प्रश्न; पंडिता रमाबाई के राजनीतिक चिंतन में योगदान के बारें में लिखिए।
अथव" पंडिता रमाबाई के राजनीतिक विचार बताइए।
अथवा" पंडिता रमाबाई के राजनीतिक के जीवन और समाज सुधार के कार्यों में उनके योगदान का वर्णन कीजिए।
उत्तर--
पंडिता रमाबाई (1852-1922) उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी के संधि-काल की प्रख्यात भारतीय विदुषी, समाज सुधारक और कार्यकर्त्ता थीं। उनका जन्म 23 अप्रैल को पश्चिमी महाराष्ट्र के गंगामल के जंगल में हुआ था।
रमाबाई के पिता अनंत शास्त्री डोगरे चितपावन ब्राह्ममण और गैर-परम्पराविरोधी थे। उन्होंने जब अपनी पत्नी को संस्कृत पढ़ाने का फैसला किया जिसे विधर्म (heretical) समझा गया तो उन्हें शक्तिशाली समुदाय के बंधु-बांधवों का क्रोध झेलना पड़ा। संस्कृत जो देवभाषा थी, केवल उच्च जाति के पुरुषों के लिए सुरक्षित थी।
उनके परत्परा विरोध के परिणामस्वरूप उन्हें समुदाय के बाहर रहना पड़ा और उन्होंने अपने परिवार के साथ देश में घूमने-फिरने तथा पौराणिक कथावाचक के रूप में दान के सहारे रहने का निर्णय किया। उनका जीवन इस अर्थ मे महत्वपूर्ण था कि ब्राह्ममणवादी जीवन शैली अपनाते हुए, उन्होंने इसके कुछ प्रमुख सिद्धान्तों को दृढ़तापूर्वक अस्वीकार कर दिया। रमाबाई ने दुख और कष्ट भरे उन कठिन दिनों में संस्कृत और पुराणों का अध्ययन किया। इस प्रकार अपने पिता से प्राप्त जीवन और विरासत पर विचार करते हुए ब्राह्ममणवाद से रमाबाई का अलगाव अनिवार्य था।
अपने माता-पिता के देहांत के बाद, रमाबाई उन्नीस वर्ष की आयु में 1878 में कलकत्ता चली गई। दिलचस्प बात यह है कि शहर के धार्मिक विशिष्ट वर्ग ने उन्हें वेदों और उपनिषदों का अध्ययन करने के लिए प्रोत्साहित किया जबकि महिलाओं के लिए ऐसा करना वर्जित था। उन्होंने संस्कृत भाषा और ग्रंथों पर अपनी प्रवीणता से शहर के धार्मिक विशिष्ट वर्ग को प्रभावित कर लिया तथा "पंडिता' (विदुषी) और "सरस्वती" (विद्या देवी) की उपाधि प्राप्त की। रमाबाई के शीघ्र ही पूरे बंगाल की यात्रा करके समाज सुधार कार्यक्रम आरंभ कर दिया और पौराणिक युग की शिक्षित तथा स्वतंत्र महिलाओं को आधार बनाकर शिक्षा और शक्ति की आवश्यकता के बारे में महिलाओं को अवगत कराया।
पंडिता रमाबाई ने भारतीय स्त्रियों के उत्थान के लिए बहुत महत्वपूर्ण कार्य किया। यह बात ध्यान देने की है कि पश्चिमी जगत में जब नारीमुक्तिवादी चिंतन की शुरुआत हुई, उसी के कुछ दशक बाद रमाबाई ने अपनी सूझ-बूझ से भारतीय नारी की दुर्दशा का मुद्दा उठाया, और न केवल उसके उद्धार की माँग की बल्कि उपयुक्त संस्थाएं स्थापित करके इस दिशा में ठोस योगदान भी किया। चूँकि रमाबाई का कार्यक्षेत्र भारत से लेकर इंग्लैण्ड और संयुक्त राज्य अमेरिका तक फैला था, इसलिए उन्होंने पाश्चात्य नारी की हीन स्थिति पर भी यथोचित चिंता व्यक्त की, और उसके अधिकार का मुद्दा भी उठाया हालांकि भारतीय नारी की तुलना में वह उतनी दयनीय नहीं थी। अतः पंडिता रमाबाई को भारत में जन्में नारीवाद या नारीमुक्तिवाद की प्रमुख उन्नायक मानना सर्वथा युक्तिसंगत होगा।
नारीमुक्तिवाद
नारीमुक्तिवाद वह आंदोलन तथा उससे जुड़ी विचारधारा है जिसका उद्देश्य स्त्रियों के प्रति हर तरह के भेदभाव का अंत करना है, ताकि सामाजिक जीवन में उन्हें पुरूषों के बराबर अधिकार तथा आत्मविकास के अवसर प्राप्त हों और राजनीतिक शक्ति में उपयुक्त हिस्सा मिल सके।
पंडिता रमाबाई ने भारत के जिस वातावरण में स्त्री-अधिकारों की बात उठाई, और उनके उद्धार की दिशा में जो कार्य किया, उसके लिए उन्हें समाज के रूढ़िवादी तत्त्वों और धर्म के ठेकेदारों के विस्तृत और कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। अतः जहाँ विदेशी लेखकों ने उनके बारे में बहुत-कुछ लिखा है, वहाँ भारत में समाज सुधार के इतिहास से उनका नाम ही हटा दिया गया। कुछ ही दशक पहले भारतीय लेखकों ने विदेशी स्त्रोतों के आधार पर पंडिता के जीवन-वृत्त, उनकी कृतियों और गतिविधियों के बारे में विस्तृत खोज करके, उनके योगदान पर प्रकाश डालने का प्रयत्न किया हैं।
रमाबाई का जन्म जन्म महाराष्ट्र के एक बुद्धिजीवी हिन्दू परिवार में हुआ। उनके पिता संस्कृत के प्रकांड पंडित थे जिन्होंने अपनी पत्नी और पुत्री को संस्कृत की शिक्षा देकर, और अपनी पुत्री को सार्वजनिक नेतृत्व का प्रशिक्षण देकर प्रचलित परम्परा को तोड़ दिया, क्योंकि उन दिनों ये क्षेत्र केवल पुरूषों के विशेषाधिकार का विषय माने जाते थे। धर्मशास्त्रों के अध्ययन से रमाबाई को पता चला कि समाज में अकारण ही स्त्रियों पर कितने कठोर प्रतिबंध लगे हुए थे। इससे वे स्त्रियों के साथ होने वाले अन्याय के प्रति सजग हो गई, और उन्होंने ब्राह्मण पितृतंत्र की आलोचना शुरू कर दी। स्वयं अपने जीवन में उन्होंने पितृतंत्र की मान्यताओं को प्रबल चुनौती दी क्योंकि उन्होंने संस्कृत की शिक्षा प्राप्त की; उपनिषदों का अध्ययन किया; देश और विदेश के बहुत सारे हिस्सों की यात्रा की। 1878 में जब उनकी आयु बीस वर्ष से भी कम थी, उन्होंने कलकत्ता (आज के कोलकाता) के सभ्य के समाज के सामने संस्कृत भाषा एवं ग्रंथों के गहरे ज्ञान का प्रदर्शन करके धूम मचा दी। इस पर वहाँ के गण्यमान्य विद्वानों ने उन्हें "पंडिता" की उपाधि प्रदान की।
भारत में शारदा सदन की स्थापना
10 अप्रैल, 1889 को उन्होंने मुंबई में एक गृह-सह-विद्यालय प्रारंभ किया और उसका नाम "शारदा सदन" रखा। महाराष्ट्र में यह पहला विधवा गृह था। इसके साथ ही उन्होंने महिलाओं को आश्रय देने के लिए "कृपा सदन" नाम से एक महिला आश्रम को स्थापित किया।
सन् 1900 में जब भीषण अकाल पड़ा तो रमाबाई और उनके सहायकों ने हजारों स्त्रियों की सहायता की। एक विद्यालय भी खोला जिसमें 400 बच्चों ने नर्सरी में एडमीशन लिया। अध्यापकों के प्रशिक्षण के लिए एक प्रशिक्षण केन्द्र भी खोला गया। इसके साथ ही एक औद्योगिक विद्यालय भी खोला गया। इसमें सिलाई, बुनाई तथा कढ़ाई भी पढ़ायी जाती थी।
पंडिता रमाबाई का समस्त जीवन महिलाओं के उद्वार के लिए समर्पित था। आत्मनिर्भरता की शिक्षक पंडिता रमाबाई के आश्रमों में अनाथ और पीड़ित महिलाओं को ऐसी शिक्षा दी जाती थी जिससे वे स्वयं अपनी जीविका चला सकें। उन्होंने एक मुक्ति मिशन प्रारंभ किया जो ठुकराई गई महिलाओं व बच्चों का आश्रय था। पंडिता रमाबाई मुक्ति मिशन आज भी सक्रिय हैं। पंडिता रमाबाई को उनके सामाजिक कार्यों तथा लोकप्रियता के कारण सन् 1919 में ब्रिटिश सरकार ने "कैसर-ए-हिन्द" की उपाधि से सम्मानित किया। रमाबाई के जीवन संघर्ष को देखते हुए शुक्रग्रह के एक क्रेटर का नाम रमाबाई मेधावी रखा गया। यूरोपियन चर्च के द्वारा 5 अप्रैल को उनकी याद में "फीस्ट डे" मनाया जाता हैं। भारत सरकार के द्वारा सन् 1989 में पंडिता रमाबाई की स्मृति में एक डाक टिकट भी जारी किया गया।
पितृसत्ता से संघर्ष; हिन्दू धर्म और ईसाई धर्म
रमाबाई द्वारा धर्मशास्त्रों के अध्ययन ने रमाबाई को उस तिरस्कार और अपमान से पूर्णतया परिचित कराया जिससे सभी जातियों की महिलाएँ और निम्न जाति के पुरूषों के साथ इन ग्रंथों में व्यवहार किया गया था। महिलाओं की तरह, शुद्रों को भी उच्च जातियों की तरह वैसे ही धार्मिक कार्य करने नहीं दिया जाता था। रमाबाई ने अपने निजी जीवन में इस भेदभाव को अस्वीकार कर दिया जब उन्होंने बिपिन बिहारी से जो एक शुद्र थे, विवाह का प्रस्ताव स्वीकार करने का निर्णय किया और इस प्रकार सोच समझकर परम्परा को तोड़ा। बिपिन को जाति से निकाल दिया गया क्योंकि यह सिविल पंजीकरण द्वारा किया गया अंतर्जातीय विवाह था। विवाह के केवल दो वर्ष बाद बिपिन की मृत्यु हो गई और चौबीस वर्ष की आयु में युवा रमाबाई विधवा हो गई। कष्टदायक जीवन वैधव्य (widowhood) के अपने प्रारंभिक अनुभवों के बाद, रमाबाई के घर तक सीमित रहना स्वीकार नहीं किया और सार्वजनिक क्षेत्र में पदार्पण किया।
महाराष्ट्र लौटकर रमाबाई ने अपना पहला सार्वजनिक सामना पितृसत्तात्मक (पुरुष प्रधान) शक्तियों से किया जब उन्होंने महिलाओं को एकजुट करने के लिए 1882 में पूना में आर्य महिला समाज की स्थापना की और तुरंत एक विवाद उत्पन्न कर दिया। उन्होंने असहाय और अशिक्षित महिलाओं को परामर्श देने के उद्देश्य से मराठी में स्त्री धर्म नीति का प्रकाशन किया। उस समय केसरी ने लिखा कि 'वास्तव में हमारे समाज की अन्य कुप्रथाओं को दूर करना पुरूष का कार्य है। अतः महिलाएँ आने वाले कई वर्षो तक इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती- चाहे वे "पंडिता ही क्यों न हों और सुधार की चम अवस्था तक पहुँच चुकी हो.. ।" हमारी महिलाओं को भविष्य में लंबे समय तक पुरुषों के नियंत्रण में रहना होगा।" रमाबाई ने उत्साहपूर्वक उच्च जाति की हिन्दु विधवाओं के लिए एक गृह स्थापित किया और हंटर कमीशन से महिलाओं को प्रशिक्षण उपलब्ध कराने का अनुरोध किया ताकि वे अध्यापिकाएँ और डाॅक्टर बनकर अन्य महिलाओं की सेवा कर सकें।
किन्तु वे महाराष्ट्र में महिलाओं से जुड़ने में असफल हो गई और स्वयं को अलग-थलग महसूस किया क्योंकि न तो उनका काई समुदाय था, न कोई सामाजिक आधार था और न ही वास्तवित भावनात्मक बंधन थे जिन पर निर्भर रहा जा सकता था। इसने उन्हें धर्म और ईश्वर में सांत्वना (सहारा) की खोज के लिए प्रेरित किया जो उनके सामाजिक कार्यक्रमों और धार्मिक पूर्ति के लिए उनकी व्यक्तिगत खोज के साथ-साथ समायोजित (accommodate) कर सकता था। इस प्रकार उन्होंने एंग्लिकन चर्च में इसाई धर्म अपना लिया।
विश्व में एंग्लिकन चर्च की पितृसत्ता के साथ रमाबाई का सामना (संपर्क) कम कठोर नहीं रहा। जब उन्हें पुरूष छात्रों (male students) को पढ़ाने के लिए प्रोफेसर का पद दिया गया तो मुबंई के बिशप ने यह कहकर विरोध किया कि "यदि यह पता चलता है कि उन्होंने युवकों को पढ़ाया है तो निश्चित है कि उनका प्रभाव भारत में सदा के लिए नष्ट हो जाएगा।" रमाबाई ने तुरंत उत्तर दिया, "मुझे यही सोचकर आश्चर्य होता है कि न तो मेरे पिता और न ही मेरे पति ने मुझे युवकों को पढ़ाने पर कभी भी कोई एतराज किया जबकि कुछ युवा लोग यह कार्य कर रहे हैं।" इस प्रकार रमाबाई की शैक्षिक और मिशनरी गतिविधियों में मुख्य संघर्ष पितृसत्तात्मक था।
इसाई धर्मांतरिक और प्रसिद्ध समाज सुधारक पंडिता रमाबाई हिन्दू धर्म की विदुषी थी जिन्होंने दार्शनिक पूर्वधारणाओं (premises) से, विशेषकर महिलाओं के संबंध में अपने मतभेदों, और बाद में ईसाई धर्मांतरित महिला के रूप में ईसाई धर्म सिद्धान्त के विरुद्ध विद्रोह किया। अतः उनका जीवन जटिल संघर्षों की एक गाथा था- एक ऐसी गाथा जो हिन्दू समाज और एंग्लिकन चर्च में पुरुष के खिलाफ संघर्ष, भारतीय धर्मांतरित महिला का ब्रिटिश एंग्लिकन बिशपों और ननों के विरुद्ध संघर्ष और हिन्दू महिलाओं के उत्पीड़न के विरूद्ध इसाई मिशनरी का संघर्ष था।
जीवनभर महिला अधिकारों और भारत की सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध प्रखर आवाज उठाने वाली पंडिता रमाबाई की 5 अप्रैल, 1922 को मृत्यु हो गई।
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