6/29/2021

सामाजिक विघटन के लक्षण

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सामाजिक विघटन के लक्षण 

सामाजिक विघटन के  इस प्रकार है--

समाज में विघटन आरंभ होने से पूर्व विघटन के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। जैसे किसी रोगी को समझने के लिए उसके लक्षण जानना जरूरी होता है उसी प्रकार सामाजिक विघटन के लक्षण ज्ञात करना आवश्यक है। सामाजिक विघटन के निम्न लक्षण है--

1. रूढ़ियों और संस्थाओं मे संघर्ष 

सामाजिक ढांचे में रूढ़ियों और संस्थाओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इनकी भूमिका सामाजिक संगठन को बनाए रखती हैं। सहयोगात्मक संगठित समाज की रूढ़ियां अनेक संस्थाओं को एक स्वस्थ नैतिक बंधन में बांधे रहती हैं और विभिन्न संस्थाओं के मध्य संतुलन बनाए रखती हैं। जिससे परिवार पड़ोस, स्कूल, चर्च, सरकार, धर्म और आर्थिक संस्थाएं  इत्यादि।  इन संस्थाओं में जब परस्पर सामंजस्य नही रह जाता तो सामाजिक विघटन की गति तीव्रता से होने लगती है।

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संस्थाओं में जब नवीन प्राचीन बातों और महत्व को लेकर संघर्ष उत्पन्न होने लगते हैं तो विभिन्न संस्थाओं के मध्य सहयोग की भावना ही नष्ट नहीं होती बल्कि उनके मध्य संघर्ष की भावना भी उत्पन्न हो जाती है। उदाहरण के लिए भारत में जाति प्रथा एवं विवाह संबंधित रूढ़ियों में आश्चर्यजनक परिवर्तन हो रहा है। इससे संबंधित अनेक रूढ़ियां समाप्त होती जा रही है। रूढ़ियां ही समाप्त नहीं हो रही बल्कि नवीन संस्थाओं का जन्म भी हो रहा है। यह नवीन संस्थाएं नवीन मूल्य, नियमों को उत्पन्न कर रही हैं जिससे समाज में प्राचीन एवं नवीन के मध्य संघर्ष हो रहा है। इस संघर्ष से समाज विघटन की ओर अग्रसर हो रहा है क्योंकि इस संघर्ष ने समाज में परिवर्तन की कोई निश्चित दिशा निर्धारित नहीं की है। रूढ़ियों और संस्थाओं के मध्य संघर्ष हो रहा है निकट भविष्य में कोई पड़ाव नजर नहीं आता है, जहां रूढ़ियों और संस्थाओं के मध्य संघर्ष समाप्त हो जाए और संस्था संगठित होकर कार्य करने लगे।

2. एक समूह के कार्यों का हस्तांतरण 

भारतीय समाज में अधिकांशतः सारे कार्य परिवार तथा धार्मिक संस्थाओं के माध्यम से किए जाते हैं। किंतु आधुनिक भारत में अनेक कार्य जो परिवार एवं धार्मिक संस्थाओं के द्वारा पूर्ण होते थे, वे आज अन्य समूह तथा संस्थाओं के द्वारा होते हैं। जैसे पहले बच्चों का पालन पोषण, शिक्षा-दीक्षा परिवार में होती थी किंतु आज बच्चों के अनेक शिशु-गृह है, जहां बच्चे पाले जाते हैं। शिक्षा के लिए स्कूल खुल गए हैं केवल इतना ही नहीं भोजन बनाने का कार्य परिवार से होटल को हस्तांतरित हो गया है। विवाह का कार्य धार्मिक संस्थाओं से निकलकर कचहरी और कानून की सीमाओं में पहुंच गया है। इस तरह संगठित समाज में प्रत्येक कार्य निश्चित होता है। किंतु विघटित समाज में अनेक ऐसे समूह और संस्थाएं स्थापित होने लगती हैं जो किसी भी प्रकार का कार्य कर रही है यह सामाजिक विघटन का लक्षण है।

3. वैयक्तिक भेद तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता 

व्यक्ति जब अपनी आवश्यकताओं रुचियों, रुझानों हितों को अन्य व्यक्तियों की तुलना में प्राथमिकता देने लगता है और बिना किसी की परवाह किए और चिंता किए हुए अपनी आवश्यकताओं अथवा रूचियों को पूर्ण करना चाहता है। तो सामाजिक विघटन होता है। 

दूसरे शब्दों में व्यक्ति के मध्य भेद, संघर्ष, कटुता आदि उत्पन्न हो जाते हैं। वास्तव में व्यक्तिवाद में व्यक्ति अपने को सभी बंधन से मुक्त करना चाहता है। वह किसी बंधन में बंधकर कार्य नहीं करना चाहता वह स्वतंत्र रूप से रहना, कार्य करना, घूमना-फिरना चाहता है। समाज के अधिकांश व्यक्ति जब अपनी इच्छा अनुसार कार्य करने लगते हैं तो समाज में विघटन के सिवा और क्या उत्पन्न हो सकता है? यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता दो प्रकार से सामाजिक विघटन उत्पन्न करती है--

(अ) व्यक्तिवादी संस्कृति के सभी बंधनों को तोड़ता है और स्वयं व्यक्ति अपने को बंधनों से मुक्त रखना चाहता है।

(ब) व्यक्ति की क्रिया संपूर्ण समाज में धर्म एवं वैयक्तिक मतभेद को उत्पन्न करती हैं।

4. सामाजिक ढांचे मे परिवर्तन 

प्रत्येक समाज में लिंग, जाति, परिवारिक संबंध, देश तथा स्थान के अनुसार व्यक्तियों की स्थिति और कार्य निश्चित होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति चाहे स्त्री हो अथवा पुरुष अपनी जाति धर्म आदि के द्वारा कार्य करते हैं। तब समाज संगठित रूप से कार्य करता रहता है। किंतु जब व्यक्तियों की स्थिति और कार्यों में परिवर्तन होने लगते हैं तब समाज में विघटन प्रारंभ होता है। आधुनिक भारत में स्त्री का कार्य-क्षेत्र केवल परिवार ही नहीं रहा। वह अनेक क्षेत्रों में कार्य करती है इसी पर किसी भी जाति का पुरुष जूते की दुकान खोलकर या धोबी का कार्य लान्डी खोलकर कर सकता है। इस प्रकार जब समाज की संरचना में तेजी से परिवर्तन होना आरंभ हो जाता है तब सामाजिक विघटन होने लगता है।

5. सामाजिक मूल्यों मे परिवर्तन 

प्रत्येक समाज के अपने मूल्य हैं यह मूल्य विभिन्न प्रकार की रूढ़ियों, परंपराओं, विश्वासों से जुड़े हैं। इन मूल्यों में जब परिवर्तन होना आरंभ हो जाता है तब सामाजिक विघटन होता है। उदाहरण के लिए संयुक्त परिवार में अनेक मूल्य जुड़े हुए हैं। सामाजिक सुरक्षा, सहयोग पूर्ण जीवन, सहिष्णुता, प्रेम, लगाव इत्यादि मूल्यों ने संयुक्त परिवार को जीवित रखा हैं  किंतु आज यह मूल्य परिवर्तित होते जा रहे हैं यह सामाजिक विघटन के लक्षण है। 

कुछ विद्वानों ने सामाजिक विघटन के कुछ अन्य लक्षण भी बताये है--

फैरिस के अनुसार सामाजिक विघटन के लक्षण इस प्रकार है--

1. पवित्र विचारों का ह्रास,

2. स्वार्थी एवं रूचि मे व्यक्तिगत भेद

3. दिखावा,

4. व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अधिकारों पर बल,

5. सुखवादी व्यवहार,

6. जनसंख्या मे भिन्नता ,

7. पारस्परिक अविश्वास ,

8. अशान्ति की स्थिति,

इलियट और मेरिल के अनुसार," अपराध, बेकारी, यौन संबंधी रोग, अशिक्षा, तलाक, गतिशीलता, बीमारी यह भी समाज के विभिन्न प्रकार के विघटन की ओर स्पष्ट संकेत करती हैं।"

आगबर्न और निमकाफ का विचार है," कि जिस समाज में सदैव प्रगति सुधार तथा नवीन प्रकार का निरंतर प्रयास होता रहता हैं, वहां सामाजिक परिवर्तन शीघ्र होते हैं। क्योंकि इस प्रकार के समाज में प्रत्यक्ष रूप से त्रुटी की क्रिया होती रहती है। इसलिए इस प्रकार के समाज में विघटन शीघ्र आरंभ होता है।" 

श्री मावरर इस तथ्य पर अधिक बल देते हैं," कि जिस समाज में नवीन प्रकार की खोजें एवं अविष्कार अधिक होते हैं वहां सामाजिक विघटन के लक्षण शीघ्रता से देखे जा सकते हैं।

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