थिति बनी रहेगी। अन्त में उसको यह विचार छोड़कर ऑस्ट्रिया से सन्धि करना पड़ी। रूस तथा जर्मनी के मध्य खाई और गहरी हो गई थी। अतः जर्मनी ने ऑस्ट्रिया से पांच वर्षो के लिए एक गुप्त सन्धि की थी।
सन्धि के लिए शर्ते
द्वि-राष्ट्रीय संधि की निम्नलिखित शर्ते थी--
1. यदि जर्मनी अथवा ऑस्ट्रिया दोनों में से किसी पर भी रूस आक्रमण करता है। तो दोनों देश एक-दूसरे की सहायता करेंगे।
2. यदि आक्रमण करने वाले देश को रूस सहायता करेगा तो दोनों मित्र देश मिलकर सामना करेंगे।
3. यदि रूस के अतिरिक्त अन्य कोई देश जर्मनी अथवा ऑस्ट्रिया किसी एक राष्ट्र पर आक्रमण करेगा तो दूसरा मित्र तटस्थ रहेगा।
इस सन्धि का उद्देश्य सुरक्षा के दृष्टि से पांच वर्षो के लिए की गई थी। इस सन्धि की धाराओं को बिस्मार्क ने प्रथम बार सन् 1887 में प्रकट किया था। बिस्मार्क ने यह सन्धि ऑस्ट्रिया के विदेश मंत्री एण्ड्रेसी की शर्तो पर की थी। इसका कारण तत्कालीन परिस्थितियां थी।
बिस्मार्क बर्लिन सम्मेलन के पश्चात् रूस के व्यवहार से खिन्न था। अतः उसको विश्वास पात्र मित्र की तलाश थी। जो उसे ऑस्ट्रिया के रूप में मिल गया और सन्धि कर बिस्मार्क जर्मनी की रक्षा हेतु आश्वस्त हो गया था। रूमानिया के रेलमार्ग के विकास हेतु जर्मन कम्पनी की सहायता देने के कारण इटली और इंग्लैण्ड भी जर्मनी से नाराज थे। पुनः ऑस्ट्रिया से सन्धि नहीं करने पर ऑस्ट्रिया राजनीतिक क्षेत्र में स्वतन्त्र रह जाता और जर्मनी के लिए संदेह बना रहता।
सन्धि का महत्व
‘‘बिस्मार्क की उत्तर सुझबूझ व कूटनीतिज्ञता का उदाहरण‘‘ कहा है। यह सन्धि बिस्मार्क के जीवन की सबसे बड़ी सफलता थी। ऑस्ट्रो-जर्मन सन्धि बिस्मार्क की महान् उपलब्धि थी। इस सन्धि से उसकी लोकप्रियता में वृद्धि हो गई थी। यह सन्धि मुख्यतया रूस के विरूद्ध थी, क्योकि ऑस्ट्रिया को रूस से सर्वाधिक खतरा था। इस सन्धि के लिए बिस्मार्क को जर्मनी के सम्राट विलियम प्रथम के विरोध का सामना करना पड़ा था। लेकिन वह ऑस्ट्रिया से सन्धि करने में सफल हो गया। इस सन्धि मे सन् 1779 के पश्चात् ऑस्ट्रिया से सन्धि करने में सफल हो गया। इस सन्धि से सन् 1779 के पश्चात् ऑस्ट्रिया तथा जर्मनी एक सामूहिक शक्ति के रूप में संगठित हो गए।
3. त्रि-राष्ट्रीय सन्धि
यह एक विकट परिस्थितियों में सम्पन्न की गई सन्धि थी। इटली के सम्बन्ध ऑस्ट्रिया तथा फ्रांस से अच्छे नहीं थे। ऑस्ट्रिया आरंभ से ही इटली के एकीकरण में रोड़े अटकाता रहा था। बिस्मार्क की इटली से कोई दुश्मनी नहीं था, किन्तु उसकी भावना इटली के प्रति सहानुभूतिपूर्ण भी कभी नहीं रही थी। इनमें परस्पर झगड़े का कोई कारण नहीं था। फिर भी इटली की मित्रता को तत्कालीन राजनीतिक स्थिति में महत्तवपूर्ण समझकर बिस्मार्क ने फंदा फेंककर इटली को सन्धि के लिए आकर्षित कर लिया था।
इटली का सन्धि में सम्मिलित होने के कारण
इटली का सन्धि में सम्मिलित होने के कारण निम्नलिखित थे--
1. एकीकरण के बाद इटली अपनी गिनती यूरोप के शक्तिशाली देशों में चाहता था। यह कार्य किसी प्रमुख शक्तिशाली देश से मित्रता द्वारा ही संभव हो सकता था। यह मित्रता तत्कालीन परिस्थितियों में जर्मनी और ऑस्ट्रिया की मित्रता से ही संभव थी। यूरोप में गौरवपूर्ण स्थिति प्राप्त करने के लिए इटली का झुकाव बिस्मार्क की ओर हो गया।
2. इटली राज्य विस्तार की अपनी महत्वाकांक्षा तथा औपनिवेशिक विस्तार के लिए जर्मनी का सहयोग चाहता था।
3. ऑस्ट्रिया भी इटली से सहयोग चाहता था, क्योंकि ऑस्ट्रिया जानता था कि रूस द्वारा ऑस्ट्रिया पर आक्रमण की स्थिति में इटली ऑस्ट्रिया की पीठ पर वार कर सकता है।
4. सन् 1881 में ट्यूनिस के मामले में जर्मनी ने फ्रांस को प्रोत्साहित किया था। बांडों की सन्धि 1881 द्वारा ट्यूनिस पर फ्रांस का अधिकार हो गया और इटली में उत्तेजना व्याप्त हो गई। रोम में यह भावना दृढ़ हो गई कि इटली को जर्मनी, ऑस्ट्रिया तथा इंग्लैण्ड से मित्रता स्थापित कर लेना चाहिए। इटली यूरोपीय राजनीति में अकेलापन महसूस कर रहा था।
सन् 1881 में ही इटली ने अपनी पृथकता समाप्त कर जर्मनी की ओर मित्रता का हाथ बढ़ाया था। किन्तु इटली का विदेशा मंत्री रोबिका इसमें बाधक बन गया था। सन् 1882 में सम्राट विलियम द्वितीय भी इटली से सन्धि के पक्ष में था। अनुकूल परिस्थितियो में बिस्मार्क ने ऑस्ट्रिया के विदेश मंत्री को सन्धि के लिए इटली से बातचीत आगे बढ़ाने के लिए परामर्श दिया। ऑस्ट्रिया से मतभेद होकर भी परिस्थितिवश इटली ने समझौता कर लिया। यह उचित ही कहा गया है कि ‘‘वर्लिन की ओर जाने वाले द्वार की चाबी वियना है।‘‘ परिणामस्वरूप ऑस्ट्रिया-जर्मनी तथा इटली में त्रि-राष्ट्र सन्धि पारित हो गई।
सन्धि की शर्ते
त्रि-राष्ट्रीय संधि की निम्नलिखित शर्ते थी--
1. यदि इटली पर फ्रांस आक्रमण करे तो जर्मनी और ऑस्ट्रिया इटली की सहायता करेंगे, और यदि फ्रांस जर्मनी या ऑस्ट्रिया पर आक्रमण करे तो इटली भी उन्हें सहायता करेगा।
2. यदि सन्धि करने वाले देश पर दो शक्तियां मिलकर आक्रमण करें तो बाकी दोनों देश उसकी सहायता करेंगे। यदि कोई भी एक देश इन तीनों राष्ट्रों में से किसी पर आक्रमण करेगा तो बाकी दोनों देश तटस्थ रहेंगे।
3. व्यावहारिक रूस से इस सन्धि में कहा गया था कि फ्रांस का आक्रमण होने पर तीनों देश एक-दूसरे की सहायता करेगें, सिवाय इसके कि ऑस्ट्रिया ऐसा होने पर जर्मनी की सहायता नहीं करेगा।
4. इटली ने रूस द्वारा ऑस्ट्रिया पर हमला करने पर तटस्थ रहने का वायदा किया तथा रूस और फ्रांस दोनों के आक्रमण करने की स्थिति में सहायता करने का वचन दिया। इस सन्धि का उद्देश्य शान्ति को बनाए रखना तथा राजतन्त्र को मजबूत बनाना था। ऑस्ट्रिया ने इटली की अखण्डता मान ली।
5. यह सन्धि पांच वर्ष के लिए की गई थी और इसकी शर्ते गुप्त रखी गई। इन्हें प्रथम महायुद्ध के समय प्रकाशित किया गया।
4. रूमानिया के साथ सन्धि
जब 1881 ई. में ऑस्ट्रिया और सर्बिया की सन्धि हुई तो इस सन्धि ने सर्बिया को आस्ट्रिया का संरक्षित राज्य बना दिया। 1883 ई. में रूमानिया के राजा केरोल के जर्मनी आगमन पर बिस्मार्क ने आस्ट्रिया के सम्मुख रूमानिया के साथ सन्धि का प्रस्ताव रखा। ऑस्ट्रिया के इस प्रस्ताव के स्वीकार कर लेने पर तीनों देशों के मध्य एक सन्धि हो गई। इस गुप्त सन्धि का कार्यकाल 5 वर्ष था, परन्तु तीनों सदस्यों की सहमति से यह तीन-तीन वर्ष के लिए बढ़ाई जा सकती थी।
5. त्रिराज्य सन्धि की पुनःस्थापना
जर्मनी ने फ्रांस के तथा ऑस्ट्रिया ने रूस के आक्रमण के भय से उत्पन्न संकटपूर्ण स्थिति के कारण 1882 ई. में इटली से की गई त्रिराज्य सन्धि की पुनरावृत्ति की। 1887 ई. की इस पुनरावृत्ति में कुछ नई धाराएं भी जोड़ दी गई-
1. भविष्य में टर्की साम्राज्य का यदि विभाजन होगा तो इटली की क्षतिपूर्ति की जायेगी।
2. ऑस्ट्रिया तथा जर्मनी ने बाल्कान प्रदेशों में इटली के हित को स्वीकार किया।
3. ऑस्ट्रिया ने आवश्यकता पड़ने पर इटली को अपनी सेना ऑस्ट्रिया से ले जाने की अनुमति दे दी।
4. इटली, दक्षिणी अफ्रीका में औपनिवेशिक साम्राज्य स्थापित कर सकता है। इस विस्तार में जर्मनी तथा ऑस्ट्रिया उसकी सहायता करेंगे।
6. बिस्मार्क और इंग्लैण्ड सन्धि
इंग्लैण्ड की सद्भवना को यथासम्भव न खोया जाये इस नीति पर चलते हुए बिस्मार्क ने इंग्लैण्ड से सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध बनाने के लिए निम्नलिखित कार्य किएः-
1.‘जर्मनी विस्तारवादी देश नहीं है।‘ बिस्मार्क की इस घोषणा से साम्राज्यवादी इंग्लैण्ड के साथ जर्मनी की प्रतियोगिता का प्रश्न समाप्त हो गया।
2. उपनिवेशों की स्थापना की ओर ध्यान न देने से बिस्मार्क इंग्लैण्ड़ की औपनिवेशिक प्रतिद्वन्द्विता से दूर रहा।
3. बिस्मार्क ने जहाजी बेड़े का निर्मार्ण नहीं किया।
4. इंग्लैण्ड़ की पूर्वी समस्या के प्रति सावधानी देखकर बिस्मार्क इस समस्या के प्रति उदासीन हो गया, जिससे दोनों देशों के बीच कटुता का प्रश्न समाप्त हो गया।
5. इंग्लैण्ड़ से मधुर सम्बन्ध बनाये रखने हेतु बिस्मार्क ने अपने पुत्र की इंग्लैण्ड़ में राजदूत नियुक्त किया।
6. बिस्मार्क ने इंग्लैण्ड़ के साथ दो बार संधि का प्रस्ताव रखा, परन्तु यूरोपीय गुटबन्दी से दूर रहते हुए इंग्लैण्ड़ ने विनतापूर्वक सन्धि के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।
अपने इन कार्यो से इंग्लैण्ड़ के प्रति आश्वस्त होकर 1885 ई. में बिस्मार्क ने कहा था। ‘‘जब तक इंग्लैण्ड़ में अप्रत्याशित प्रकृति का मन्त्रिमण्डल सत्ताधारी न बन जायें, तब तक दोनों देशों के बीच युद्ध की कोई सम्भावना नहीं हो सकती।‘‘
बिस्मार्क की औपनिवेशिक नीति
ब्रिटेन के अलावा यूरोप के समस्त राज्यों में 1870 ई. के बाद से ही औपनिवेशिक युग का आरम्भ हुआ। उपनिवेश स्थापना राष्ट्रीय गौरव का प्रश्न था। जर्मनी में भी उपनिवेशा स्थापना की मांग तीव्रतर होती जा रही थी। जर्मनी की बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए, धर्म प्रचारकों के अपने-अपने धर्म प्रचार के लिए नए बाजारों की उपलब्धता हेतु उपनिवेशों की स्थापना आवश्यक थी। लोकमत की अवहेलना करनें में असमर्थ बिस्मार्क ने 1879 ई. में समोआ द्वीप में जर्मन कम्पनी को कुछ विशेषाधिकार प्रदान करते हुए 1882 ई. में जर्मन औपनिवेशिक संघ की स्थापना की। इस संघ की स्थापना के बाद अन्य कम्पनियों ने भी राजकीय सहायता प्राप्त कर पूर्वी अफ्रीका, दक्षिणी-पश्चिमी अफ्रीका, उत्तरी अफ्रीका, कैमरून, टोगोलैण्ड तथा न्यूगायना में उपनिवेश स्थापित किए। 1886 ई. में बिस्मार्क ने इन उपनिवेशों के मध्य स्टीमर सेवा प्रारम्भ करते हुए जर्मन पदाधिकारियों तथा पूलिस की नियुक्ति की।
बिस्मार्क की औपनिवेशिक नीति के सम्बन्ध में प्रो. टेलर का कथन," जर्मनी के उपनिवेशों का आर्थिक एंव सामाजिक दृष्टि से कोई महत्तव नहीं था। ब्रिटेन के विरूद्ध युद्ध होने की स्थिति में ही उनका सामरिक महत्त्व हो सकता था।"
इस दृष्टिकोण में बिस्मार्क की औपनिवेशिक नीति सफल नहीं की जा सकती।
कोई टिप्पणी नहीं:
Write commentआपके के सुझाव, सवाल, और शिकायत पर अमल करने के लिए हम आपके लिए हमेशा तत्पर है। कृपया नीचे comment कर हमें बिना किसी संकोच के अपने विचार बताए हम शीघ्र ही जबाव देंगे।