औरंगजेब का प्रारंभिक जीवन तथा उसका शासनकाल
औरंगजेब का जन्म 24 अक्टुबर 1618 ई. को गुजरात में दोहद नामक स्थान पर हुआ था। औरंगजेब शाहजहां तथा मुमताज महल की चौदह संतानों में से तीसरा पुत्र था।
औरंगजेब की शिक्षा
औरंगजेब की शिक्षा मुहम्मद हाशिम जीलानी के मार्गदर्शन में हुई थी। वह तीक्ष्ण बुद्धि का बालक था। उसने कुरान तथा हदीस का गहन अध्ययन कर नक्श लिखने में विशेष योग्यता प्राप्त की थी। भाषाओं में औरंगजेब को तुर्की, अरबी एंव हिन्दी का अच्छा ज्ञान प्राप्त था। उसने कुरान कंठस्थ कर ली थी।
प्रारंभ से ही वह निर्दयी प्रवृत्ति का कट्टर मुसलमान बन गया था। औरंगजेब ने यथोचित सैन्य शिक्षा प्राप्त की थी। वह निर्भीक, धैर्यवान एंव सैन्य गुणों से युक्त राजकुमार था।
दक्षिण का सूबेदार
1635 ई. औरंगजेब आठ वर्षो तक दक्षिण का सूबेदार रहा। इस काल में उसने गोलकुंडा एंव अहमदनगर के कुछ भागों को मुगल साम्राज्य में मिलाकर दोनों राज्यों की शक्ति क्षीण कर दी।
विवाह
दक्षिण में औरंगजेब ने कई क्षेत्र राजसात कर खानदेश से सूरत तक मुगल सत्ता स्थापित कर दी। सन् 1637 में उसका विवाह ईरानी वंश की राजकुमारी दिलरस बानू बेगम से हो गया। जिससे शाहजहां आजम और अकरम संतानें प्राप्त हुई थीं।
दक्षिण की द्वितीय सूबेदारी
1652 ई.-1657 ई. के मध्य औरंगजेब को पुनः दक्षिण की सूबेदारी मिली इन पांच वर्षो में औरंगजेब ने कुशल प्रशासक होने का परिचय दिया था।
उसने राजस्व व्यवस्था, कृषि सुधार और वित्तीय सुधार कर दक्षिण के अव्यवस्थित प्रशासन को मजबूत बना दिया। औरंगजेब ने सेना से वृद्ध तथा निरर्थक सैनिकों को हटाकर नवीन सैन्य व्यवस्था स्थापित की।
औरंगजेब ने गोलकुंडा की स्थिति का लाभ उठाकर उस पर आक्रमण कर घेर लिया, पर शाहजहां ने गोलकुंडा के मुगल साम्राज्य में विलय पर रोक लगा दी अतः औरंगजेब ने गोलकुंडा से संधि करके युद्ध हर्जाना वसूल किया। उसे अपनी योजना स्थागित करना पड़ी। औरंगजेब ने बीजापुर में हस्तक्षेप कर बीदर तथा कल्याणी के दुर्गो पर अधिकार कर लिया। बीजापुर की सेना को गुलबर्गा के युद्ध में परास्त करने के पश्चात् औरंगजेब बीजापुर पर अधिकार कर मुगल साम्राज्य में शामिल करना चाहता था। शाहजहां ने इस पर भी रोक लगा दी थी। गोलकुंडा तथा बीजपुर के प्रकरणों को औरंगजेब परोक्ष रूप से दारा का हस्तक्षेप मानता था। इसलिए दारा के प्रति उसके मन में द्वेष की ज्वालाएं धधकने लगीं।
औरंगजेब का सत्ता का हत्या लेना
शाहजहां मृत्यु की अफवाह से दिल्ली के सिहांसन के लिए लालायित औरंगजेब दक्षिण से तत्काल दिल्ली के लिए रवाना हो गया। यह उत्तराधिकार युद्ध का प्रारंभ था। उसने दारा, शुजा तथा मुराद से संघर्ष एंव युद्ध कर तीनों प्रतिद्वंद्वियों को समाप्त कर दिया। औरंगजेब ने तीनों की संतानों की भी हत्या कर दी।
एक खुनी संघर्ष के बाद शाहजहां को कैदखानें में डालकर औरंगजेब ने 5 जुन, 1659 को शान-शौकत तथा धूमधाम से दिल्ली में राज्यारोहण संपन्न कराया। औरंगजेब ने ‘‘अब्दुल मुहीउद्दीन मुहम्मद औरंगजेब बहादुर आलमगीर पादशाह गाजी‘‘ की उपाधि धारण की।‘‘
औरंगजेब की धार्मिक नीति
औरंगजेब एक सच्चा और कट्टार मुसलमान था। वह भीषण युद्ध में भी नमाज के समय वह घोड़े से उतरकर नमाज पढ़ने लग जाता था। एक सच्चे मुसलमान की तरह जीना निश्चित ही कए प्रशंसनीय बात थी परन्तु साम्राज्य को एक धर्म तंत्र में बदल देना औरंगजेब की बड़ी भुल सिद्ध हुई। इसे एक विडम्बना ही कहा जायेगा कि मुगल साम्राज्य का अधिकतम विस्तार औरंगजेब के काल में ही हुआ और उसकी धार्मिक नीति मुगल साम्राज्य के पतन का एक प्रमुख कारण बनी। कुछ उदाहरण ऐसे जरूर हैं जबकि औरंगजेब के काल में उसके किन्ही सूबेदारों द्वारा कुछ मंदिरों को कई अनुदान दिये गये। जैसे उज्जैन के महाकाल मंदिर में लगने वाले आवश्यक घी के लिए अनुदान की व्यवस्था की गयी। बुरहानपुर, असीरगढ़, आदि स्थानों पर मस्जिदों में अंकित संस्कृत शिलालेखों को भी नहीं हटाया गया। ऐसे उदाहरण अपवाद स्वरूप ही हैं। वे किसी उदार या सहिष्णु धार्मिक नीति के अंग नही थे। मिर्जा राजा जयसिंह, दीवान राय रधुनाथ तथा राजा जसबन्तसिंह की मृत्यु के बाद सेना और प्रशासन में गैर मुसलमानों का महत्व भी समाप्त हो गया।
अतः औरंगजेब की धार्मिक नीति की समीक्षा करना हो तो एक शब्द में की जा सकती है और वह है ‘‘धर्मान्धता‘‘
प्रतिक्रिया का युग
सबसे पहले तो औरंगजेब ने उन नियमों को रोका जिन्हें अकबर ने लागू किया था, क्योकि वे इस्लाम के अनुकूल नहीं थीं। औरंगजेब ने इस्लाम धर्म की सुन्नी शाखा को राज्य धर्म घेाषित किया तथा वह भारत को एक इस्लामी देश बनाना चाहता था। उसने अकबर के दीन-ए-इलाही धर्म को रोक दिया जो सुर्य सिद्धान्त पर आधारित था। इसने अपने शासन के दौरान सूर्य पूजा, सूर्य नाम का जाप बन्द करवा दिया। झरोखा दर्शन को वह हिन्दू परम्परा मानता था अतः इसे समाप्त किया। अकबर दीपावली, विजयादशमी आदि हिन्दू त्योहारों को मनाता था। राजपरिवार मे इनका निषेध किया और जनता में मनाने को मना किया तथा मनाने पर दण्ड घोषित किये। जसबन्त सिंह की मृत्यु के बाद जजिया और तीर्थयात्रा कर लगाये जो हिन्दूओं से वसूल किये जाते थे। उसने आदेश दिया कि हिन्दू ईराकी, ईरानी वेश, घोड़े, पालकी का प्रयोग न करे और शस्त्र लेकर ने चलें।
सरकारी सेवायें से निष्कासन
औरंगजेब हिन्दू, शिया, सिक्ख और अन्य पन्थों को शक और शत्रुता से देखता था। इन्हें नौकरियों में रखने का भी प्रश्न नही था बल्कि जो थे उन्हें भी निकाल दिया गया और नहीं निकाल पाया तो उसने उनकी किसी भी प्रकार से हत्या करवा दी या अलग दूर भेज दिया।
हिन्दूओं की हत्या
इसी के समय में जसबन्त सिंह को विष देकर सन् 1678 ई. में इसलिए हत्या करवा दी कि उसने कभी दारा का साथ दिया था और जयसिंह को भी कटक पार भेज दिया था। पृथ्वीसिंह जो चित्तौड का शासक था, को बुलाकर कपटपूर्वक सम्मान किया और विष-बुझा वस्त्र पहनाया जिससे उसकी मृत्यु हो गई। जसबन्त सिंह की पत्नि और परिवार जमरूद से जोधपुर जा रहा था तो मार्ग में अजीतसिंह का जन्म हुआ। इस पर औरंगजेब ने मां और पुत्र को उसके हरम मे भेजने को कहा। दुर्गादास ने इसे अपमान समझा तथा उसकी रक्षा की और वह मुगलों को तत्पर हो गया। गुरू हरराय की हत्या दारा के उनमें विश्वास के कारण करवा दी। सन् 1675 ई. में गुरू तेगबहादूर की भी हत्या की गई, क्योकि उन्होनें अत्याचारों का विरोध किया। गुरू गोविन्दसिंह के दो पुत्रों जोरावर सिंह और फतेहसिंह का भी कत्ल किया गया। सन् 1689 ई. में शम्भाजी का भी वध किया गया। शिवाजी उसके हाथ से निकल गये अन्यथा उनकी भी हत्या की वह योजना बना रहा था।
हिन्दूओं पर कर
औरंगजेब ने हिन्दूओं पर पांच प्रतिशत चुंगी लगाई और मुसलमानों को इससे मुक्त रखा। हिन्दूओं के बाग-बगीजों पर भी पांच प्रतिशत चुंगी तथा पैदावार पर 20 प्रतिशत कर लगाया जबकि मुसलमानों पर 16.6 प्रतिशत था। पशु बेचने पर हिन्दूओं को पांच प्रतिशत और मुसलमान को ढाई प्रतिशत कर देना पड़ता था। जजिया और तीर्थयात्रा कर भी लगाये गये।
धार्मिक नीति के परिणाम
औरंगजेब की धार्मिक नीति के परिणाम साम्राज्य पर घातक पड़े। औरंगजेब ने अपनी धार्मिक नीति के कारण हिन्दू और शिया संप्रदाय के मुसलमानों को असंतुष्ट कर दिया था। धर्म के अपमान के कारण हिन्दूओं के सम्मान को गहरा आघात पहुंचा और कुछ हिन्दू सरदारों के हृदय में बदले की ज्वाला भड़क उठी। चारों ओर सम्राट के ऊपर विपत्तियों का पहाड़ सा गिर पड़ा। मुगल साम्राज्य के अधिकांश प्रांतो में चारों ओर विद्रोह एंव अशांति ही दिखाई देने लगी। जाटों ने ,सतनामियों ने, सिक्खों ने एंव राजपूतों के कुछ सरदारों ने औरंगजेब के खिलाफ विद्रोह कर दिया। हिन्दू विरोधी नीति के कारण ही औरंगजेब ने राजपूतो को अपना शत्रु बना लिया था। राजपुत जिन्होनें मुगल वंशो के संगठन एंव साम्राज्यवाद विस्तार में पूरा-पूरा सहयोग दिया था, वे ही अब मुगल साम्राज्य के पतन के लिए उत्तरदायी थे।
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