मुद्रा का अवमूल्यन
avmulyan arth paribhasha uddeshya gun dosh prabhav ;किसी भी देश का भुगतान संतुलन दीर्घकालीन तक विपक्ष या असाम्य की स्थिति मे होना उसके लिए चिन्ताजनक बात मानी जाती है। भुगतान संतुलन की असाम्यता को ठीक करने का एक महत्वपूर्ण उपाय देश की विदेशी विनियम दर को कम करना है।
सरल शब्दों मे, अवमूल्यन से आशय जानबूझकर अपनी मुद्रा के बाह्रा मूल्य को कम करने से है। जब किसी देश का भुगतान संतुलन विपक्ष मे हो जाता है, तब वह देश अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करता है। इससे अवमूल्यन करने वाले देश की वस्तुएं विदेशों मे सस्ती हो जाती है, जिससे निर्यातों मे वृद्धि हो जाती है। इसके साथ ही विदेशी वस्तुएं उस देश के लिए महंगी हो जाती है जिससे आयात कम हो जाता है। इसके फलस्वरूप प्रतिकूल भुगतान शेष मे साम्य स्थापित हो जाता है।
अवमूल्यन की परिभाषा (avmulyan ki paribhasha)
ईविट के अनुसार," जब किन्ही कारणों से, दूसरे देश की मुद्रा की तुलना मे एक देश की मुद्रा की विनिमय दर घटाकर, उसके विनिमय मूल्य को सस्ता कर दिया जाता है तो इस प्रक्रिया को अवमूल्यन कहते है।"
पाल एनजिंग के अनुसार," अवमूल्यन का अर्थ मुद्राओं की अधिकृत समताओं मे कमी करने से है।"
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि मुद्रा के अवमूल्यन की स्थिति मे मुद्रा के बाह्रा मूल्य मे ही कमी की जाती है, किन्तु उसका आँतरिक मूल्य पूर्वानुसार ही रखते है। इस प्रकार अवमूल्यन के बाद देश के भीतर मुद्रा की क्रय शक्ति पहले जैसी हो रहती है लेकिन विदेशियों के लिए सस्ती हो जाती है। संक्षेप मे, देश की मुद्रा के बाह्रा मूल्य को कम करना अवमूल्यन कहलाता है।
मुद्रा के अवमूल्यन को एक उदाहरण की सहायता से स्पष्ट किया जा सकता है। भारत मे जून 1966 के अवमूल्यन से पूर्व भारतीय रूपये और अमेरिकी डॉलर की विनिमय दर 1 रूपये= 21 अमेरिकन सेंट थी। भारत सरकार द्वारा 6 जून, 1966 को भारतीय रूपये का 36.5 प्रतिशत अवमूल्यन किया गया। अवमूल्यन के बाद यह दर 1 रूपये = 13.3 सेंट हो गई। इस कारण भारत के लिए अमेरिका आयात महँगे तथा भारतीय निर्यात अमेरिका के लिए सस्ते हो गये।
दूसरे शब्दों मे, अवमूल्यन से भारत के आयात व्यय मे कमी आई। जबकि निर्यात आय मे वृद्धि हुई। इस प्रकार अवमूल्यन से किसी भी देश के भुगतान शेष की प्रतिकूलता कम होकर साम्य स्थापित होता है।
अवमूल्यन के उद्देश्य (avmulyan ki uddeshya)
अवमूल्यन निम्न उद्देश्यों से किया जाता है--
1. प्रतिकूल भुगतान-शेष मे सुधार
यदि किसी देश मे व्यापार शेष निरन्तर घाटा रहने से अथवा अदृश्य मदें प्रतिकूल से भुगतान-शेष प्रतिकूल बना रहता है और घाटा और अन्य उपायों द्वारा इसे दूर करना संभव नही होता तो अवमूल्यन का सहारा लेकर भुगतान शेष की प्रतिकूलता को दूर करने का प्रयत्य किया जाता है। अवमूल्यन से विदेशों मे देश के माल की कीमतें घट जाती है तथा अपने देश मे विदेशी माल की कीमतें बढ़ जाती है। इसके कारण आयात हतोत्साहित होते है एवं निर्यात प्रोत्साहित होते है जिससे भुगतान-शेष मे सुधार होता है।
2. अन्य देशों से व्यापारिक स्थिति बनाये रखना
अवमूल्यन इस उद्देश्य से भी किया जाता है कि अन्य देशों, जिन्होंने अपनी मुद्रा का अवमूल्यन कर दिया है, के साथ व्यापार संबंधी स्थिति को बनाये रखना। यही कारण है कि जब 1949 मे ब्रिटिन द्वारा स्टर्लिग पौण्ड का अवमूल्यन किया गया तब कामनवेल्थ के अन्य देशों ने भी अपनी मुद्राओं का अवमूल्यन कर दिया।
3. भूल-सुधार करना
यदि कोई देश भूल से अथवा बिना किन्ही पर्याप्त कारणों के अपने देश की मुद्रा के बाह्रा मूल्य को बहुत अधिक बढ़ा देता है तो इससे आयात बढ़ते है और निर्यात कम हो जाते है। इस स्थिति मे सुधार करने के लिए मुद्रा के बाह्रा मूल्य को कम कर दिया जाता है।
4. उद्योगों को संरक्षण
जब कोई देश राशिपातन का सहारा लेकर अपने निर्णतों को बढ़ाता है अथवा दामों मे कमी के फलस्वरूप वहां के निर्यात बढ़ते है तो जिस दूसरे देश मे माल का आयात किया जाता है वहां अवमूल्यन इसलिए कर दिया जाता है कि उक्त आयात हतोत्साहित हो सके और उस देश के उद्योगों को संरक्षण दिया जा सके।
5. क्रय-शक्ति से समन्वय
देश की मुद्रा की क्रय शक्ति मे परिवर्तन होने पर उसकी विनिमय दर को क्रय-शक्ति मे होने वाले परिवर्तनों के साथ समन्वित करने के उद्देश्य से भी अवमूल्यन किया जाता है।
6. विदेशी मुद्राओं की काला बाजारी को रोकना
अवमूल्यन के द्वारा एक देश की मुद्रा का मूल्य इसकी साम्य विनियम दर का पास लाया जा सकता है। इससे विदेशी मुद्राओं की कालाबाजारी को रोका जा सकता है। जैसे-भारतीय रूपये की विनिमय दर साम्य दर के जितने अधिक समीप होगी, अमेरिकन डाॅलर की कालाबाजारी उतनी ही कम होगी।
7. विदेशी विनियोग कर्ताओं को प्रोत्साहन
अवमूल्यन करने पर विदेशी मुद्रा का मूल्य देश की मुद्रा की तुलना मे बढ़ जाता है जिससे विदेशी निर्यातकों को अवमूल्यन करने वाले देश मे विदेशी पूंजी लगाने की प्रेरणा मिलती है। इसके परिणामस्वरूप अवमूल्यन करने वाले देश मे विदेशी पूंजी की क्रय शक्ति बढ़ जाती है।
अवमूल्यन के गुण-दोष अथवा प्रभाव
avmulyan gun dosh prabhav;मुद्रा अवमूल्यन का मुख्य उद्देश्य देश के निर्यातों को प्रोत्साहन देना तथा आयातों को हतोत्साहित करना होता है, किन्तु यह जरूरी नही है कि अवमूल्यन के ये ही प्रभाव होगे। इसका कारण यह है कि इन प्रभावों का पाया जाना निर्यात और आयात बाजारों मे मांग और पूर्ति की लोचों पर निर्भर करता है। भारत के संदर्भ मे देखने पर हम पाते है कि भारत मे अब तक तीन बार अवमूल्यन किया गया। सर्वप्रथम सितम्बर 1949 मे भारतीय रूपये का 30.5 प्रतिशत। इसके बाद जून 1966 मे रूपये का 36.5 प्रतिशत तथा जुलाई 1991 मे 20 प्रतिशत अवमूल्यन किया गया। भारत मे अवमूल्यन के बाद न ही निर्यातों मे उल्लेखनीय वृद्धि हुई और न ही आयातों मे कमी आयी। संक्षेप मे अवमूल्यन के मुख्य गुण-दोष इस प्रकार है--
अवमूल्यन के गुण
अवमूल्यन के विदेशी व्यापार पर सकारात्मक प्रभाव निम्न होते है--
1. अवमूल्यन से निर्यातों को प्रोत्साहन मिलता है अर्थात निर्यात बढ़ते है।
2. अवमूल्यन से आयात मँहगे हो जाते है जिससे आयातों मे कमी आती है।
3. अवमूल्यन से भुगतान संतुलन मे अनुकूलता आती है अर्थात प्रतिकूल भुगतान संतुलन की स्थिति मे सुधार होता है।
4. अवमूल्यन के माध्यम से विदेशी निवेश कर्त्ताओं को देश मे पूंजी निवेश करने हेतु प्रोत्साहित किया जा सकता है।
5. अवमूल्यन राशिपातन पर रोक लगाकर देशी उद्योग-धंधों को विदेशी प्रतिस्पर्धा से बचाकर संरक्षण प्रदान करता है।
6. मुद्रा अवमूल्यन से अनुचित व्यापार तरीकों तथा विदेशी मुद्राओं की कालाबाजारी रोकने मे मदद मिलती है।
अवमूल्यन के दोष
अवमूल्यन के विदेशी व्यापार पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव इस प्रकार है--
1. अवमूल्यन का मुख्य दोष यह है इससे विदेशी ऋण भार बढ़ जाता है। भारत मे जुलाई 1991 के अवमूल्यन के पूर्व विदेशी ऋण 1310 अरब डाॅलर था जो अवमूल्यन के बाद बढ़कर 1620 अरब रुपये हो गया था।
2. अवमूल्यन से आन्तरिक कीमत स्त, बढ़ जाता है क्योंकि आयतित वस्तुएं महँगी हो जाती है।
3. अवमूल्यन से निर्यातों मे वृद्धि तब तक संभव नही होती जब तक कि देश मे निर्यात योग्य अतिरेक न हो।
4. अवमूल्यन से आयातों मे कमी आने के बजाय वृद्धि होने की संभावना बनी रहती है, क्योंकि आयात महँगे होने के कारण आयात व्यय बढ़ जाता है।
5. अवमूल्यन से आर्थिक विकास की योजनायें भी प्रभावित होती है क्योंकि आयतित वस्तुएं तकनीकी ज्ञान व सेवाओं के लिए अधिक भुगतान करना पड़ता है। दूसरे शब्दों मे, अवमूल्यन से योजना लागत बढ़ जाती है।
6. अवमूल्यन से विदेशी सहायता देश के लिए महंगी हो जाती है क्योंकि उतनी ही विदेशी सहायता के लिए अवमूल्यन के बाद अधिक मूल्य देना पड़ता है।
निष्कर्ष रूप मे यह कहा जा सकता है कि किसी भी देश मे अवमूल्यन से लाभ उसी समय प्राप्त किये जा सकते है जब सजगतापूर्ण दृष्टिकोण अपनाया जाये। अवमूल्यन के मिश्रित प्रभाव होते है, अतः अवमूल्यन के पूर्व तथा उसके बाद पूर्ण सावधानी, संयम एवं जागरूकता बनाये रखना आवश्यक होता है।
अवमूल्यन की सफलता के लिए शर्तें
अवमूल्यन भुगतान असन्तुलन को दूर करने का एक महत्वपूर्ण उपाय है, लेकिन इसकी सफलता कुछ आवश्यक शर्तों पर निर्भर करती है, जिनका विवेचन इस प्रकार है--
1. निर्यात और आयात की इकाई से अधिक लोच
जैसा कि ऊपर के विश्लेषण मे अध्ययन किया गया, अवमूल्यन का भुगतान असन्तुलन पर अनुकूल प्रभाव तभी पड़ता है जब निर्यात एवं आयात की मांग की लांच इकाई से अधिक हो। यदि निर्यात तथा आयात की मांग की लोच इकाई से कम हो तो अवमूल्यन का भुगतान शेष पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।
2. निर्यातों की पर्याप्त पूर्ति
अवमूल्यन की सफलता के लिए दूसरी शर्त यह है कि जब अवमूल्यन से देश के निर्यात की मांग मे वृद्धि हो तो उनकी पूर्ति भी पर्याप्त होनी चाहिए अन्यथा अवमूल्यन का अनुकूल प्रभाव विफल होगा। इसके लिए देश को निर्यात बढ़ाने के सभी प्रकार के उपाय अपनाने चाहिए, जैसे निर्यात शुल्क को कम या समाप्त करना, निर्यात उद्योगों को सहायिकी (सब्सिडी) प्रदान करना आदि। निर्यात तभी प्रोत्साहित होगे यदि वस्तुएं सस्ती, बढ़िया और टिकाऊ हो। श्रम कानून, कीमत नियंत्रण, दुर्लभ औद्योगिक कच्चे माल का वितरण, राजकोष प्रोत्साहन प्रदान करना तथा कर सहायकियां इस प्रकार से समायोजित करने चाहिए कि ये निर्यात क्षेत्र मे सहायक हो और उसे प्रोत्साहित करें
3. दूसरे देश अवमूल्यन न करे
अवमूल्यन की नीति तभी सफल हो सकती है जबकि दूसरे देश अपनी मुद्राओं का अवमूल्यन न करें। एक देश द्वारा अवमूल्यन करने का प्रभाव दूसरे देशों पर भी पड़ता है। अवमूल्यन करने वाला देश अपने निर्यातों मे वृद्धि तथा आयातों मे कमी करने के उद्देश्य से कार्य करता है जिससे दूसरे देशों के निर्यातों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। अतः यदि अन्य देश की अपनी मुद्राओं का अवमूल्यन कर दें तो अवमूल्यन निष्प्रभावी हो जाता है।
4. स्थिर आन्तरिक कीमत स्तर
अवमूल्यन का भुगतान शेष पर अनुकूल प्रभाव तभी पड़ेगा यदि अवमूल्यन के बाद देश के अंदर स्तर स्थिर रहता है। जब अवमूल्यन होता है, तो निर्यात बढ़ते है और आयात महंगे हो जाते है। निर्यात बढ़ने से देश मे उपभोग वस्तुओं की कमी हो जाती है जिस कारण उनकी देश के अंदर कीमतें बढ़ने की प्रवृत्ति होती है। दूसरी ओर, आयातित वस्तुएं पहले से महंगी होने से उनके आयात पर रोक लगाई जाती है और केवल अत्यधिक आवश्यक वस्तुओं का आयात किया जाता है। इसका परिणाम उपभोग वस्तुओं, कच्चे माल, आदि की देश मे कमी होती है जिससे उनकी कीमते बढ़ाने की प्रवृत्ति हो जाती है। यदि ऐसी वस्तुएं निर्यात वस्तुओं के उत्पादन के लिए प्रयोग की जाती है, तो निर्यात पर बुरा प्रभाव पड़ेगा और अवमूल्यन के भुगतान-शेष पर अनुकूल प्रभाव समाप्त हो जाएंगे।
5. आयात प्रतिस्थापन वस्तुओं की उपलब्धता
देश के आयात व्यय मे अवमूल्यन के बाद होने वाली संभावित वृद्धि को रोकने के लिए देश मे ऐसी वस्तुओं के उत्पादन का प्रयास करना आवश्यक है जिन्हे बड़ी मात्रा मे आयात किया जाता है। आयात प्रतिस्थापन की वस्तुओं की उपलब्धता जितनी अधिक होगी उतना ही भुगतान संतुलन की असाम्यता को कम करना संभव होगा।
6. निवेश की स्वतंत्रता
देश मे उत्पादनकर्ताओं को पूंजी निवेश की पर्याप्त स्वतंत्रता प्रदान करना भी अवमूल्यन की सफलता के लिए एक आवश्यक शर्त है। इसके अभाव मे नवीन निर्यात उद्योगों की स्थापना पर बुरा प्रभाव पड़ता है। निवेश की स्वतंत्रता से उत्पादकों मे प्रतिस्पर्धा बढ़ती है जिससे उत्पादन क्षमता मे सुधार होता है तथा उत्पादन की लागतें घटती है। इस प्रकार देश मे नियंत्रणों मे कमी तथा प्रतियोगी वातावरण निर्मित करने पर ही निर्यात योग्य सामग्री उत्पादन मे वृद्धि की जा सकती है।
7. लोगों मे त्याग की भावना
अवमूल्यन की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि देश के लोगो मे त्याग की भावना हो। श्रमिकों को उत्पादकता बढ़ाने के लिए हड़तालों और झगड़ों से परहेज करना जरूरी है। आयात को कम किया जाए तथा निर्यात को बढ़ाने के लिए संसाधनों को घरेलू क्षेत्र से हटाकर निर्यात क्षेत्र मे लगाया जाए। लोगो को अच्छे रहन-सहन स्तर, निर्यात योग्य वस्तुओं तथा अनावश्यक विदेश यात्रा, आदि पर अपने व्यय को सीमित करना चाहिए।
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