6/30/2022

लोक प्रशासन की अध्ययन पद्धतियां

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लोक प्रशासन की अध्ययन पद्धतियाँ 

Lok prashasan ki adhyayan paddhatiyan;किसी भी विषय की पूर्णता तक पहुँचने में उसकी अध्ययन पद्धतियों का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। अन्य सामाजिक विद्वानों की तरह लोक प्रशासन के अध्ययन के भी अनेक उपागम या पद्धतियाँ है। सामान्यतया विभिन्न विषयों का अध्ययन दो प्रकार की पद्धतियों से किया जाता हैं-- 
(अ) आगमनात्मक पद्धति, 
(ब) निगमनात्मक पद्धित। 
भौतिक विज्ञानों का अध्ययन प्रायः आगमनात्मक पद्धित से तथा समाजविज्ञानों का अध्ययन निगमनात्मक पद्धित से किया जाता है। अरस्तु ने आगमनात्मक पद्धित (Inductive) तथा प्लेटो ने निगमनात्मक पद्धित (Deductive) का प्रयोग किया था। समाजविज्ञानों में निगमनात्मक पद्धित के साथ अन्य प्रणालियों का भी प्रयोग किया जाता है। चूँकि लोक प्रशासन समाजविज्ञान के ही अंतर्गत आता हैं। इसके अध्ययन के लिए निम्नलिखित पद्धतियों का प्रयोग किया जाता हैं-- 
1. वैज्ञानिक पद्धति
भौतिक एवं प्राकृतिक विज्ञानों का अध्ययन करने के लिए प्रायः आगमनात्मक पद्धति का प्रयोग होता है। इसमें पर्यवेक्षण और परीक्षण के द्वारा विशिष्ट से सामान्य की ओर बढ़ा जाता हैं। पर्यवेक्षण के द्वारा तथ्यों को एकत्रित किया जाता हैं, उनका वर्गीकरण किया जाता हैं, वर्गीकरण से पारस्परिक संबंध स्थापित होते हैं और फिर प्राकल्पनाओं की स्थापना की जाती हैं। इन प्राकल्पनाओं की जाँच के लिए परीक्षण किए जाते हैं, परीक्षण संभव न होने पर पुनः पर्यवेक्षण किया जाता हैं तथा निष्कर्ष प्रतिपादित किए जाते हैं। लोक प्रशासन का अध्ययन वैज्ञानिक पद्धति से करने और उसे लोकप्रिय बनाने के प्रयास श्री फ्रेडरिक टेलर ने किए थे। इस पद्धित में उन कार्यों का विश्लेषण किया जाता हैं जो जनता के सन्मुख रखे गए हों। उनके साथ व्यक्तियों का तालमेल बढ़ाया जाता है और बाद में नेतृत्व, आदर्श आदि के द्वारा लक्ष्यों के एक समूह से दूसरे समूह में संबंध स्थापित किया जाता हैं। इस पद्धित को समाज विज्ञानों में इसलिए ज्यादा प्राथमिकता नहीं दी जा सकती क्योंकि इसमें मानवीय तत्व की उपेक्षा की जाती हैं। 
2. वैधानिक पद्धित 
यूरोपीय देशों में लोक प्रशासन का अध्ययन प्रायः वैधानिक दृष्टिकोण से किया जाता हैं। इन देशों में विधि को दो मुख्य भागों: संवैधानिक विधि तथा प्रशासनिक विधि में बाँटा गया हैं। यहाँ राजनीति का अध्ययन या शासन के प्रमुख अंगों का अध्ययन संवैधानिक विधि के माध्यम से तथा संस्थाओं या कि लोक प्रशासन का अध्ययन प्रशासकीय विधि से किया जाता हैं। प्रशासकीय विधि के महत्व तथा वैधानिक प्रक्रिया के कारण संस्थाओं की पवित्रता बढ़ी हैं। पर वैधानिकता की सीमाओं में जकड़ जाने के कारण लोक प्रशासन की समाजशास्त्रीय पृष्ठभूमि पीछे रह जाती हैं। 
3. ऐतिहासिक पद्धित 
इतिहास का ज्ञान लोक प्रशासन के अध्ययन के लिए हमेशा से उपयोगी माना जाता रहा हैं। प्रशासनिक इतिहास वर्तमान प्रशासनिक संस्थानों और प्रबंधों को अतीत के अनुभव के प्रकाश में प्रकाशित करने की चेष्टा करता हैं। प्रायः प्रत्येक राष्ट्र की शासन पद्धित अपनी प्राचीन परम्पराओं एवं मान्यताओं से बहुत प्रभावित होती हैं। उन्हीं परम्पराओं को समझने के लिए इतिहास का ज्ञान आवश्यक हैं। वर्तमान में अनेक प्रशासकीय समस्याओं का निदान इतिहास द्वारा संचित अनुभवों तथा तत्कालीन पुस्तकों में अंतर्निहित हैं। इस प्रकार स्पष्ट होता हैं कि लोक प्रशासन को जानने, समझने तथा इसका सही उपयोग करने के लिए इतिहास या ऐतिहासिक पद्धित कितनी उपयोगी हैं। कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' अबुल फजल की 'आईने अकबरी' तथा ऐसे ही अन्य ग्रंथों में तत्कालीन शासन पद्धित का स्पष्ट वर्णन हैं। यद्यपि यह पद्धित लोक प्रशासन को समझने में बहुत उपयोगी हैं तथापि इसका सबसे बड़ा दोष यह है कि इसमें राजनीति का प्रभाव ज्यादा पाया जाता हैं। 
4. व्यवहारवादी पद्धित 
व्यवहारवादी पद्धित को महत्वपूर्ण बनाने में हरवर्ट साइमन की भूमिका महत्वपूर्ण हैं। उसके अनुसार प्रशासन कार्य करने की कला हैं। व्यवहारवादी उपागम में कार्यवाही से पहले की प्रक्रिया को समझने का प्रयास किया जाता है। इसे निर्णय लेने की प्रक्रिया के नाम से भी जाना जाता हैं। निर्णय लेने की आवश्यकता उस समय होती है जब व्यक्ति के पास किसी कार्य को करने के बहुत से विकल्प होते हैं परन्तु इसमें व्यवहारवादी पद्धित वह है, जहाँ अधिक सकारात्मक एवं परिणामोत्पादक विकल्प चुना जावे। व्यवहारवादी पद्धित के अनुसार किसी भी संगठन में प्रबन्धकों की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण होती है क्योंकि संगठन के लक्ष्यों व उत्तरदायित्वों को प्राप्‍त करना उसकी ही जवाबदारी रहती हैं। ये प्रबंधक या वरिष्ठ अधिकारी निर्णय लेते हैं, योजना बनाते हैं, उसे कार्यान्वित करते हैं, कर्मचारी को निर्देश देते हैं। व्यवहार पद्धित के अनुसार यह जाना जा सकता हैं कि किसी संगठन की संरचना एवं कार्य का व्यावहारिक किस तरह सर्वोत्तम तरीके को प्राप्‍त किया जा सकता हैं। 
संक्षेप में, व्यवहारवादी पद्धित में लोक प्रशासन की कार्य पद्धित में समूह की भागीदारी या परस्पर क्रिया होती हैं। प्रशासन में नीति निर्णय या संगठनों में निर्णय निर्माण (डिसीजन मेकिंग) एक व्यक्ति या परिवार से पृथक अधिक व्यवस्थित तरीके से लेना होता हैं।
5. मनोवैज्ञानिक पद्धति 
लोक प्रशासन में मनोवैज्ञानिक अध्ययन पद्धति लागू करने में मिस एम.पी. फोलिय की भूमिका महत्वपूर्ण है। उन्होंने यह बताया कि किस प्रकार व्यक्तियों और समूहों की इच्छाएँ, पूर्वधारणायें एवं मूल्य प्रशासन में उनके व्यवहार को प्रभावित करते हैं। इस पद्धति में यह माना गया है कि प्रशासन और कुछ नहीं, मानव आचरण तथा व्यवहार से ही संबंधित हैं। मनोविज्ञान हमारे आचरण से संबंधित है और लोक प्रशासन का संबंध भी आचरण से ही है। प्रशासन के मनोवैज्ञानिक अध्ययन से यह बात सामने आई है कि व्यक्तियों और समूहों की मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रिया के फलस्वरूप अनौपचारिक संगठनों का विकास होता हैं। 
6. घटना या प्रकरण पद्धति
लोक प्रशासन में घटना पद्धति का आशय है कि यह घटना क्यों और कैसे उत्पन्न हुई? इसका समाधान किस प्रकार किया गया? इसके समाधान हेतु कौन-कौन से कारक विद्यमान थे? उनमें से किसी एक का चयन किस आधार पर किया गया? इस पद्धति के क्या-क्या लक्ष्य हैं? और जो परिणाम सामने आए हैं; उसका किस प्रकार मूल्‍यांकन किया गया हैं? इस पद्धति के अनुयायियों को यह विश्‍वास है कि जब प्रशासन के विभिन्न क्षेत्रों में इस प्रकार के अध्ययन किए जाएंगे तो अनुभव के आधार पर आजमाए गए प्रशासन के सिद्धांतों की स्थापना करना संभव हो पाएगा। 
7. व्यवस्थावादी पद्धित
व्यवस्था पद्धति से आशय उस सिद्धांत से से हैं जिसमें घटनाक्रम को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाता हैं। इस सिद्धांत में किसी घटना के एक पहलू को देखने की बजाय प्रबन्‍धकों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे संगठन को समूचे रूप में देखें। तब संगठन की एक गतिविधि का प्रभाव अन्यों पर किस प्रकार पड़ता है इसका परीक्षण सहजता से किया जा सकता हैं। व्यवस्था पद्धति में प्रशासन के समान क्रियाएँ या समाज से उनके संबंध अंतर संबंधित होते है। इस पद्धित में यह माना जाता है कि कोई भी कार्य अकेले संभव नहीं हैं-- परिणामस्वरूप अन्यों का भी सहयोग लिया जाता हैं। चूँकि संगठन में बहुत से व्यक्ति सहयोग करते हैं; अतः इस व्यवस्था में व्यक्तिगत, मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक कारक निरंतर पारस्परिक क्रिया करते है। परस्पर सहयोग के बिना कोई भी संगठन अपने उद्देश्य पूरे नहीं कर सकता। इस व्यवस्था के प्रमुख विचारक बर्नाड की मान्यता है कि प्रत्येक संगठन मुख्यतः एक सहयोगी व्यवस्था है तथा सहयोगी प्रयास की चेतनागत रूप से समन्वित होने की आवश्‍यकता हैं।
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