9/12/2021

किशोरावस्था की समस्याएं, सिद्धांत, शिक्षा का स्वरूप

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किशोरावस्था की समस्याएं

kishoravastha ki samasya;किशोरावस्था को तनाव तथा तूफान की अवस्था कहा गया है। इस अवस्था को जीवन की सबसे कठिन अवस्था कहा गया है। यही वह अवस्था है जब किशोर न तो बालक रहता है एवं न पूर्ण बन पाता है। इसे परिवर्तन की अवस्था भी कहा गया है क्योंकि इस अवस्था में परिवर्तनों का अंबार लग जाता हैं। किशोर बालक-बालिकाओं में अनेक शारीरिक तथा मानसिक परिवर्तन होते है। उनके संवेगात्मक, सामाजिक तथा नैतिक जीवन का स्वरूप बदल जाता हैं। बाल्यावस्था की विशेषताओं का लोप होने लगता है एवं नये-नये लक्षण जन्म लेने लगते हैं। यही वह अवस्था है जिसमें उनमें अदम्य उत्साह तथा अपूर्व शक्ति होती है जिनमें वे अपना अधिकतम विकास भी कर सकते हैं एवं अपना सर्वस्व गवां भी सकते हैं। 

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किशोरावस्था को समस्याओं की आयु अथवा समस्याओं की अवस्था भी कहा गया हैं क्योंकि इस अवस्था में जहाँ स्वयं किशोर बालक-बलिकायें अपने परिवार, विद्यालय, स्वास्थ्य, मनोरंजन, भविष्य, यौन आदि से संबंधित समस्याओं से जूझते हैं, वहीं उनके माता-पिता, संरक्षक, अध्यापक, समाज और राष्ट्र के लिए वे भी एक समस्या होते हैं। इस अवस्था में किशोर तथा किशोरियों को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है, उनमें किशोरावस्था की प्रमुख समस्यायें निम्नलिखित हैं--

1. स्वतंत्रता की समस्या

किशोरावस्था में आत्मप्रकाशन की भावना बड़ी प्रबल होती है। वे समाज की रूढ़ियों तथा अंधविश्वासों का घोर विरोध करते हैं। वे माता-पिता के बंधन में बँधकर रहना नही चाहते। यदि उन पर नियंत्रण लगाया जाता है तो वे विद्रोह करने के लिए तैयार रहते हैं। किशोरों को घूमना-फिरना बहुत अच्छा लगता है। वे नये-नये स्थानों पर जाना पसंद करते हैं। उन्हें एक स्थान पर बंधकर रहना अच्छा नही लगता। जो माता-पिता किशोरों की इस स्वाभाविक प्रवृत्ति को अनुचित रूप से दबाते हैं, उनके बालकों में बेचैनी तथा निराशा उत्पन्न हो जाती है और वे उच्छृंखल एवं आवारा हो जाते हैं। 

2. स्थिरता एवं समंजन की समस्या 

जिस प्रकार शिशु की मन:स्थिति नही होती, उसी तरह किशोर बालक-बालिकाओं में भी अस्थायित्व होता है। उनका व्यवहार बहुत ही परिवर्तनशील होता हैं। राॅस ने किशोरावस्था को शैशवावस्था का पुनरावर्तन कहा है। शिशुओं की तरह किशोर चंचल होता है। उसे यह भ्रांति होती है कि वह दूसरे व्यक्तियों के आकर्षण का केंद्र है पर ऐसा हमेशा नही होता। शिशु की भाँति उसे अपने चारों तरफ के वातावरण से समंजन करना पड़ता हैं। वातावरण से समंजन में कठिनाई उसके शारीरिक तथा मानसिक विकास के कारण भी होती है। समंजन की समस्या कभी-कभार उसके लिए दुखदायी हो जाती है जो उसको चिंतित कर देती है। समंजन की समस्या के कारण कभी-कभी उनका व्यवहार अवांछनीय एवं अशोभनीय हो जाता हैं। 

3. विरोधी मनोभावों की समस्या 

किशोरावस्था में किशोर बालक-बालिकाओं में विरोधी मनोभाव चरमसीमा पर होते है। किसी क्षण वे बहुत ही सक्रिय दिखायी देते हैं एवं किसी क्षण अत्यधिक आलसी तथा निष्क्रिय। कभी वे अत्यधिक उत्साह से परिपूर्ण आत्म विरोध के घोतक होते हैं तथा इसका कारण संवेगात्मक ज्ञान योग का अभाव होता हैं। 

4. प्रबल जिज्ञासा की समस्या 

किशोरावस्था के उत्तरार्द्ध में जिज्ञासा की प्रबलता हो जाती है। अब किशोर बालक-बालिकायें प्रौढ़ जीवन विषयक ज्ञान की खोज में लग जाते हैं। इस अवस्था में होने वाले नये-नये परिवर्तन उनकी जिज्ञासा को उद्दीप्त करने का कार्य करते हैं। विपरीत लिंग के लोगों के संबंध में उनकी जिज्ञासा बढ़ती जाती है क्योंकि उनके विषय में प्राप्त होने वाले अनुभव रूचिपूर्ण और आनंददायक होते हैं। किशोरों की जिज्ञासा का उचित समाधान अति आवश्यक हैं। 

5. आत्म गौरव की समस्या 

किशोरावस्था में आत्म गौरव की भावना का विकास होता हैं। इसका कारण उनके अंदर नवीन दृष्टिकोणों का विकसित होना है। वे जहाँ भी होते हैं, अपना सम्मान चाहते हैं। परिवार में, विद्यालय, समूह में वे अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहते हैं।

कक्षा में मानीटर, खेलों में कप्तान, साहित्यिक तथा सांस्कृतिक परिषदों और कार्यक्रमों में वे कोई न कोई पद प्राप्त करना चाहते हैं, जिससे उनकी आत्म गौरव की भावना की संतुष्टि हो। ऐसा न होने पर वे संघर्ष एवं विद्रोह पर उतारू हो जाते हैं। इस समस्या को दूर करने के लिए किशोरों को उनका उचित साथ दिये जाने की आवश्यकता हैं।

6. आत्म निर्भरता की समस्या 

इस अवस्था में किशोर आत्मनिर्भर तथा स्वावलंबी बनना चाहते हैं क्योंकि एक तो उन्हें अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु धन की आवश्यकता होती है दूसरे वे यह मानने लगते हैं कि वे अब बड़े हो गये हैं एवं उन्हें माता-पिता पर बोझ नही बनना चाहिए। अनेक किशोर धन प्राप्ति के लिए अनैतिक तथा आपराधिक कार्यों में लिप्त हो जाते हैं। इस समस्या को दूर करने के लिए उनको समुचित निर्देशन दिया जाना चाहिए। 

7. कल्पनाशील क्रियाओं की समस्या 

किशोरावस्था में किशोर बालक-बालिकायें कल्पना जगत में विचरण करते रहते हैं। वास्तविक संसार से उनका कोई सरोकार नहीं रहता। वे अपना अलग ही कल्पना का संसार संजोये रहते हैं तथा दिवास्वप्नों में खोये रहते हैं। कल्पना के द्वारा वे अपनी अतृप्त इच्छाओं को पूर्ण करने की कोशिश करते हैं। जिन वस्तुओं को उनको अभाव होता है, उनको वे कल्पना के द्वारा पूरा कर लेते हैं। माता-पिता तथा शिक्षकों को चाहिए कि उनको कल्पना को सृजनात्मक कार्य में लगायें। 

8. व्यवसाय चयन की समस्या 

किशोरों की एक प्रमुख समस्या व्यवसाय का चुनाव करने की होती है। इस अवस्था में वे अपने लिए उपयुक्त व्यवसाय को चुनने, उसके लिए तैयारी करने, उसमें प्रवेश करने तथा उसमें उन्नति करने के लिए अत्यधिक चिंतित रहते हैं। पर व्यवसाय के संबंध मे उनका चिंतन बड़ा अवास्तविक होता है। वे साधारण व्यवसायों को पसंद नही करते वरन् ऐसे व्यवसायों को चुनना चाहते हैं जो उनकी योग्यता से बहुत ऊंचे होते हैं। 

9. नैतिक और सामाजिक मूल्यों की समस्या 

किशोर बालक-बालिकाओं के सामने नैतिक तथा सामाजिक मूल्यों की समस्या भी अत्यंत कठिन होती हैं। वे इन मूल्यों में बंध महसूस करते हैं एवं इनको अपनी स्वतंत्रता में बाधक मानते हैं। माता-पिता, अध्यापक तथा समाज किशोरों से इन मूल्यों का पालन करने की अपेक्षा रखते हैं और किशोर अपनी एवं अपने साथियों की इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति करना चाहते हैं जिससे इन दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित करने में कठिनाई आती है तथा वे दुविधा में फँस जाते हैं। माता-पिता और शिक्षकों का कर्तव्य है कि वे किशोरों के आत्म सम्मान को बनाये रखकर और उनकी उचित इच्छाओं एवं आकांक्षाओं के अनुरूप उनकी सहायता करें।

किशोरावस्था के विकास के सिद्धांत (kishoravastha ke siddhant)

किशोरावस्था में परिवर्तन से संबंधित दो सिद्धांत प्रचलित हैं-- 

1. आकस्मिक विकास का सिद्धांत 

इस सिद्धांत के प्रतिपादक स्टेनले हाल हैं। उनके अनुसार," किशोरावस्था के परिवर्तन का संबंध न तो शैशवावस्था से होता है तथा न बाल्यावस्था से। इस तरह किशोरावस्था एक नया जन्म कहा जा सकता है। इस अवस्था में बालक में जो परिवर्तन आते हैं, वे परिवर्तन आकस्मिक होते हैं।" 

2. क्रमशः विकास का सिद्धांत 

इस सिद्धांत के अनुसार," किशोरावस्था के परिवर्तन अचानक न होकर क्रमशः होते है। किंग का कथन है," जिस तरह एक ॠतु का आगमन दूसरी ॠतु के बाद होता है, लेकिन पहली ऋतु में दुसरी ऋतु के आने के लक्षण प्रतीत होने लगते हैं, उसी तरह बालक की अवस्थाएं भी एक-दूसरे से संबंधित होती हैं।" 

किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप 

kishoravastha me shiksha ka svarup;किशोरावस्था को परिवर्तनों का काल माना जाता है। किशोरावस्था मे बालक दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए हमेशा असाधारण कार्य करने का प्रयत्न करता है। ऐसे कार्यों मे सफलता उसे प्रोत्साहित करती है लेकिन असफल होने पर उसे अपना जीवन सारहीन लगने लगता है। इस अवस्था को चरित्र-निर्माण की नींव कहा जाता है। इसलिए बालक का जीवनोपयोगी सार्थक शिक्षा प्रदान करने की बेहद आवश्यकता होती हैं। 

किशोरावस्था में तीव्र शारीरिक विकास होने के कारण स्वास्थ्य संबंधी जानकारी देना बहुत ही आवश्यक होता है। पाठशाला या शाला में स्वास्थ्य की उचित देखभाल खेल-कूद, व्यायाम, शारीरिक एवं स्वास्थ्य शिक्षा, चिकित्सा शिविर आदि की व्यवस्था होनी चाहिए। किशोरावस्था में शिक्षा के स्वरूप को निम्नलिखित प्रकार से दर्शाया गया हैं--

1. शारीरिक विकास हेतु शिक्षा 

किशोरावस्था में शरीर में कई क्रांतिकारी परिवर्तन होते हैं, जिनको उचित शिक्षा प्रदान करके शरीर को सबल तथा सुडौल बनने का उत्तरदायित्‍व विद्यालय पर हैं। अतः उसे निम्न का आयोजन करना चाहिए-- 

(अ) शारीरिक तथा स्वास्थ्य-शिक्षा, 

(ब) विभिन्न तरह के शारीरिक व्यायाम, 

(स) सभी तरह के खेल-कूद आदि। 

2. मानसिक विकास हेतु शिक्षा 

किशोर की मानसिक शक्तियों का सर्वोत्तम तथा अधिकतम विकास करने के लिए शिक्षा का स्वरूप उसकी रूचियों, रूझानों, दृष्टिकोणों तथा योग्यताओं के अनुरूप होना चाहिए। अतः उसकी शिक्षा में निम्न को स्थान दिया जाना चाहिए-- 

(अ) कला, विज्ञान, साहित्य, भूगोल, इतिहास आदि सामान्य विद्यालय-विषय, 

(ब) किशोर की जिज्ञासा को संतुष्ट करने तथा उसकी निरीक्षण-शक्ति को प्रशिक्षित करने हेतु प्राकृतिक, ऐतिहासिक, आदि स्थानों का भ्रमण, 

(स) उसकी रूचियों, कल्पनाओं तथा दिवास्वप्नों को साकार बनाने हेतु पयर्टन, वाद-विवाद, कविता-लेखन, साहित्यिक गोष्ठी आदि पाठ्यक्रम-सहगामी क्रियाएं। 

3. संवेगात्मक विकास हेतु शिक्षा

किशोर कई तरह के संवेगो में संघर्ष करता है। इन संवेगों में से कुछ उत्तम तथा कुछ निकृष्ट होते हैं। अतः शिक्षा में इस तरह के विषयों तथा पाठ्यक्रम-सहगामी, क्रियाओं को स्थान दिया जाना चाहिए, जो निकृष्ट संवेगों का दमन या मार्गान्तरीकरण तथा उत्तम संवेगों का विकास करें। इस उद्देश्‍य से कला, विज्ञान, साहित्य, संगीत, सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि की उचित व्यवस्था की जानी चाहिए। 

4. सामाजिक संबंधों की शिक्षा 

किशोर अपने समूह को बहुत महत्व देता है तथा उसमें आचार-व्यवहार की कई बातें सीखता है। अतः विद्यालय में ऐसे समूहों का संगठन किया जाना चाहिए, जिनकी सदस्यता ग्रहण करके किशोर उत्तम सामाजिक व्यवहार तथा संबंधों के पाठ सीख सके। इस दिशा में सामूहिक क्रियाएं, सामूहिक खेल तथा स्काउटिंग बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। 

5. व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुसार शिक्षा

किशोर में व्यक्तिगत विभिन्नताओं तथा आवश्यकताओं को सभी शिक्षाविद स्वीकार करते है। अतः विद्यालयों में विभिन्न पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की जानी चाहिए। जिससे किशोरों की व्यक्तिगत माँगों को पूर्ण किया जा सके।

6. पूर्व-व्यावसायिक शिक्षा 

किशोर अपने भावी जीवन में किसी न किसी व्यवसाय में प्रवेश करने की योजना बनाता है। लेकिन वह यह नही जानता है कि कौनसा व्यवसाय उसके लिए सबसे ज्यादा उपयुक्त होगा। उसे इस बात का ज्ञान प्रदान करने हेतु विद्यालय में कुछ व्यवसायों की प्रारंभिक शिक्षा दी जानी चाहिए। इसी बात को ध्यान में रखकर हमारे देश के बहुद्देश्यीय विद्यालयों में व्यावसायिक विषयों की शिक्षा की व्यवस्था की गयी है। 

7. जीवन-दर्शन की शिक्षा 

किशोर अपने जीवन-दर्शन का निर्माण चाहता है लेकिन उचित पथ-प्रदर्शन के अभाव मे वह ऐसा करने मे असमर्थ रहता है। इस कार्य का उत्तरदायित्‍व विद्यालय पर हैं। इसका समर्थन करते हुए ब्लेयर, जोन्स तथा सिम्पसन ने लिखा हैं," किशोर को हमारे जनतंत्रीय दर्शन के अनुरूप जीवन के प्रति दृष्टिकोणों का विकास करने में मदद देने का महान् उत्तरदायित्‍व विद्यालय पर हैं।" 

8. धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा

किशोर के मस्तिष्क में विरोधी विचारों में लगातार द्वंद्व होता रहता है। फलस्वरूप, वह उचित व्यवहार के संबंध में किसी निश्चित निष्कर्ष पर नही पहुँच पाता है। अतः उसे उदार, धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा दी जानी चाहिए, ताकि उचित तथा अनुचित में अंतर करके अपने व्यवहार को समाज के नैतिक मूल्यों के अनुकूल बना सके। 

9. यौन शिक्षा 

किशोर बालकों तथा बालिकाओं की अधिकांश समस्याओं का संबंध उनकी काम-प्रवृत्ति से होता है। अतः विद्यालय में यौन-शिक्षा की व्यवस्था होना बहुत जरूरी हैं। 

10. बालकों तथा बालिकाओं के पाठ्यक्रम में विभिन्नता 

बालकों तथा बालिकाओं के पाठ्यक्रमों में विभिन्नता होना अति आवश्यक है। इसका कारण बताते हुए बी. एन. झा ने लिखा हैं," लिंग-भेद के कारण तथा इस विचार से कि बालकों एवं बालिकाओं को भावी जीवन में समाज में विभिन्न कार्य करते हैं, दोनों के पाठ्यक्रमों में विभिन्नता होनी चाहिए।" 

11. उपर्युक्त शिक्षण-विधियों का प्रयोग 

किशोर में स्वयं परीक्षण, निरीक्षण, विचार तथा तर्क करने की प्रवृत्ति होती है। अतः उसे शिक्षा देने हेतु परंपरागत विधियों का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। उसके लिए किस तरह की शिक्षण-विधियाँ उपयुक्त हो सकती हैं, इस संबंध में राॅस का मत हैं," विषयों का शिक्षण व्यावहारिक ढंग से किया जाना चाहिए तथा उनका दैनिक जीवन की बातों से प्रत्यक्ष संबंध स्थापित किया जाना चाहिए।" 

12. किशोर के प्रति वयस्क जैसा व्यवहार 

किशोर को न तो बालक समझना चाहिए तथा न उसके प्रति बालक जैसा व्यवहार किया जाना चाहिए। इसके विपरीत, उसके प्रति वयस्क जैसा व्यवहार किया जाना चाहिए। 

13. किशोर के महत्व को मान्यता 

किशोर मे उचित महत्व तथा उचित स्थिति प्राप्‍त करने की प्रबल इच्छा होती हैं। उसकी इस इच्छा को पूरा करने के लिए उसे उत्तरदायित्‍व के कार्य दिये जाने चाहिए। इस उद्देश्‍य से सामाजिक क्रियाओं, छात्र-स्वशासन तथा युवक गोष्ठियों का संगठन किया जाना चाहिए। 

14. अपराध-प्रवृत्ति पर अंकुश 

किशोर में अपराध करने की प्रवृत्ति का प्रमुख कारण है निराशा! इस कारण को दूर करके उसकी अपराध प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जा सकता हैं। विद्यालय, उसको अपनी उपयोगिता का अनुभव कराके उसकी निराशा को कम कर सकता है तथा इस तरह उसकी अपराध-प्रवृत्ति को कम कर सकता हैं। 

15. किशोर-निर्देशन 

स्किनर के शब्दों में," किशोर को निर्णय करने का कोई अनुभव नही होता है।" अतः वह स्वयं किसी बात का निर्णय नही कर पाता है तथा वह चाहता है कि कोई उसे इस कार्य में निर्देशन एवं परामर्श दे। यह उत्तरदायित्‍व उसके अध्यापकों तथा अभिभावकों को लेना चाहिए।

यह जानकारी आपके के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी

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