1/31/2021

राजस्व का महत्व, प्रकृति

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राजस्‍व का महत्‍व (rajaswa ka mahatva)

राजस्‍व का महत्‍व  इस प्रकार है--

1. आर्थिक विकास की तेज गति

देश के हर क्षेत्र में फिर चाहे वह सामाजिक क्षेत्र हो या कृषि क्षेत्र हो या फिर वो व्‍यापार का क्षेत्र हो व कल्‍याणकारी क्षेत्र हो, इन सब में तेज गति से विकास हो रहा है। देश में उत्‍पादन की क्षमता अधिक बढ़ रही है और साथ में कृषि की मात्रा में भी वृद्धि हो र‍ही है तथा सामाजिक व कल्‍याणकारी कार्यों में वृद्धि हुई है। देश में तेज गति से निर्माण कार्य  चल रहे है। वह राजस्‍व व आर्थिक विकास के महत्‍व को स्‍पष्‍ट करता है।

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2. पूँजी निर्माण दर में वृद्धि 

अभी कुछ वर्षों  में पूँजी निर्माण की दर में वृद्धि हुई है, इस वृद्धि के पिछें देश के कुशल राजस्‍व का हाथ था। अच्‍छे राजस्‍व के कारण ही देश का विकास संभव  हो पाया है।

3. समाजवादी समाज की स्‍थापना

देश में समाजवादी समाज की स्‍थापना तभी मुमकीन हो सकती है, जब राजस्‍व के महत्‍व को  समझकर कुशल राजस्‍व नीतियों का उपयोग किया जाए। राजस्‍व के महत्‍व को जाने बिना हमारा समाजवादी समाज की स्‍थापना  का लक्ष्‍य पूर्ण होना नमुमकिन है।

4. संपत्ति के स्‍वामित्‍व में परिवर्तन

मृत्‍यु कर, संपत्ति कर, उपहार कर आदि में वृद्धि करके संपत्ति के स्‍वामित्‍व में परिवर्तन किया  सकता है।

5. रोजगार में वृद्धि

सरकार सार्वजनिक खर्च से रोजगार में वृद्धि कर सकती है। नये उद्योगों  की स्‍थापना, राहत कार्य, निजी उद्योगपति‍यों को  प्रोत्‍साहन ऋणों से  विकास योजना का प्रारंभ  करके रोजगार में वृद्धि की जा सकती है।

6. साधनों के वितरण पर नियंत्रण

सरकार राजस्‍व नीतियों से आवश्‍यक एवं हितकारी क्षेत्रों  व व्‍यवसाय के साधनों के वितरण को प्रोत्‍साहित कर सकती है। जब कि‍ अलाभकारी व  अनावश्‍यक क्षेत्रों में साधनों पर हस्‍तांतरण  के करों द्वारा  रोक लगा सकती है।

7. व्‍यापार चक्रों से मुक्ति

राज्‍य वित्‍तीय क्र‍ियाओं से आर्थिक मंदी व तेजी से होने वाले दुष्‍प्रभावों  को रोक सकता है आर्थिक मंदी में बेरोजगारी को कम करने में सार्वजनिक व्‍यय लाभप्रद रहा। तेजी पर काबू पाने में भी उपयोग पर करारोपण बचत का बजट उत्‍पादन में वृद्धि को करो में छुट आादि कम की जा सकती है।

8. आर्थिक स्थिरीकरण

सार्वजनिक वित्‍त की नीति से आर्थिक क्षेत्र में स्‍थायित्‍व स्‍थापित किया जा सकता है  यह राजस्‍व का एक महत्‍वपूर्ण अंग है। विदेशी विनिमय  पर नियंत्रण, आन्‍तरिक मूल्‍यों में स्थिरता, पूर्ण रोजगार राजकोषीय नीति के प्रमुख उद्धेश्‍यों में सम्मिलित है।

9. सामाजिक क्षेत्र में महत्‍व

सामाजिक क्षेत्र  की अस्‍त-व्‍यस्‍तता के लिए आर्थिक कारण ही अधिक उत्‍त्‍रदायी है, समाज में व्‍याप्‍त असंतोष तथा वर्ग-संर्घष बहुत  कुछ आर्थिक असमानता के कारण है। समाज के विभिन्‍न वर्गों में अधिक असामनता को दूर करने के लिए धनिकों पर उच्‍च कर तथा गरीबों  की सहायता, खर्च  आादि सर्वजनिक वित्‍त व्‍यवस्‍था में कम किया जा सकता है। इससे सामाजिक असमानता और प्रगति के समान अवसरों से सामाजिक न्‍याय प्राप्‍त हो सकता है। हानिकारक व नशीली वस्‍तुओं पर उच्‍च्‍य कर लगाकर उनके उपयोग से उत्‍पन्‍न सामाजिक बुराईयों को कम किया जा सकती है। निर्धनों की सहायता के लिए अधिकाधिक खर्च करके वर्ग-संर्घष को मिटाने में योग मिल सकता है। सामाजिक  कल्‍याण सामाजिक व वर्ग-संर्घष के समापन के लिए महत्‍वपूर्ण है।

10. उद्यौगिक ढ़ाचें में परिवर्तन

करारोपण या सार्वजनिक व्‍यय से सरकार उद्यौगिक ढ़ाचें में परिवर्तन ला सकती है। शिशु उद्योंगो को संरक्षण प्रदान कर विदेशी प्रतियोगिता से उन्‍हें बचा सकती है। सार्वजनिक उपक्रमों का विकास  कर सकती है और साधनों का ऐसा उद्योगों में विनियोग बढ़ा सकती है जो देश के हित में हो। नये-नये उद्योगों को करो से छूट देकर प्रोत्‍साहित किया जा सकता हैं।

राजस्व की प्रकृति (rajaswa prakriti)

राजस्‍व की  प्रकृति के बारें में  विभिन्‍न  विचारों का जन्‍म हुआ है। सेलिगमैन एवं उनके अनुयायियों का मत है  की  राजस्‍व जन कल्‍याण के विचारों को ध्‍यान मे रखे बिना सार्वजनिक व्‍यय, सार्वजनिक आय व सार्वजनिक ऋण की समस्‍याओं का अध्‍ययन करता है। सामाजिक- राजनीतिक सिद्धांत के अनुसार, समाज में अधिकतम लाभ प्राप्‍त करने के लिए यह आवश्‍यक है  कि राज्‍य के द्वारा अमीरों की आय का एक भाग गरीबों को हस्‍तांततरित कर दिया जाय  तथा प्रशुल्‍क की मदद  से  संपत्ति के असमान वितरण  को दूर करना  होगा। नयें अर्थशास्‍त्र के जन्‍मदाता का विचार है कि पूँजीवादी अर्थशास्‍त्र ने भी देश को सुधारनें के लिए राज्‍य उपयोग का नियमन करके उसे प्रशुल्‍क नीति की सहायता व्‍यवस्थिर करता है राज्‍य ऐसे प्रशुल्‍क समायोजन करता है जिससे विनियोग  के प्रवाह में वृद्धि सम्‍भव हो सके। 

राजस्‍व की प्रकृति संबंधी प्रमुख विशेषताएं 

राजस्‍व की प्रकृति के सबंध में कुछ विचार धारा अग्र है-

1. सक्र‍िय वित्‍त का सिद्धांत

इस सिद्धांत के हिसाब से ही बचत एवं विनियोगों के कारण ही राष्‍ट्रीय आय बढ़ती है। राष्‍ट्रीय आय में कमी के कारण ही देश में बरीवी पाई जाती है अत: गरीबी दूर करने के लिए देश के साधनों का सही उपयोग करके समस्‍त विनियोगों को प्रभावकारी ढ़ंग से उपयोग करके देश  की राष्‍ट्रीय आय में वृद्धि की जा सकती है तथा  देश को समद्ध किया जा सकता है।

2. नवीन अर्थशास्‍त्र का सिद्धांत

इस सिद्धांत का  प्रतिपादन सबसे पहले किन्‍स और हैन्‍सन ने किया था। इसमें  यह आवश्‍यक है कि उपभोग में स्विामित्‍व लाया जाय और उसका उपयुक्‍त ढ़ंग से  नियमन करने के लिए  राजकोषीय  नीति के द्वारा  क्षतिपूरक कार्यवाही की जाय पूँजीवादी अर्थव्‍यवस्‍था में यह कार्य राज्‍य के द्वारा किया जाता है।

3. राजस्‍व का विशुद्ध सिद्धांत

इस सिद्धांत का प्रतिपादन  सेलिगमैन  द्वारा किया गया यह सिद्धांत सार्वजनिक आय व  सार्वजनिक व्‍यय तथा सार्वजनिक ऋण की  समस्‍या पर तटस्‍थ रूप से विचार करता है। इसमें ऐसा कोई अग्रह नही किया जाता है कि प्रशुल्‍क नीति का उद्धेश्‍य धन की असमानता को दूर करने से होना चाहिए।

4. सामाजिक राजनीतिक सिद्धांत

इसके समर्थकों में वैगनर एवं एजर्क्‍थ के नाम से प्रमुख है। इस सिद्धांत के अनुसार प्रशुल्‍क नीति का उद्धेश्‍य यह होना चाहिए कि अमीर लोगों से गरीब लोगों की और धन का हस्‍तांतरण किया जाय, जिससें समाज में अधिकतम सामाजिक कल्‍याण में वृद्धि मुमकिन हो सके।

5. क्रियाशीलता कर सिद्धांत

लर्नर ने राजस्‍व की  कीन्सियन  विचार धारा को क्रियाशील  वित्‍त का नाम दिया है।  इसका आशय उस पद्धति से लगाया जाता है जिससें प्रशुल्‍क उपायों का मूल्‍याकंन क्रियाशील कार्यों  के आधार पर हो। क्रियाशील वित्‍त के द्वारा सार्वजनिक व्‍यय एवं सार्वजनिक ऋणों में कमी लाकर मुद्रा की मात्रा को प्रभावित करके कुल मांग कों बढ़ानें के प्रयास किये जाते है।

6. राजस्‍व का प्रतिष्ठित सिद्धांत

इस सिद्धांत के अनुसार यह माना जाता है कि पूर्ति स्‍वयं अपनी मांग अर्जित करती है अत: कभी भी बेरोजगारी  व अति उत्‍पादन नही होगा। इससें पूर्ण रोजगार की कल्‍पना की गई है पूर्ण रोजगार की कल्‍पना के कारण राज्‍य अपनी आर्थिक  क्रियाएं बढ़ाने में असमर्थ रहता है।

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