हुमायूं कें शासन की प्रारम्भिक कठिनाइयां या समस्याएं
बाबर की मृत्यु के बाद 30 दिसम्बर 1530 ई. को हुमायूं राजसिहांसन पर बैठा। हूमायूं का अर्थ होता है ‘भाग्यवान‘ परन्तु उससे अधिक अभागा व्यक्ति शायद ही कोई हो। यह ‘अभाग्य‘ कहा जाता है कि उसे उत्तराधिकारी में ही मिला था जिसके कारण उसके सम्मुख अनेक समस्यायें उठ खड़ी हुई, किन्तु हुमायूं के चरित्र में भी अनेक दोष थे। वास्तव में हूमायूं में दूरदर्शिता, योग्यता होती तो वह इन समस्याओं पर सरलता से विजय प्राप्त कर सकता था। परन्तु इनके अभाव में वह स्वंय अपना शत्रु बन गया और इसी कारण उसे जीवन भर भटकाना पड़ा। परन्तु यह हुमायूं का भाग्य ही था कि उसका खोया हुआ सिंहासन उसे मिल गया और उसके सभी प्रबल शत्रु समाप्त हो गये। उसने सभी कठिनाईयों को पार कर लिया। हुमायूँ के सम्मुख निम्न कठिनाईयां/समस्याएं उपस्थित हुई--
1. बाबर की विरासत
उत्तराधिकारी में जो साम्राज्य हुमायूं को प्राप्त हुआ था, वह विखरा हुआ था। उसमें मजबूत शासन व्यवस्था का अभाव था। अर्स काईन इसे ‘जगीरों का समूह मात्र‘ कहता है। रशब्रुक विलियम के अनुसार ‘बाबर ने जो साम्राज्य उत्तराधिकारी में छोड़ा था, वह केवल युद्ध कालीन परिस्थितियों में ही जीवित रह सकता था।‘ शुरू से ही हुमायूं को युद्धों में उलझना पड़ा बाबर ने खुले हाथों से धन बांटा था। राजकोष में पर्याप्त धन न होने से हुमायूं के समक्ष आर्थिक कठिनाई भी थी।
2. तैमूरवंशीय सरदारों की नाराजी
हुमायूं का बहनोई मुहम्मद जमान मिर्जा, चचेरा भाई मुहम्मद सुल्तान मिर्जा और इसके उत्तराधिकारी स्वंय को सत्ता का अधिकारी मानते थे, क्योकि इन्हें अपने वंश पर गर्व था। इनके पास बड़ी-बडी जागीरें भी थी। अतः यह सदैव हुमायूं के लिये संकट उत्पन्न करते रहे।
3. हुमायूं और मुगलों की विलासिता
उस काल में लगभग सभी मुगल विलासी और मदिरा लोभी होते थे। बाबर स्वंय सुराप्रेमी था। परन्तु युद्ध की असफलता मे उसने मदिरा न पीने की कसम खाई थी। हुमायूं हर युद्ध के बाद मुगल सरदारों के साथ मदिरा पीने और नृत्य देखने में और विलासिता में समय नष्ट करने लगता था और शत्रु इसका लाभ उठाकर मोर्चेबन्दी करके हमला कर देता था। शेरशाह-हुमायूं संघर्ष में सदैव ऐसा ही हुआ। एक-दो बार की पराजय भी उसे पाठ नहीं पढ़ा सकीं।
4. सैनिक तथा राजनैतिक अयोग्यता
हुमायूं में बाबर जैसे सैनिक गुण नहीं थे। उसने राजनैतिक क्षमता थी। हुमायूं शेरशाह की चालों को समझने में असमर्थ था। अपने भाइयों के स्वभावों को जानकर भी क्षमा करना अदूरदर्शिता थी। नदी के ढाल पर डेरा डालना मूर्खता थी। संकट के समय धन को सुरक्षित नहीं रखा। इस प्रकार उसकी तमाम सैनिक और राजनैतिक भूलों ने उसे कठिनाइयों में ही नही डाला बल्कि देश के बाहर ढकेल दिया।
5. शेरशाह और अफगान शक्ति
शेरशाह ने अफगानो को संगठित करके उनमें पुनः राज्य प्राप्त करने की और हुमायूं को पराजित करने की तथा पानीपत में इब्राहिम की पराजय का बदला लेने की आशा और आकांक्षा को जगा दिया। जिसके कारण हुमायूं को शेरशाह से युद्ध के संकट में पड़ना पड़ा और देश छोड़कर भागना पड़ा
हुमायूँ की मृत्यु
24 जनवरी 1556 ई. की संध्या को नमाज का अवसर होने पर वह दिल्ली में पुराने किले में अपने पुस्तकालय की सीढि़यों पर से उतरते समय फिसल गया। उसके मस्तिष्क की हड्डी टूट गई और रक्तस्त्राव हो गया। इससे 27 जनवरी, 1556 ई. केा हुमायूँ का देहावासान हो गया।
निष्कर्ष
हुमायूं के सम्मुख अनेक कठिनाइया उपस्थित हुई परंतु उसने अपने चारित्रिक दुर्गुणो के कारण और विलासी प्रकृति के कारण कठिनाइयों को और बढ़ा दिया।
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