12/23/2021

एम.एन. राय के राजनीतिक विचार

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एम. एन. राय के राजनीतिक विचार 

m.n. roy ke rajnitik vichar;एम.एन. राय एक उच्च कोटि के विचारक थे। उन्होंने विश्व के राजनीतिक दर्शन का गंभीरता से अध्ययन किया था तथा उस पर मनन भी किया था। इसी चिंतन तथा मनन के परिणामस्वरूप वे विश्व को एक नया दर्शन दे सके। उनके क्रांतिकारी मानवतावाद के दर्शन ने विश्व के विचारों में स्थान पाया। एम.एन.राय के प्रमुख राजनीतिक विचारों का विवेचन निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता जा सकता हैं-- 

राय और राष्ट्रवाद 

राय का विश्वास राष्ट्रवाद में नहीं था। वे राष्ट्रवाद को प्रतिक्रियावादी प्रवृत्ति मानते थे। एक साम्यवादी के रूप में भी राय ने राष्ट्रवाद को अस्वीकार किया और बाद में एक मानवतावादी के रूप में भी उन्होंने राष्ट्रवाद की आलोचना की। अपने मौलिक मानववाद के सिद्धांत में राय एक ऐसे व्यक्ति का विचार प्रस्तुत करते हैं जो राष्ट्रीयता की संकुचित और संकीर्ण परिधि में सिमटा हुआ नहीं हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय राय ने क्रांग्रेस के निर्णयों और कांग्रेस की भूमिका की आलोचना भी इसी आधार पर की। उनका विचार था कि गुट राष्ट्र (जर्मन, इटली, जापान आदि) फासीवाद अथवा तानाशाही के लिए लड़ रहें हैं। जबकि मित्र राष्ट्र (ब्रिटेन, फ्रांस, अमेरिका आदि) लोकतंत्र की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं। अतः क्रांग्रेस को मित्र राष्‍ट्रों की सहायता करनी चाहिए न कि इस अवसर पर किसी प्रकार के आंदोलन करके ब्रिटेन के सम्मुख कठिनाइयाँ पैदा करनी चाहिए। जब गांधी जी ने 'भारत छोड़ों आंदोलन' चलाया तो राय ने उनकी आलोचना की और क्रांग्रेस को फासिस्‍ट संगठन कहा।

लोकतंत्र संबंधी विचार 

राय ने लोकतंत्र के संबंध में अपने स्पष्ट विचार अपनी पुस्तक प्रिंसीपल रेडिकल डेमोक्रेसी में प्रस्तुत किये हैं। उन्हें पश्चिमी लोकतंत्र और साम्यवादी लोकतंत्र में विश्वास नहीं था। पश्चिमी लोकतंत्र पूंजीवादी व्यवस्था के कारण अंतिम रूप से पूंजीपति शासन में वर्चस्व प्राप्त कर लेते हैं। साम्यवादी लोकतंत्र में श्रमिकों के सामूहिक कल्याण के नाम पर व्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन होता हैं। मुट्टठी भर नेता वास्तविक सत्ता के अधिकारी हो जाते हैं। वर्तमान लोकतंत्रीय शासन प्रणाली में भी चुनाव के बाद मतदाता का कोई नियंत्रण नहीं रह जाता। 

राय राजनैतिक दलों के पूर्ण विरोधी थे। दलगत राजनीति में चरित्रवान, योग्य, बुद्धिमान व्यक्ति चुनाव में भाग नहीं लेते सिर्फ लंपट, चालाक और येन-केन रूप से प्रचार करने वाले व्यक्ति चुन लिये जाते हैं। ये अनैतिक, चरित्रहीन व्यक्ति सत्ता का दुरुपयोग करते हैं। 

राय ने क्रांतिकारी लोकतंत्र के संबंध में अपने विचार प्रस्तुत किये। उनके अनुसार लोकतंत्र की सफलता के लिए सत्ता का विकेन्द्रीकरण होना आवश्यक हैं। केवल संसद में चुने हुए प्रतिनिधि निर्वाचित कर देने से लोकतंत्र की स्थापना नहीं हो जाती। उनके अनुसार शासन में प्रत्येक स्तर पर जन समितियां होनी चाहिए। इन जन समितियों के माध्यम से जनता को प्रशासन में अधिक भाग मिलेगा। इन जन समितियों का नियंत्रण राज्य और केन्द्र की व्यवस्थापकताओं पर भी होगा। इन जन समितियों के निर्वाचन में दलीय राजनीति का कोई स्‍थान नहीं होगा। स्थानीय स्तर पर योग्य, बुद्धिमान तथा चरित्रवान व्यक्ति ही जन समितियों में चुने जाएंगे। यह योग्य व्यक्ति राज्य व केन्द्र की व्यवस्थापिकाओं के निर्वाचन में भाग लेंगे। 

इस प्रकार के लोकतंत्र की सफलता के लिए सुशिक्षित और निष्पक्ष जनमत का विकसित होना अत्यंत आवश्यक हैं। इसलिए राय ने यह सुझाव दिया था कि क्रांतिकारी लोकतंत्र के प्रारंभिक स्तर पर योग्य व्यक्तियों को मनोनीत किया जाये, बाद में जनमत के विकसित हो जाने पर चुनाव हो जायें।

राॅय के अनुसार व्यक्ति एवं स्वतंत्रता संबंधी विचार 

राॅय के राजनीतिक विचारों में व्यक्ति को अत्यधिक महत्व दिया गया हैं। उनकी यह धारणा थी कि एक अच्छा व्यक्ति ही एक अच्छे समाज की रचना कर सकता हैं। वे व्यक्ति को ही समाज का आधार मानते थे। उनके अनुसार व्यक्ति का कार्य केवल आज्ञापालन ही नहीं अपितु अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखना भी हैं। उनके अनुसार साम्यवादी विचारकों ने व्यक्ति के आत्मगौरव को ठेस पहुंचायी हैं। 

राय ने व्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्ति की लालसा को चिरन्तन माना हैं। स्वतंत्रता की अनुभूति ही उसका जीवन हैं, किन्तु राय के अनुसार स्वतंत्रता का यह तात्पर्य नहीं हैं कि व्यक्ति सब कुछ करने की स्वतंत्रता रखता हैं। उस पर विवेक का नियंत्रण हैं, जो उसे बुराई से रोकता हैं। विवेक ही व्यक्ति को सामाजिकता सिखाता हैं। 

राय ने राज्य को केवल एक साध्य माना, साधन नहीं। वे राज्य को न तो एक आवश्यक बुराई ही मानते थे न मार्क्स के समान राज्य के तिरोहित होने में ही उनका विश्वास था। वे राज्य को एक अच्छे शासन के प्रदाता के रूप में आवश्यक समझते थे। उन्हें राज्य के कठोर नियन्त्रण अथवा अधिनायकतंत्र में विश्वास नहीं था। वे राज्य को पूर्णतया लोकतंत्रिक आधार देना चाहते थे।

राय और मार्क्सवाद 

राय ने मार्क्सवाद को बड़े निकट से जाना तथा परखा था। उन्होंने साम्यवादी व्यवस्था के सैद्धान्तिक व व्यावहारिक पक्ष को समझा और देखा। अपने चिंतन के प्रारंभिक काल में वह पूर्णतः साम्यवादी थे। उनके प्रबल साम्यवादी विचारों के कारण उन्हें कोमिन्टर्न का सदस्य मनोनीति किया गया, साम्यवादी विचारों की उन्होंनें भारत में भी स्थापना की। लेनिक से उनके अत्यंत घनिष्ठ संबंध थे, समय-समय पर वे लेनिन के साथ मार्क्सवाद के विभिन्न पहलुओं पर खुलकर विचार-विमर्श करते थे और अपने स्वतंत्र विचार भी प्रकट करते थे। लेनिन की मृत्यु के बाद रूस तथा स्टालिन ने साम्यवाद की सफलता के नाम पर, जिस प्रकार लेनिन समर्थकों को चुन-चुनकर यातनाएं दी, उनसे राय का साम्यवाद से विश्वास उठ गता। मार्क्स के विचारों में भी उन्हें कई कमियां दिखाई दी। उन्हें स्पष्ट हो गया कि सर्वहारा के सर्वाधिकारवाद के नाम पर तानाशाही की स्थापना हो जाती हैं। इस अधिनायकवाद के अंतर्गत व्यक्ति की स्वतंत्रता पूरी तरह छिन जाती हैं। मार्क्स ने वर्ग-संघर्ष को दो ही वर्गों-पूंजीपति तथा श्रमिक वर्ग में बांटकर मध्यम वर्ग की पूर्ण उपेक्षा कर दी। मध्यम वर्ग द्वारा ही समाज में श्रेष्ठ विचार तथा राजनीतिक चिंतन प्रतिपादित होता हैं। यह वर्ग एक सशक्त बौद्धिक चिंतन का स्त्रोत हैं तथा यह वर्ग कभी समाप्‍त नहीं होगा। 

राय और क्रांतिकारी मानवतावाद 

राय का क्रांतिकारी मानवतावाद जिसे नव-मानवतावाद भी कहा जाता हैं कोई नया चिंतन नहीं हैं। भारत में चार्वाक में यूनानी दार्शनिकों ने तथा मध्य युग में डेकार्ट तथा स्पिनोजा ने इस दर्शन को महत्व दिया था, लेकिन राय ने मानवतावाद का वैज्ञानिक विश्लेषण किया और इसे नव-मानवतावाद नाम दिया। राय ने मनुष्य से अधिक श्रेष्ठ किसी भी सत्ता को नहीं माना। राय के अनुसार मानव स्वयं साध्य हैं। उसकी उन्नति, प्रगति और विकास के लिए सभी साधन उपलब्ध होने चाहिए। मानव से ऊपर कोई शक्ति नहीं हैं। अतः मानव के अपने विकास के लिए किसी दैवी शक्ति की आराधना, ईश्वर का सहारा या भाग्य का आसरा लेने की आवश्यकता नहीं हैं। मानव की सबसे प्रमुख शक्ति उसकी बुद्धि हैं। उसे अपने बुद्धि द्वारा अपने बौद्धिक विकास द्वारा सारे मानव समाज में ऐसा वातावरण बनाना चाहिए, जहाँ सभी मनुष्य परस्‍पर सद्भाव, एकता एवं भाईचारे से रहें। स्वतंत्रता एवं समानता का वातावरण हैं। ऐसी अवस्था में ही मानवों की मानवता अपनी चरम-सीमा पर होगी। राय को मनुष्य की विवेकशीलता पर असीम आस्था थी। 

राय का नव-मानवतावाद आध्यात्मिक मानवतावाद नहीं हैं। महात्मा गाँधी, जयप्रकाश नारायण, आचार्य विनोबो भावे भी मानवतावाद में विश्वास करते थे, परन्तु उनका मानव ईश्वरीय सत्ता में विश्वास करता हैं और उसी द्वारा प्रदत्त सद्गुणों के कारण नैतिक आचरण करता हैं, परन्तु राय का मानव तर्कशीलता के कारण बुद्धि और विवेक के कारण नैतिक आचरण करता हैं। 

मूल्यांकन 

राय, आधुनिक भारत के प्रसिद्ध विचारक हैं। उनकी वैचारिक यात्रा काफी घुमावदार और लम्बी है। उनके विचारों की यात्रा एक रोमांटिक क्रांतिवादी अथवा राष्ट्रीय अराजकतावादी के रूप में प्रारंभ हुई और मार्क्सवाद रेडिकल क्रांग्रेसी, रेडिकल डेमोक्रेट के रूप में न होती हुई मौलिक मानववादी के रूप में समाप्त हुई। उनका जीवन रोमांटिक क्रांतिवादी के रूप में प्रारंभ हुआ और शांति स्थापक तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक के रूप में समाप्त हुआ।

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