ऋग्वैदिक काल
rigvaidik kal samajik aarthik arthik bharmik rajnitik jivan;1500 ई. पू. से 200 ई. पू. तक के इतिहास को वैदिक युग के नाम से जाना जाता है। वेदों की संख्या चार है-- 1. ॠग्वेद, 2. यजुर्वेद, 3. सामवेद, 4. अर्थर्ववेद।
इन वेदों मे प्राचीनतम वेद ॠग्वेद है। अतः वैदिक काल मे प्रारम्भिक युग को ऋग्वैदिक काल कहा जाता है। शेष तीनों वेद उत्तरवैदिक काल मे रचित हुए।
ॠग्वैदिक काल का सामाजिक जीवन (rigvaidik kal ka samajik jivan)
ऋग्वेद ग्रन्थ से इस काल की सामाजिक व्यवस्था पर व्यापक प्रकाश पड़ता है।
1. परिवार
आर्यों के सामाजिक जीवन का भुख्य आधार परिवार हुआ करता था। ऋग्वैदिक काल मे परिवार पितृसत्तात्मक हुआ करता था मतलब किसी भी परिवार का मुखिया उस परिवार का सार्वाधिक आयु वाला पुरूष हुआ करता है। परिवार समाज की सबसे छोटी इकाई थी। इस काल मे सामूहिक परिवार की प्रणाली प्रचलित थी। परिवार मे गृह-पत्नी का विशेष महत्व और आदर किया जाता था।
2. भोजन
ऋग्वैदिक काल मे लोग दूध और दूध से बनी हुए वस्तुओं के सेवन के विशेष शोकिन थे। आर्यों के भोगन मे गेहूँ, जौ, चावल, दूध-दही और घी आदि मुख्य थे। इस काल मे लोग माँसाहारी भी थे। पेय पदार्थ मे सोमरस का प्रचलन था।
3. वर्ण व जाति व्यवस्था
वैदिक काल मे समाज (आर्य और अनार्य) दो वर्गों मे विभाजित था। पुरूष सुक्त मे चार वर्णों का उल्लेख मिलता है। इसके मुताबिक आदि पुरुष के मुख से ब्राह्राण, भुजाओं से क्षत्रिय, जांघों से वैश्य तथा चरणो मे शुद्र पैदा हुए है। इस तरह वर्ण व्यवस्था का उल्लेख मिलता है, लेकिन जाति मे जटिलता नही आई थी। एक सुक्त मे उल्लेख किया गया है कि मै एक कवि हूँ, मेरा पिता वैद्य है और मेरी माता अनाज पीसने वाली है। यह जन्म पर नही बल्कि कर्म पर आधारित थी।
4. वेश-भूषा तथा प्रसाधन
आर्यों की वेश-भूषा साधारण थी। आर्य सूती, ऊनी तथा रंग बिरंगे कपड़े पहनते थे। आर्यों की पोशाक मे प्रारंभ मे मुख्य दो वस्त्र होते थे। वास जो शरीर के नीचे वाले भाग पर पहना जाता था तथा अधिवास जो शरीर के ऊपर वाले भाग पर पहना जाता था। आभूषण स्त्री व पुरूष समान रूप से पहनते थे।
5. विवाह तथा स्त्रियां
ऋग्वैदिक समाज मे विवाह एक धार्मिक एवं पवित्र कार्य माना जाता था। विवाह के बिना जीवन अपूर्ण माना जाता था। हालांकि ऋग्वैदिक काल मे स्त्रियों का स्थान सम्माननीय था पर वे अपने पति पर आजीवन आश्रित रहती थी व कन्या का जन्म अशुभ माना जाता था। जनसाधारण मे एक से अधिक विवाह करने की प्रथा प्रचलित नही थी, लेकिन राजवंशों मे बहु विवाह की प्रथा प्रचलित थी।
6. शिक्षा
विद्यार्थियों को गुरू के आश्रम मे शिक्षा पाने के लिए भेजा जाता था। अल्लेकर के शब्दों मे," शिक्षा का मुख्य उद्देश्य धार्मिक एवं साहित्यिक शिक्षा प्रदान करना था जिसके द्वारा आर्य-संस्कृति का प्रचार हो सके।"
7. आमोद-प्रमोद के साधन
ऋग्वैदिक काल के लोगो का मनोरंजन का प्रमुख साधन नृत्य और संगीत था। रथदौड़, घुड़दौड़, द्यूतक्रीड़ा तथा आखेट भी इनके मनोरंजन के साधन थे।
8. औषधि
ऋग्वेद मे चिकित्सकों का उल्लेख भी है। जड़ी-बूटियों का औषधियों के रूप मे उपयोग किया जाता था।
ॠग्वैदिक काल का आर्थिक जीवन/दशा (rigvaidik kal ki aarthik disha)
1. उद्योग धंधे
आर्यों की प्रारंभिक अवस्था मे छोटे-छोटे उद्योग घरों मे चलाये जाते थे। बढ़ई, रथकार, लुहार, चर्मकार आदि प्रमुख लघु उद्योग करते थे। ऋग्वैदिक काल मे सभी व्यवसाय करने वाले लोगों का सम्मान होता था।
2. व्यापार
पूर्ण वैदिक काल मे आन्तरिक तथा बाहारी दोनों तरह के व्यापार प्रचलित थे। नापतौल की व्यवस्था भी थी। व्यापार प्रायः वस्तु विनिमय प्रणाली से होता था। ज्यादा लाभ के लिए अन्य देशों से व्यापार करने का भी ऋग्वेद मे वर्णन मिलता है।
3. कृषि
ऋग्वैदिक काल के लोगो का प्रमुख व्यवसाय कृषि था। हल व बैलों का उपयोग खेती के लिए किया जाता था। दरांती से फसल काटने का उल्लेख ऋग्वेद मे है। भूमि की उर्वरता बढ़ाने हेतु खाद का प्रयोग भी करते थे। भूमि की सिंचाई की भी व्यवस्था होती थी। गेहूं, जौ, चावल आदि वस्तुओं की खेती होती थी।
4. पशुपालन
आर्यों का एक प्रमुख व्यवसाय पशुपालन था। बैल, भेड़, बकरी, गाय, भैंस, घोड़ा जानवर पाले जाते थे। खेती हेतु भी पशुपालन का विशेष महत्व था। पशुओं मे गाय का स्थान महत्वपूर्ण था। गाय का प्रयोग क्रय-विक्रय हेतु किया जाता था।
5. आखेट
ऋग्वैदिक काल के लोग अपने जीवन निर्वाह तथा पशुओं की रक्षा के लिए शिकार भी किया करते थे।
ऋग्वैदिक काल का धार्मिक जीवन (rigvaidik kal ka bharmik jivan)
ऋग्वैदिक काल मे आर्यों के धर्म का आधार प्रकृति-पूजा था। उनका धर्म बहुदेववाद पर आधारित था। उनके प्रमुख देवता थे-- पृथ्वी, अग्नि, सोम (चंद्र), बृहस्पति, इन्द्र, वायु, मारूत, वरूण, मित्र (सुर्य), उषा आदि। इन देवताओं मे वरूण, इन्द्र, सोम और सुर्य को विशेष महत्व प्राप्त था। ऋग्वेद मे इन्द्र की स्तुति सबसे अधिक की गई है। वह एक शक्तिशाली देवता थे जिनका मुख्य आयुध वज्र है। वरूण और अग्नि देव को भी स्तुति से प्रसन्न किया जाता था।
आर्यों मे देवताओं को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ, आहुति और पशु बलि को भी महत्व दिया गया था। किन्तु कार्यों के लिए पुरोहितों या ब्राह्राणों की उपस्थिति अनिवार्य नही थी। गृहपति ही इन कार्यों को संपन्न कर सकता था। इस प्रकार ॠग्वेदिक कालीन धर्म प्रकृति के निकट, सीधा और सरल था। स्तुति और प्रार्थना के द्वारा ही देवताओं को प्रसन्न किया जाता था। ऋग्वेद कालीन धर्म की कुछ अन्य विशेषताएं संक्षेप मे इस प्रकार है--
1. आर्यों मे बहुदेववाद था और उनके देवताओं की संख्या 23 थी।
2. ऋग्वेद मे कुछ देवियों की भी स्तुति की गयी है। ये है-- उषा देवी, अदिति, आख्यानी और सरस्वती। किन्तु पुरूष देवताओं की प्रधानता थी।
3. देवी-देवताओं की कल्पना मानव के रूप मे की गई है।
4. मूर्ति पूजा का सर्वथा अभाव था।
5. ऋग्वैदिक युग के अंतिम दिनों मे बहुदेववाद के साथ ही यह धारणा दृढ़ हो गई थी कि एक सर्व शक्तिमान सत्ता विद्यमान है और समस्त जगत या ब्राह्मण्ड उसी सर्वशक्तिमान (ईश्वर) की सृष्टि है। इस प्रकार ऋग्वेद काल मे ही एकेश्वरवाद का आविर्भाव हो चुका था।
ॠग्वैदिक काल मे राजनीतिक जीवन (rigvaidik ka rajnitik jivan)
पूर्व वैदिक काल अथवा ऋग्वैदिक काल के राजनीतिक जीवन की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह थी कि इस काल मे आर्यों को यहाँ रहने वाले द्रविड़ो अथवा अनार्यों से युद्ध करने पड़े और अपने राज्य स्थापित करने के लिए प्रबंध करना पड़ा। इस संघर्ष के साथ-साथ आर्यों ने अपनी राजनीतिक इकाइयों तथा संगठन को सुदृढ़ बनाया।
आर्यों के राज्य विभिन्न राजनीतिक इकाइयों मे विभाजित थे। सबसे छोटी इकाई "ग्राम" कहलाती थी। ग्राम के प्रमुख अधिकारी को "ग्रामणी" कहा जाता था। अनेक ग्रामों के समूह को "विश" कहते थे और उसके प्रमुख अधिकारी को "विशपति" कहा जाता था। अनेक विशों के समूहों को "जन" या "जनपद" कहा जाता था। जन के प्रधान को "राजन" या "राजा" कहा जाता था। आर्यों के सारे प्रदेश को "राष्ट्र" कहा जाता था।
ऋग्वैदिक काल मे शासन का स्वरूप "राजतन्त्रात्क" था। सामान्यतः "राजा" वंश परम्परानुसार नियुक्त किया जाता था तथापि राजा के निर्वाचित किये जाने का भी कहीं-कहीं उल्लेख मिलता है। राजा निरंकुश या स्वेच्छाचारी नही हो सकता था। राज्याभिषेक के समय राजा को यह शपथ लेनी पड़ती थी कि वह जनता के हितों की रक्षा करेगा। अयोग्य राजा को पदच्युत या निर्वासित भी किया जा सकता था।
राजा का नैतिक आदर्श और कर्तव्य-भावना अत्यन्त उच्चकोटि की थी। राज्य मे होने वाले प्रत्येक अत्याचार और प्रत्येक अव्यवस्था के लिए राजा अपने आपको उत्तरदायी मानता था। वह एक पिता के समान अपनी प्रजा की रक्षा और पालन करता था, बाहारी आक्रमणों और शत्रुओं से अपनी प्रजा की रक्षा करना राजा का सबसे बड़ा कर्तव्य माना जाता था। शांति के समय वह यज्ञ, अनुष्ठान और धार्मिक उत्सवों मे भी भाग लेता था। इस प्रकार लोकहित राजा का सबसे बड़ा आदर्श हुआ करता था। प्रशासन की दृष्टि से राजा राज्य का सर्वोच्च अधिकारी और न्यायाधीश होता था। किन्तु वह किसी भी प्रकार से स्वेच्छाचारी नही हो सकता था।
राज्य के अधिकारी
"पुरोहित", "सेनानी" और "ग्रामीणी" राजा के प्रमुख अधिकारी थे। पुरोहित राजा का नैतिक परामर्शदाता धार्मिक कार्य संपन्न करता था। उसे उच्च सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त थी। वशिष्ठ और विश्वामित्र जैसे ॠषि राज्यों के पुरोहित पद पर नियुक्त किये जाते थे। सेनानी सेना का प्रधान होता था। वह सेना का संगठन करके राजा की अनुपस्थिति मे सेना का नेतृत्व करता था। ग्रामीण ग्राम मे राजा का प्रमुख सैनिक और असैनिक अधिकारी था। इन अधिकारियों के अलावा दुर्गपति, गुप्तचर, उपस्थित आदि अन्य अधिकारी भी होते थे।
न्याय और दण्ड
राजा स्वयं न्याय देने वाला सर्वोच्च अधिकारी होता था। छोटे-छोटे अपराधों और अभियोगों का निर्णय ग्रामों की पंचायतें करती थीं। चोरी, डकैती, पशु-चोरी इत्यादि अपराधों के लिए शारीरिक दण्ड देने की प्रथा थी। कहीं-कहीं बन्दी-गृहों का भी उल्लेख मिलता हैं। अधिक जुर्माना भी किया जाता था।
सैन्य व्यवस्था
सामान्यतः पदाति सेना या पैदल सैनिक होते थे। उच्च अधिकारी रथों का प्रयोग करते थे। युद्ध मे अश्वों का प्रयोग भी होता था। ऋग्वेद काल के प्रमुख शस्त्र थे-- तीरकमान, तलवार और भाला। सैनिक कवच और ताँबे की टोपी भी पहनते थे।
सभा और समिति
पूर्व वेदिक काल मे शासन को लोकतान्त्रिक स्वरूप प्रदान करने के तथा राजा का नियंत्रण रखने के उद्देश्य से "सभा और समिति" नामक संस्थाओं का आरंभ हुआ। समिति आर्यों की जनसभा और एक विशाल आकार की सभा थी, जबकि सभा राजा की सहायता के लिए एक छोटी परिषद् थी। समय-समय पर महत्वपूर्ण मामलों मे सभा और समिति की सलाह ली जाती थी और राजा उनकी बैठकों मे उपस्थित होता था।
राजतन्त्रात्मक राज्यों के अतिरिक्त ऋग्वैदिक काल मे कहीं-कहीं ऐसे राज्यों का भी उल्लेख किया है जिन्हें "गणराज्य" तथा "कुलीनतन्त्र" पुकारा जा सकता है, किन्तु ऐसे राज्यों की संख्या बहुत कम थी।
सम्बंधित लेख
आपको यह जरूर पढ़ना चाहिए; इतिहास का अर्थ, परिभाषा, महत्व
आपको यह जरूर पढ़ना चाहिए; इतिहास का क्षेत्र व स्वरूप
आपको यह जरूर पढ़ना चाहिए;प्रागैतिहासिक काल का क्या अर्थ है
आपको यह जरूर पढ़ना चाहिए;हड़प्पा या सिंधु सभ्यता क्या है? खोज, विस्तार क्षेत्र
आपको यह जरूर पढ़ना चाहिए; सिंधु या हड़प्पा सभ्यता के पतन के कारण
आपको यह जरूर पढ़ना चाहिए; जैन धर्म के सिद्धांत/आदर्श, शिक्षाएं या विशेषताएं
आपको यह जरूर पढ़ना चाहिए;बौद्ध धर्म के सिद्धांत/आदर्श, शिक्षाएं या विशेषताएं
Rastiye or misan par tipadi
जवाब देंहटाएंKuch achha nahi likha huaa h
जवाब देंहटाएंanswer is so small for collage
जवाब देंहटाएं