3/30/2021

शेरशाह और हुमायूं का संघर्ष

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शेरशाह और हुमायूं का संघर्ष 

शेरशाह एक महत्‍वाकांक्षी अफगान था। जब बिहार अफगान मुहम्‍मद अली और उसके समर्थकों ने जौनपुर पर आक्रमण किया और हुमायूं ने इन्‍हें ‘दोहिरा‘ या ‘दादरा‘ के युद्ध में पराजित किया उस समय शेरशाह इसलिये मौन रहा कि ऐसा करने से हुमायूं शेरशाह का चुनार पर अधिकार स्‍वीकार कर लेगा। किन्‍तु यह आशा उस समय धूल में  मिल गई जब‍ हुमायूं ने अपने एक सरदार हिन्‍दूबेग को चुनार पर आक्रमण करने भेजा। स्‍वंय भी आक्रमण करने गया। 

हुमायूं-बहादूरशाह के संघर्षो से लाभ उठाया 

हुमायूं शेरशाह की चालाकी को समझ नहीं सका। शेरशाह अपने द्वितीय पुत्र जलाल खां के नेतृत्‍व में किले को छोड़कर बिहार चला आया। हुमायूं शेरशाह को रोकने में असफल रहा। इधर शेरशाह ग्‍वालियर आकर गुजरात के बहादुरशाह की गतिविधियों को देखने लगा। उसने एक ओर तो बहादुरशाह से सम्‍पर्क बढ़ाया और दूसरी ओर बंगाल के शासक नसरत खां से सम्‍बन्‍ध स्‍थापित कर लिया। 

हुमांयू के पास अच्‍छी तोपें और गोला-बारूद नहीं था, सेना भी अनियंत्रित, विद्रोहात्‍मक भावनाओं से भरी होने पर भी हुमायूं ने अपनी सेना पर कुशलतापूर्वक नियंत्रण रखा। इसे देखकर और अपनी शक्ति बढ़ाने के उद्देश्‍य से बहादूरशाह ने भारी मात्रा में उपहार देकर एक राजदूत हुमायूं के पास भेजा, परन्‍तु वह हुमायूं पर कई दिशाओं से एक साथ आक्रमण करने की योजना बनाता रहा और हुमायूं के एक भागे हुये बहनोई मुहम्‍मद जमान मिर्जा को अपने यहां शरण दी। हुमायूं को यह चाल समझने में काफी समय लगा तब तक शेरशाह ने अपनी तैयारी कर ली। यद्यपि हुमायूं ने बहादूरशाह को पराजित किया, उसका तोपची रूमी खां मुगलों से मिल गया। बहादुरशाह भागकर डियु चला गया हूमायूं उसे पूरी तरह पराजित किये बिना अस्‍करी को राज्‍य सौपकर चला गया। उसके लौटते ही अफगान सरदारों ने अस्‍करी और मुगल सेना को भगा दिया तथा बहादूरशाह को बुलाकर पुनः 1536 ई. में शासक बनाया। इस समय हुमायूं आगरा में था और एक वर्ष तक आराम से बैठा रहा। उसने शेरशाह की कोई चिंता न करके युद्ध के लिये तैयारी का अवसर प्रदान कर दिया। शेरशाह हुमायूं बहादुरशाह संघर्ष से लाभ पहले ही उठा रहा था। अब उसे स्‍वर्ण अवसर मिल गया। 

चैसा का युद्ध 26 जुन, 1539 

गौड़ में आठ माह तक हुमायूं के रूकने का लाभ शेर खां ने पूरी तरह से उठाया। उसकी सेना ने बनारस, कन्‍नोज तथा कड़ा पर अधिकार कर हुमायूं के वापस लौटने का रास्‍ता बंद कर दिया। जौनपुर तथा चुनार के किले पर भी अफगानों ने घेरा डाल दिया। हुमायूं का मुगल प्रदेशो से संपर्क लगभग टूट गया। हुमायूं को यह अपुष्‍ट समाचार प्राप्‍त हुआ कि आगरा में हिन्‍दाल ने विद्रोह कर दिया। उसने जहांगीर कुली बेग 5 हजार सैनिकों के सा‍थ गौड़ छोड़कर आगरा की ओर प्रस्‍थान कर दिया। 

आगरा वापस लौटने के लिए हुमायूं ने गंगा का दक्षिणी तट पार करके ग्राण्‍ड ट्रंक रोड़ पकड़ ली। आगे चलकर गंगा को फिर पार कर उसे उत्तरी किनारे पर आना पड़ा। चैसा नामक स्‍थान पर पहुंचने पर उसे पता चला कि शेर खां की सेना भी करीब आ पहुंची है। दोनों सेनाओं के बीच कर्मनासा नदी थी। करीब तीन माह तक दोनों सेनाएं  आमने-सामने पड़ी रही और इस बीच बरसात का मौसम आ गया। दोनों पक्षों में संधि की बातचीत भी हुई, किन्‍तु उसका कोई परिणाम नहीं निकला। 

26 जून 1539 प्रातः शेर खां ने हुमायूं की सेना पर अचानक आक्रमण कर दिया। मुगल सेना में भागदढ़ मच गयी और वह इधर-उधर बिखर गयी। हुमायूं अपनी जान बचाने के लिए अपने घोड़े सहित गंगा में कूद गया। निजाम नामक एक भिश्‍ती ने उसकी जान बचाई। अपनी मशक के सहारे उसे गंगा के पार पहुंचाया। हुमायूं ने इस भिश्‍ती को आधे दिन का बचन दिया। जेसे-तैसे  हुमायूं और अस्‍करी आगरा पहुंचे। मुहम्‍मद जमान मिर्जा सहित करीब आठ हजार मुगल सैनिक या तो युद्ध मे मारे गये या नदी में डूब गये। 

परिणाम

चैसा युद्ध में शेर खां की सफलता ने उसकी महत्‍वाकांक्षा को काफी बढ़ा दिया। उसने शेरशाह की उपाधि धारण की। स्‍वंय को सुल्‍तान घोषित किया। जल्‍दी ही उसने पूरे बिहार और बंगाल पर अधिकार कर लिया और वहां का स्‍वंतत्र शासक बन गया। हुमायूं और मुगलों के लिए यह युद्ध दुर्भाग्‍यपूर्ण सिद्ध हुआ।  

बिलग्राम का युद्ध 

शेरशाह से चैसा में बुरी तरह परस्‍त होकर हुमायूं आगरा भाग आया और अपने सगे भाइयों में मदद मांगी, परंतु किसी ने उसकी मदद नहीं की। दूसरी ओर शेरशाह आगरा की ओर आ रहा था। अतः हुमायूं ने पुनः सेना का संगठित किया। इस काल में शेरशाह ने बिहार से कन्‍नौज तक प्रदेश जीत लिया तथा 1540 में शेरशाह की सेना बिलग्राम नामक स्‍थान पर पहुंच गई। यहां हुमायूं ने उसके खिलाफ मोर्चा जमाया। अचानक शेरशह ने हुमायूं पर बहुत तेजी से आक्रमण कर दिया। आक्रमण इतना आकस्मिक और तेज था कि हुमायूं अपनी तोपो का भी प्रयोग नहीं कर सका। तब उसको भागने के लिए विवश होना पड़ा। शेरशाह ने उसका पीछा किया तब वह आगरा से भी भाग निकला। इसी समय शेरशाह का आगरा और दिल्‍ली पर अधिकार हो गया। हुमांयू 1554 तक भटकता रहा और अंत में फारस की ओर भाग गया। 

निष्‍कर्ष 

शेरशाह-हुमायूं संघर्ष में यह बात स्‍पष्‍ट हो गई कि शेरशाह हुमायूं की तुलना में बहुत सतर्क, युद्ध के लिए  तैयार और शत्रु की कमजोरी का लाभ उठाने के लिए अवसर की खोज में रहता था। हुमायूं ने सैनिक शक्ति के साथ आक्रमण की योजना बनाई, शेरशाह ने उसे अवसर नहीं दिया परंतु जब वह असावधान और संगीत में डूबा रहता था अचानक हमला करके उसे भागने पर विवश कर दिया और उसकी सैनिक शक्ति को भारी क्षति पहुंचाने में सफलता पाई। अंत में देश से ही नहीं पाया परंतु जब चैसा में शेरशाह ने ठोकर मारी तो नदी में कूदकर उसे अपनी जान बजाना पड़ी और बिलग्राम की अंतिम ठोकर ने उसे फारस की ओर भगा दिया। 

दोनों संघर्ष से यह भी स्‍पष्‍ट हो गया कि हुमायूं अदूरदर्शी, विलासी था। शत्रु की कमजोरी का उसे पता नहीं था। शत्रु की योजना में फंस जाता था। उसका स्‍वंय का संगठन कमजोर था, वह चापलूसों से घिरा रहता था। उसके सूचना-साधन भ्रष्‍टाचार, स्‍वार्थ और विश्‍वासघातियों के कारण बहुत कमजोर थे। हुमायूं में सैनिक प्रतिभा और मोर्चे के स्‍थान के चुनाव की बुद्धि नहीं थी। युद्धकाल में भी वह मदिरा और कामवासना में लिप्‍त होता था। यह सब दुर्गुण होने से वह बुरी तरह पराजित हो गया। इस संघर्ष से यह स्‍पष्‍ट हो गया कि शेरशाह का साम्राज्‍य और शासन स्‍थापित हो गया है तथा उसके रहते कोई अन्‍य शक्ति दिल्‍ली पर अधिकार नहीं कर सकेगी। मुगल सत्ता का भविष्‍य भारत में समाप्‍त हो गया, जान पड़ा।

यह जानकारी आपके के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी
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