मंगोल कौन थे? (mangolo kon the)
mangolo ka aakraman;भारत के उत्तर-पश्चिम में हिन्दूकुश के पहाड़ों में खैबर, बोलन, कुर्रम, तोची और गोमल के दर्रे अफगानिस्तान, मध्य एशिया एंव ईरान जैसे दूरस्थ प्रदेशों को मार्ग प्रदान करते थे। मध्य युग तक भारत पर इसी दिशा से आक्रमण हुए। मध्य एशिया तथा उससे भी दूरस्थ प्रदेशों में हुई राजनीतिक हलचलें भी इन आक्रमणों का कारण बनी। इन प्रदेशों में समय-समय पर बर्बर, अर्द्ध-सभ्य या सभ्य जातियों का उत्थान हुआ। उन्ही में से एक जाति मंगोल (जिसका अर्थ होता है-बहादूर) थी। जिसने दिल्ली सल्तनत युग में भारत पर लगातार आक्रमण किये तथा दिल्ली सुल्तानों की राजनीति को प्रभावित किया। मंगोल चीन के उत्तर में गोबी रेगिस्तान के निवासी थे।
मंगोल विभिन्न कबीलों में बंटे थे जिनमें आपस में शत्रुता रहती थी। उन्हीं कबीलों में से एक में 1163 में तेमूचिन उर्फ चंगेजखां का जन्म हुआ जिसे महान तथा श्रापित दोनों से पुकारा गया। चंगेजखां ने मंगोलो को संगठित कर मजबूत नेतृत्व प्रदान किया तथा विभिन्न जातियों से युद्ध करते हुए उन्होनें विभिन्न युद्ध शैलियों का अनुभव प्राप्त कर लिया जिसके कारण चंगेजाखां के समय में मंगोल अजेय बन गये तथा उसके बाद भी 14वीं सदी तक एशिया एंव यूरोप में आतंक का कारण बने रहे। ऐसी कट्टर युद्धप्रिय, क्रुर तथा विश्व-विजेता जाति से दिल्ली सल्तनत को संकट उपस्थित हुआ। भाग्य से भारत में मंगोलो के आक्रमण उस समय नही हुए जब उनकी शक्ति चरत पर थी, नही तो, संभवतया, दिल्ली-सल्तनत तथा भारत पर तुर्को की विजय नष्ट हो जाती।
भारत पर मंगोलों का आक्रमण (mangolo ka aakraman)
कुतुबुद्दीन से नासिरुद्दीन के समय तक मंगोल आक्रमण
ख्वारिज्म शाह तथा गोर के झगड़े से भारत को अलग कर कुतुबुद्दीन ऐबक ने स्वंतत्र सल्तनत स्थापित की जो एक बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य था। अगर मंगोल गोर साम्राज्य का अंत करके ख्वारिज्म के शाह पर अधिकार भी करते तो उनका भारत पर आक्रमण करना अनिवार्य नहीं था। अगर वह स्वतंत्र सत्ता स्थापित नहीं करता तो मंगोल भारत को भी उसी साम्राज्य का एक अंग समझने के कारण अनिवार्य रुप से आक्रमण करते।
मंगोल आक्रमण का भय सबसे पहले इल्तुतमिश के समय तब हुआ जब ईरान के युवराज जलालुद्दीन मंगबर्नी का पीछा करता हुआ स्वंय चंगेज खां सिन्धु नदी के तट पर पहुंचा। इल्तुतमिश ने कूटनीति से काम लिया। उसने जलालूद्दीन मंगबर्नी द्वारा मदद के लिए भेजे गए राजदूत का वध करा दिया तथा कहा कि उसके लिए दिल्ली की जलवायु अनुकूल नहीं है। इस तरह उसने कूटनीति का सहारा लेते हुए जलालुद्दीन को सहायता शरण देने से इंकार कर दिया। ऐसी स्थिति में चंगेजखां ने सिन्धु नदी को पार करके दिल्ली सल्तनत की सीमाओं में प्रवेश करने का विचार नहीं किया। तटस्थ राज्य की सीमाओं का उल्लंघन करना भी उचित नहीं समझा। फिर मंगोलो को भारत की जलवायु भी असह्म थी।
रजिया बेगम के शासन काल में मंगोलो की हलचल बढ़ने लगीं। मंगोलो ने अफगानिस्तान पर अपना प्रभाव कायम कर लिया था, लेकिन रजिया ने अपने पिता की नीति अपनाते हुए मंगोलों से कोई संघर्ष मोल नही लिया।
नासिरुद्दीन के समय भी मंगोलों के बहुत से आक्रमण हुऐ। उस समय उत्तर-पश्चिम में मुलतान, सिन्ध मंगोलों के हाथों में चला गया था एंव नासिरुद्दीन या उसके नायब बलबन ने इन प्रदेशों को मंगोलों से छीनने का प्रयास नहीं किया वरन् मंगोल नेता हलाकु से अच्छे संबंध करने का प्रयास किया तथा राजदूतों का आदान-प्रदान किया।
बलबन के समय मंगोल आक्रमण
बलबन स्ंवय जब सुल्तान बना तो उसने उत्तर पश्चिम सीमा की सुरक्षा के लिए ठोस एंव मजबूत कदम उठाये। उस समय मिस्त्र में हलाकु की पराजय से मंगोल शक्ति को धक्का लगा जिसका स्वंय फायदा उठा कर बलबन ने लाहौर जीत लिया। फिर, उसने सीमा पर किलों की एक कतार बनाई तथा हर किले में स्थायी रूप से एक बड़ी सेना रखी एवं योग्य सरदारों को सीमा रक्षक के रूप में नियुक्त किया। आंरभ में कुछ वर्षो तक उसकी सीमा की सुरक्षा का भार उसके चचेरे शेर खां को दिया गया। बाद में लाहौर, मुलतान तथा दिपालपूर का क्षेत्र शाहजादा मुहम्मद को एंव सुनम, समाना और उच्छ का क्षेत्र शाहजदा बुगराखां के सरंक्षण में दिया गया तथा हर शाहजादे के साथ एक शक्तिशाली सेना रख दी गई। जब बुगराखां को बंगाल का सूबेदार बना दिया गया तब शाहजादा मुहम्मद ने संपूर्ण सीमा की सुरक्षा का उत्तरदायित्व संभाला। शाहाजादा मुहम्मद ने कई मंगोल आक्रमणों को विफल किया। लेकिन अंत में 1286 में अचानक मंगोल सेना द्वारा घिर जाने के कारण वह मारा गया। उसके बाद कैकुबाद की सीमा-रक्षा नियुक्त किया गया। वह योग्य तो न था। फिर भी दो बार हुए मंगोलो के आक्रमण ने लुटमार के अतिरिक्त दिल्ली सल्तनत को अधिक क्षति पहुंचाने में सफलता नहीं पाई। बलबन के अंतिम समय में जलालुद्दीन खिलजी को सीमारक्षक का पद दिया गया जो मंगोलो के साधारण आक्रमणों को रोकने में सफल रहा। इस प्रकार, बलबन ने मंगोलों के विरूद्ध कुछ ठोस कदम उठाये तथा सफलता प्राप्त की।
जलालुद्दीन के समय मंगोल आक्रमण
यह खलजी वंश का संस्थापक था। इसके समय में सिर्फ एक आक्रमण 1292 में हलाकु के प्रपौत्र अब्दुल्ला के नेतृत्व में हुआ। जलालुद्दीन ने स्वंय सेना का मुकाबला किया तथा उसे पीछे हटने पर बाध्य किया। फिर एक संधि अनुसार जलालुद्दीन ने मंगोलों को अपने देश में बसने की आज्ञा दे दी। चंगेजाखां के एक वंशज उलगु ने अपने 4000 समर्थकों के साथ भारत में रहने का निश्चय किया तथा उन्होनें इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लिया एंव ये ‘नवीन मुसलमान‘ कहलाए तथा दिल्ली के पास जहां वे बसे स्थान का नाम ‘मुगलपुर‘ पड़ गया। जलालुद्दीन ने अपनी कए पुत्री का विवाह उलगु के साथ कर दिया।
अलाउद्दीन के समय मंगोल आक्रमण
अलाउद्दीन खिलजी जो कि जलालुद्दीन का भतीजा एंव दामाद था। इसके समय कादर, सालदी, कुतलुग ख्वाजा, तार्गी, अलीवेग, तारताक, कुबाक तथा इकबालमंदा के नेतृत्व में बारभीषण आक्रमण हुए। एक बार तो वे पंजाब तथा दिल्ली प्रांत को पार कर अमरोहा तक तथा राजस्थान में नागोर तक घुस आये थे एंव दो बार उन्होनें राजधानी का घेरा डाला। अलाउद्दीन ने उन्हें नाकों चने तो चबवा दिये, पर उसे एहतियातन कुछ कदम उठाने पड़े। उसने सीरी में नया दुर्ग बनवाया एंव दिल्ली दुर्ग की मरम्मत करवाई। लगभग 5 लाख की एक स्थायी सेना रखी। घोड़ो को दागने की प्रथा चालु की और नये हथियार जैसे पत्थर फेंकने वाली तोपों का निर्माण किया। उसने राणनीति में परिवर्तन किया। कहीं-कहीं सेनापतियों की रक्षा हेतु खाई खुदवाई। लकड़ी की दीवार खड़ी की एंव हाथियों के छोटे दस्तें रखे। शत्रु की शक्ति का पता लगाने हेतु विशेष गुप्तचर रखे। पर्याप्त युद्ध सामग्री व खाद्यन्न की व्यवस्था की। सुरक्षा के लिए जफरखां, उलुगखां, गाजी मालिक, मालिक नायक तथा मलिक काफूर जैसे धुरंधर सेनापति व सैनिक रखे जिनकी धाक मंगोलों पर रूक गई। मंगोलों को धमकाने के लिए उसने बंदियो को क्रुर यातनांए देकर वध करवा दिया।
गियासुद्दीन और मुहम्मद तुगलक के समय मंगोल आक्रमण
अलाउद्दीन खिलजी के बाद मंगोलो बहुत आक्रमण नही हुए। गियासुद्दीन तुगलक जो कि तुगलक वंश का संस्थापक था। इसके समय में हुए आक्रमण को इसके द्वारा विफल कर दिया गया। मुहम्मद तुगलक के समय में 1327 में मंगोल नेता तार्माशीरीन ने मुलतान एंव लाहौर से लेकर बदायूं और मेरठ तक लूटमार की। इस्लामी के अनुसार मंगोलो को मेरठ के निकट परास्त करके वापस जाने हेतु बाध्य कर दिया गया, लेकिन फरिश्ता के अनुसार मुहम्मद तुगलक ने मंगोलो को बहुमूल्य भेंट देकर वापस किया।
मंगोलों की असफलता के कारण
1. विश्व विजयी भावना का अंत
मंगोलो की विभिन्न शाखाओं में मानवता ने होने कारण वे गृह युद्ध में ही उलझ गए तथा उनकी विश्व विजयी भावना का अंत हो गया।
2. विलासयम जीवन
लूट में प्राप्त धन की अधिकता होने के कारण उनमें भोग-विलास तथा आमोद-प्रमोद के जीवन से मंगोलों की सैनिक शक्ति, वीरता व युद्ध प्रवृत्ति में शिथिलता आ गई।
3. सैनिक शक्ति में कमी आना
मंगोलों की सेना में स्त्रियों, बच्चों तथा वृद्धों के होने से उनकी सैनिक कुशलता एंव रण क्षमता का हृास होता गया।
4. दोषयुक्त रणनीति
मंगोलों ने छापामार नीति को छोड़कर खुले रणक्षेत्र में युद्ध करने की नीति अपनाई जो उनकी प्रवृत्ति के प्रतिकुल होने से असफल रही।
5. सुल्तानों का राजनय व सुरक्षा नीति
सुल्तानों का राजनय व सुरक्षा नीति भी उनके कमजोर होने में समाने आई।
मंगोल आक्रमणों के प्रभाव
1. यद्यपि मंगोल आक्रमण भारत में विशेष कारगर नहीं हुए, लेकिन उनसे कई ग्राम ,नगर तथा करोड़ो की संपत्ति अवश्य नष्ट हो गई।
2. दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों को मंगोलो के विरूद्ध अपनी सैनिक शक्ति बढ़ाना पड़ी तथा उससे उनके शासन का आधार सैन्य शक्ति हो गई जिससे शासक निंरकुश हो गए।
3. बढ़ी हुई सेना की व्यय-पूर्ति हेतु कर वृद्धि हुई जिससे लोगों पर आर्थिक बोझ बढ़ गया।
4. सुल्तानों की विस्तारवादी नीति प्रतिकुल रूप से प्रभावित हुई। अलाउद्दीन के अलावा दिल्ली का अन्य कोई भी सुल्तान निश्चित होकर भारत के विस्तृत प्रदेश को जीतकर अपनी सत्ता के अधीन करने का प्रयत्न नहीं कर सका।
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