12/22/2021

कार्ल मार्क्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद सिद्धांत

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प्रश्न; मार्क्‍स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत की व्याख्या कीजिए। 

अथवा" कार्ल मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए। 

अथवा" 'द्वंद्वात्मक भौतिकवाद' से आप क्या समझते हैं? विवेचना कीजिए।

अथवा" कार्ल मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवादी विचारों पर एक संक्षिप्त लेख लिखिए।

उत्तर--

कार्ल मार्क्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद सिद्धांत 

kalar marks ka dvandatmak bhautikvad ka siddhant;कार्ल मार्क्स के दार्शनिक विचार 'द्वंद्वात्मक भौतिकवाद' पर आधारित हैं। मार्क्स ने अपने सभी सिद्धांतों को भौतिकवादी दृष्टिकोण पर आधारित किया हैं, और इसी भौतिकवादी दृष्टिकोण से उसने संसार का, उसके विकास का एवं विकास की गति को निर्धारित करने वाले तत्वों एवं नियमों का पता भी लगया हैं। उसके इस दृष्टिकोण की कुछ विशेषताएं भी हैं। सबसे बड़ी विशेषता यह हैं कि संसार केवल भौतिक ही नहीं हैं उसका विकास द्वंद्वात्मक प्रणाली से होता हैं। इसलिए इसे द्वंद्वात्मक भौतिकवाद कहा जाता हैं। द्वंद्वात्मकता उसके विकास में क्रियाशील सिद्धांत हैं। यह द्वंद्वात्मक भौतिकवाद क्या हैं? एमिल बर्न्स का कहना हैं," आम तौर से समझा जाता हैं कि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद कोई विचित्र रहस्यमय चीज हैं। परन्तु ऐसा नहीं हैं, क्योंकि यह वास्तविक संसार का प्रतिबिंब ही तो हैं और राजमर्रा की साधारण चीजों का वर्णन करके जिन्हें प्रत्येक व्यक्ति जानता हैं 'द्वन्द्वात्मक' शब्द का अर्थ समझाया जा सकता हैं।" 

द्वन्द्वात्मक प्रणाली मार्क्स का मौलिक सिद्धांत नही हैं। इसकी शुरुआत हीगेल के राज्य-दर्शन से हुई। हीगेल आत्मदावी जर्मन दार्शनिक था। उसने द्वंद्वात्मक विकास के सिद्धांत को प्रतिष्ठित किया हैं तथा उसके मूल में 'विश्वास' को माना हैं।

द्वंद्वात्मक शब्द 'डायलेक्टिक्स' का अनुवाद हैं। इसका तात्पर्य होता हैं वाद-विवाद करना, लेकिन यहाँ इसका अभिप्राय अन्तर्विरोध से हैं, प्रत्येक वस्तु अन्तरविरोध का परिणाम हैं। भौतिक जगत् में प्रत्येक वस्तु जीवन के लिए अनेक तत्वों से संघर्ष करती हैं, यह द्वन्द्वावाद हैं। 

हीगेल ने यह समझाया हैं कि द्वन्द्वात्मक पद्धित के द्वारा विकास कैसे होता हैं। इसके लिए उसने एक क्रम बतलाया हैं। यह क्रमवाद (Thesis), प्रतिवाद (Antithesis) और संवाद (Synthesis) के रूप मे आन्तरिक विरोध से संचालित होता हैं। प्रत्येक विचार (वाद) में अन्तर्विरोध होता हैं और वह अपूर्ण भी होता हैं, अतः स्वभावतः विरोधी विचार (प्रतिवाद) पैदा होता हैं और अन्त में इन दोनों से सत्य (संवाद) का प्रादुर्भाव होता हैं। पर यह क्रम यहीं नही रूकता, वाद और प्रतिवाद से प्रादुर्भाव संवाद अग्रिम विकास के लिए पुनः वाद बन जाता हैं, और पुनः वही प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती हैं। 

मार्क्स, हीगेल की इस बात से पूर्णतः सहमत था कि इतिहास की प्रगति द्वंद्वात्मक पद्धित से होती हैं, पर वह यह मानने के लिए तैयार नही था कि इस विकास अथवा प्रगति के मूल में 'विचार' नियामक तत्व का कार्य करता हैं। मार्क्स का कहना था कि वस्तुतः विकास के मूल में विचार नहीं अपितु पदार्थ हैं। 

मार्क्स का कहना था कि आत्मा अथवा विचार को हम प्रत्यक्ष देख नहीं सकते। इसके विपरीत हम भौतिक पदार्थ को देख सकते हैं, अतः वे हमारे लिए चिर सत्य हैं। अतः मार्क्स ने हीगेल के 'द्वंद्वात्मक आत्मवाद' (Dialectical spiritualism) के स्‍थान पर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद (Dialectical materialism) को अपने दर्शन का आधार बनाया। हीगेल के सिद्धांत को गलत और अतथ्यपूर्ण बतलाते हुए तथा स्वयं की प्रक्रिया को उससे अलग बतलाते हुए मार्क्स ने दास केपिटल के दूसरे जर्मन संस्करण के परिशिष्ट में लिखा हैं," मेरी द्वंद्वात्मक पद्धित हीगेलवादी पद्धित से न केवल भिन्न हैं, बल्कि ठीक उसकी उल्टी हैं। हीगेल के लिए मानव-मस्तिष्क की जीवन-प्रक्रिया अर्थात् चिंतन की प्रक्रिया, जिसे 'विचार' के नाम से उसने एक स्वतंत्र कर्ता तक बना डाला हैं, वास्तविक संसार की सृजनकर्ती हैं और वास्तविक संसार 'विचार' का बाहरी, इन्द्रियगम्य रूप मात्र हैं। इसके विपरीत, मेरे लिए विचार इसके सिवा और कुछ नहीं कि भौतिक संसार मानव-मस्तिष्क में प्रतिबिंबित होता हैं और चिंतन के रूपों में बदल जाता हैं।" मार्क्स ने आगे लिखा हैं," हीगेल के यहाँ द्वंद्वावाद सिर के बल खड़ा हैं। यदि आप उसके रहस्यमय आवरण के भीतर ढके हुए विवेकपूर्ण सार-तत्व का पता लगाना चाहते हैं, तो आपको उसे पलटकर फिर पैरों के बल सीधा खड़ा करना होगा।" 

द्वंद्वात्मक भौतिकवाद को लेनिन ने विकासवाद का सिद्धांत माना हैं। इसे गति संबंधी सिद्धांत भी कहा जा सकता हैं।

भौतिक द्वंद्वावाद की मान्यताएं 

मार्क्‍स ने जिस भौतिकवाद की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया का उल्लेख किया हैं, उसकी कुछ मान्यताएं निम्नलिखित हैं-- 

1. पदार्थों में गतिशीलता 

जड़ प्रकृति में गतिशीलता पायी जाती हैं। ईंट, पत्थर आदि में आन्तरिक तत्व छिपे हुए हैं, जो हमेशा गतिशील रहते हैं। 

2. जड़ पदार्थों में परिवर्तन 

प्रकृति के जड़ पदार्थ परिवर्तनशील  हैं। एनजिल्स ने लिखा हैं कि प्रकृति की छोटी वस्तु से लेकर बड़ी तक, बालु कण से लेकर सूर्य तक सभी एक निरन्तर स्थिति में निरन्तर प्रवाह में अनवरत गति तथा परिवर्तन की स्थिति में हैं। 

3. प्रकृति की संयुक्त समष्टि

भौतिक जगत की सब वस्तुएं और घटनाएं एक-दूसरे से पृथक स्वतंत्र और असम्बद्ध न होकर एक-दूसरे से सम्बद्ध तथा एक-दूसरे पर निर्भर हैं। इस प्रकार प्रकृति एक सुसम्बद्ध एवं संयुक्त समाष्टि हैं। 

4. जड़ पदार्थों में विरोधी तत्वों का समागम 

प्रत्येक जड़ पदार्थ में सदैव विरोधी तत्वों का संगम पाया जाता हैं जिस प्रकार लकड़ी में नमी व कड़ापन दोनों ही पाये जाते हैं।

5. जड़ वस्तुओं से सृष्टि का निर्माण 

संसार का निर्माण करने वाली ईश्वर जैसी कोई भी आलौकिक शक्ति नहीं हैं। बल्कि सृष्टि कर्ता स्वयं प्रकृति ही हैं। प्रकृति की जड़ वस्तुएं इन्द्रियों से दिखाई देती हैं और ये जड़ वस्तुएं ही सृष्टि का सृजन करती हैं। 

6. जगत का मूल कारण जड़ प्रकृति 

मार्क्‍स के अनुसार जगत का मूल कारण जड़ प्रकृति या मूल हैं।

7. घटनाओं में आन्तरिक विरोध 

प्रत्येक वस्तु या घटना में आन्तरिक विरोध की स्थिति देखने को मिलती हैं। इन आन्तरिक विरोधों के संघर्ष के परिणामस्वरूप नई वस्तु का जन्म होता हैं। सामन्तवाद के विरोधी तत्वों के संघर्ष के कारण पूंजीवाद का जन्म हुआ। पूंजीवाद के आन्तरिक विरोधी तत्वों ने समाजवाद को जन्म दिया। इस प्रकार विरोधी तत्वों के संघर्ष के कारण नये परिवर्तन की प्रक्रिया होती रहती हैं। यह प्रकृति का एक शाश्वत् नियम हैं। 

द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के आवश्यक तत्व 

मार्क्‍स ने जिस द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को माना हैं उसके मुख्य तत्व निम्नलिखित हैं-- 

1. संघर्ष विकास का कारण 

प्रकृति में संघर्ष ही विकास का एक मात्र कारण हैं। 

2. मात्रात्मक व गुणात्मक परिवर्तन 

परिवर्तन पहले गुणात्मक होता हैं तदुपरांत गुणात्मक। जिस प्रकार पानी पहले गर्म होता हैं फिर वाष्प बन जाता हैं। 

3. पदार्थों के पदों में द्वंद्व 

प्रत्येक पदार्थ के दो पक्ष होते हैं। सकारात्मक व नकारात्मक इनमें निरन्तर द्वन्द्व होता रहता हैं। संघर्ष के कारण पुराने तत्व मिट जाते हैं व नये तत्व का उदय होता हैं। 

4. जगत का मूल कारण जड़ प्रकृति 

मार्क्‍स के अनुसार जगत का मूल कारण जड़ प्रकृति या मूल हैं।

5. प्राकृतिक सामयिक एकता 

प्रकृति के सभी पदार्थ एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। अर्थात् उनमें सामयिक एकता पाई जाती हैं। 

6. प्रकृति की गतिशीलता 

प्रकृति के सभी पदार्थ रेत के कण से लेकर सूर्य तक गतिशील हैं। 

द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का सार 

मार्क्‍स अपने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद से यह सिद्ध करना चाहता हैं कि पूंजीवाद से ही साम्यवाद का जन्म होगा। मार्क्‍स का मत हैं कि प्रत्येक युग में पूंजी के विवाद पर समाज के दो वर्ग पाये जाते हैं। उत्पादन शक्तियों को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को संघर्ष करना होता हैं और संघर्ष के परिणामस्वरूप ही सामाजिक संबंधों का जन्म होता हैं। इन संबंधों के परिणामस्वरूप ही मानव समाज विभिन्न वर्गों में विभाजित हो जाता हैं और विभिन्न आर्थिक व सामाजिक विचारधाराएं भी इसी संघर्ष का परिणाम हैं। मार्क्‍स का यह मत स्पष्ट हैं कि," मनुष्यों की मानसिक चेतना उसके अस्तित्व को निर्धारित नहीं करती बल्कि इसके विपरीत उसका सामाजिक अस्तित्व उसकी मानसिक चेतना को निर्धारित करता हैं।" इस प्रकार के संघर्ष सर्वप्रथम वाद, फिर प्रतिवाद और अंत में समवाद में बदल जाते हैं। 

वास्तव में द्वंद्वात्मक सिद्धान्तों में मार्क्‍स यह दिखाने का प्रयत्न करता हैं कि संघर्ष के द्वारा साम्यवाद की स्थापना किस प्रकार से होती हैं। उसका मत था कि पूंजीवाद एक वाद के क्रम में हैं और श्रमिक उसके प्रतिवाद के रूप में तथा साम्यवाद उसका समवाद हैं। इस प्रकार पूंजीवाद में ही उसके विनाश के कारण निहित हैं।

मार्क्‍स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की आलोचना 

मार्क्‍स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत में कई त्रुटियाँ या कमियाँ हैं, जो इस प्रकार हैं-- 

1. कार्ल मार्क्स विश्व शांति हेतु क्रांति को प्रोत्साहन देता हैं जबकि क्रांति विश्व शांति की विरोधी हैं। 

2. मार्क्‍स संघर्ष को विकास का एक मात्र साधन मानता हैं। उसकी यह विचारधारा सही नहीं हैं। 

3. मार्क्‍स का यह सिद्धान्त मान्य नहीं कि प्रत्येक पदार्थ स्वयं चेतन हैं व उसमें आन्तरिक परिवर्तन के गुण निहित हैं। वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध किया कि पदार्थ में चेतना का अभाव हैं तथा उसमें जो भी परिवर्तन होता हैं वह बाहरी तत्वों का प्रभाव हैं। 

4. द्वंद्वात्मक भौतिकवाद इतना अस्पष्ट हैं कि उसे आसानी से समझना कठिन हैं। 

5. वास्‍तव में मार्क्‍स ने सत्य का केवल एक ही पक्ष प्रतिपादित किया हैं, पूर्ण सत्य नहीं। आंशिक रूप से केवल यही सत्य हैं कि भौतिक परिस्थितियाँ मनुष्य के विचारों को बदलती हैं, परन्तु इस आंशिक सत्य का परिपूरक अंश यह भी हैं कि विचार भौतिक परिस्थितियों को बदलते हैं। मार्क्‍स ने कहा कि हीगल का द्वंद्वावाद शीर्षासन कर रहा हैं। किन्तु मार्क्‍स का द्वंद्वावाद भी पैर के बल नहीं खड़ा हैं। दोनों ही अर्द्धसत्य हैं। 

इस तरह वह नींव जिस पर मार्क्‍स ने साम्यवाद का महल खड़ा किया, कोई ठोस और मजबूत नींव नहीं हैं।

यह जानकारी आपके के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी

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