9/11/2022

हीगल के राज्य संबंधी सिद्धांत/विचार

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प्रश्न; हीगल के राज्य सिद्धांत के बारे में लिखिए। 

अथवा" हीगल के राज्य संबंधी विचारों का वर्णन कीजिए।

अथवा" हीगल के राज्य की विशेषताएं बताइए।

उत्तर--

हीगल के राज्य संबंधी सिद्धांत या विचार 

higal ke rajya sambandhi siddhant;हीगल के राज्य संबंधी सिद्धांत को समझने के लिए उसके दो ग्रंथ-- 'फिनोमिनोलाॅजी ऑफ स्पिरिट' तथा 'फिलोसफी ऑफ राइट' बड़े महत्वपूर्ण हैं। उसके राज्य संबंधी दर्शन को जर्मनी की तात्कालिक राजनीतिक दुर्दशा ने भी बहुत अधिक प्रभावित किया है। उसने बड़े दुखपूर्ण शब्दों में जर्मनी की राजनीतिक कातरता का वर्णन किया है और राज्य का महत्‍व बुलन्द शब्दों में घोषित किया ताकि जर्मनी एकीकृत हो सके। उसके राज्य सिद्धांत को निम्नलिखित शीर्षकों के माध्यम से समझा जा सकता हैं-- 

राज्य 'विश्वात्मा' का पृथ्वी अवतार है 

हीगल के राजनीतिक दर्शन का आधार 'विश्वात्मा' का विचार है। विश्व में पायी जाने वाली समस्‍त जड़ और चेतन वस्तुएं इसी 'विश्वात्मा' से निःसृत हुई हैं। विश्ववात्मा का धीरे-धीरे विकास होता रहता है। सर्वप्रथम जड़ जगत में इसकी अभिव्यक्ति होती है फिर वनस्पतियों और प्राणियों के रूप में और इसका उच्चतम रूप मनुष्य में प्रकट होता हैं। विश्वात्मा का विकास यहीं अवरूद्ध नहीं हो जाता और परिवार, समाज जैसी सामाजिक संस्थाओं में इसका प्रकटीकरण होता है। अन्त में विश्वात्मा 'राज्य' के रूप में प्रकट होती है। इसलिए हीगल ने राज्य को विश्वात्मा का पार्थिव रूप अथवा भूमण्डल पर विद्यमान ईश्वर माना हैं। 

राज्य का विकास द्वंद्वात्मक पद्धति से हुआ हैं 

हीगल से पहले राज्य की उत्पत्ति के संबंध में 'सामाजिक संविदा' प्रचलित था और रूसो जैसे विचारक यह मानते थे कि राज्य की उत्पत्ति किसी सामाजिक समझौते से हुई है। हीगल ने संविदा सिद्धांत को अस्वीकार करते हुए यह प्रतिपादित किया कि राज्य 'विश्वात्मा' के आध्यात्मिक पक्ष का द्वंद्वात्मक पद्धति के अनुसार होने वाले चरम विकास का प्रतीक हैं। 

हीगल के अनुसार विश्वात्मा बाह्य जगत में विकास के अनेक स्तरों का पार करते हुए सामाजिक आधार की संस्थाओं में प्रकट होती है। सामाजिक आधार के क्षेत्र में परिवार का प्रादुर्भाव उसकी भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए होता है। परिवार का मौलिक तत्व प्रेम की भावना है, राज्य की उत्पत्ति के लिए हीगल परिवार को पहली सीढ़ी या वाद मानता है, किन्तु परिवार मनुष्य की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में समर्थ नहीं है। अतः मनुष्य परिवार के प्रभाव क्षेत्र से बाहर जाकर अपनी विभिन्न अपूर्ण आवश्यकताओं की पूर्ति का प्रयास करता हैं। मनुष्य की यह क्रिया समाज को जन्म देती है। हीगल ने इसे 'बुर्जुआ' नाम से पुकारा है जो राज्य के विकास में 'प्रतिवाद' की भूमिका का निर्वाह करता है। क्योंकि इस समाज के संगठन का आधार परिवार की तरह प्रेम और त्याग के सिद्धांत नहीं होते बल्कि इसका आधार प्रतिस्पर्द्धा और संघर्ष की भावना होती है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति अपने हित की बात सोचता है। फलतः उसमें प्रतिस्पर्दा और संघर्ष के फलस्वरूप व्यक्ति आत्मनिर्भर बनने की चेष्टा करता है जिससे उसकी एक सीमा तक उन्नति होती है, लेकिन अन्ततः निरन्तर चलने वाली प्रतिस्पर्दात्मक संघर्ष की प्रक्रिया उसकी प्रगति में बाधक सिद्ध होने लगती हैं। अतः इसे मर्यादित करने की आवश्यकता अनुभव होने लगती है जिससे कि प्रेम और सहयोग के पारिवारिक गुणों की मनुष्य जीवन में पुनःस्थापना की जा सके। इस आवश्यकता की अनुभूति राज्य को जन्म देती है जो संवाद के रूप में होती है तथा जिसमें परिवार और समाज दोनों के गुणों का समावेश होता है और जो इन दोनों से उच्चतर संगठन की स्थिति में होता है। राज्य अपने नेतृत्व में समाज में एकता और सामंजस्य की स्थापना करता है और उसे सामाजिक हितों के अनुकूल कार्य करने के लिए प्रेरित करता है। हीगल राज्य को एक उच्च जीवधारी मानता है जो विश्वात्मा के बाह्य विकास के चरमोत्कर्ष का प्रतीक है। 

हीगल के शब्दों में," राज्य का अस्तित्व विश्व में ईश्वर की शोभायात्रा है उसका आधार विवेक की शक्ति है, जो अपने को इच्छा के रूप में साकार करती हैं।"

हीगल के राज्य की विशेषताएं 

हीगल राज्य की 'विश्वात्मा' का द्वंद्वात्मक पद्धति से विकास मानता है। इस प्रकार उद्भव होने वाले राज्य की विशेषताएं अग्रलिखित हैं-- 

1. राज्य दैवी सत्ता है 

हीगल ने राज्य को 'पृथ्वी पर ईश्वर का अवतार' कहा है। उसकी द्वंद्वात्मक धारणा के अन्‍तर्गत राज्य सर्वोच्च संगठन है जिसमें 'विश्वात्मा' की पूर्ण अभिव्यक्ति हो चुकी है। हीगल के मन से यद्यपि राज्य की उत्पत्ति द्वंद्ववाद की प्रक्रिया से क्रमिक विकास के फलस्वरूप हुई है तथापि इस विकासक्रम में दैवी चेतना कार्य करती है और राज्य के रूप में उस दैवी चेतना को पूर्णता प्राप्त हो जाती है। "राष्ट्रीय राज्य विश्वात्मा की अभिनव अभिव्यक्ति होती है और उसका स्वरूप दैवी होता है।" हीगल के मन से राज्य की उत्पत्ति दीर्घकालीन विकास की प्रक्रिया से हुई है। यह निम्नकोटि के सामूहिक जीवन से उच्चतर प्रकृति के संगठनों के रूप में विकसित होते हुए जीवन की पूर्णता पर पहुँचने की प्रक्रिया का फल है जिसमें दैवी चेतना निरन्तर कार्यरत रहती है। परिवार निम्नतम सामाजिक इकाई है, उससे उच्च इकाई समाज तथा उच्चतम इकाई राज्य है। हीगल के मन से राज्य पृथ्वी पर विश्वात्मा का अन्तिम रूप हैं। 

2. राज्य का सावयव स्वरूप 

हीगल राज्य को एक पूर्ण सावयव के रूप में मानता है। अपने युग के अन्य सावयवधारियों की भाँति यह जीव सावयव तथा राज्य सावयव के मध्य केवल आंगिक समानता की ही स्वीकृति नहीं करता, अपितु वह राज्य को एक चेतन प्राणी के मूल्य भी चित्रित करता है। उसके अनुसार राज्य की स्वतः अपनी इच्छा तथा व्यक्तित्व होते हैं जिनमें उसके अंगों (व्यक्तियों तथा समुदायों) की इच्छा तथा व्यक्तित्व विलीन रहते है। राज्य की इच्छा तथा उसका व्यक्तित्व राज्य का निर्माण करने वाले व्यक्तियों की इच्छाओं तथा व्यक्तियों का योग मात्र नहीं हैं, अपितु राज्य की इच्छा तथा व्यक्तित्व उसके निर्माणकारी व्यक्तियों की इच्छा तथा व्यक्तित्व से भिन्न तथा श्रेष्ठतम हैं। 

इतिहासकार रांके ने हीगल के विचार को निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया हैं," राज्य व्यक्ति है। वे एक-दूसरे के समान हैं फिर भी एक-दूसरे से स्वतंत्र है। वे आध्यात्मिक सत्ताएं है; ) मानव आत्मा की मूल सृष्टि है, उन्हें ईश्वर के विचार तक कहा जा सकता हैं।" 

3. राज्य साम्य है, साधन नहीं 

हीगल राज्य को साध्य और व्यक्ति को  साधन मानता है। उसके अनुसार राज्य पृथ्वी पर विश्वात्मा का अन्तिम रूप है, अतः वह अपने आप में साध्य ही हो सकता है, साधन कभी नही बन सकता। मैकगबर्न के शब्दों में," पुराने उदारवादी इस बात पर बल देते थे कि राज्य अपने में साध्य नहीं बल्कि साध्य के लिए साधन मात्र हैं। वे साध्य के रूप मे जनता की भलाई या कल्याण को मानते थे। इसके विपरीत, हीगल ने यह घोषिय किया कि राज्य स्वयं एक साध्य है और व्यक्ति एक साध्य के लिए साधन मात्र है-- साध्य है उस राज्य का ऐश्वर्य जिसके कि वे घटक हैं।" 

4. राज्य और व्यक्ति में विरोध नहीं

हीगल के अनुसार राज्य और व्यक्ति मे विरोध नही है क्योंकि विश्वात्मा जिन संस्थाओं के रूप मे प्रकट होती है, उनसे राज्य सर्वोच्च है और दोनों के हित एक है। उसके अनुसार," इतिहास मे राज्य ही व्यक्ति है और जीवन चरित्र मे जो स्थान व्यक्ति का है, इतिहास में वही स्थान राज्य का हैं।" हीगल की मान्यता है कि राज्य हमारी सच्ची, निष्पक्ष एवं निःस्वार्थ सामान्य इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है, अतः राज्य और व्यक्ति के हितों में किसी पारस्परिक विरोध की कल्पना नही की जा सकती। 

5. राज्य सर्वशक्तिमान है 

हीगल के अनुसार राज्य पृथ्वी पर ईश्वर का अवतार होने के कारण सर्वशक्तिमान है। राज्य से ऊपर और शक्तिशाली कोई संस्था नहीं होती। सेबाइल के अनुसार," हीगल के चिंतन मे राज्य स्वयं ही शक्ति है, वह राष्ट्र की इच्छा का बाह्य स्वरूप हैं, यह व्यक्तिगत जीवन तथा नागरिक समाज की नैतिक तथा आर्थिक व्यवस्थाओं से पृथक तथा ऊपर हैं।" 

6. राज्य नैतिक बंधनों से मुक्त है 

हीगल के अनुसार राज्य सर्वोच्च संस्था है, विश्वात्मा का अवतार है, अतः उस पर वे नैतिक बन्धन लागू नहीं किये जा सकते जो एक व्यक्ति पर लागू किये जाते है। उसके अनुसार राज्य स्वयमेव नैतिकता के सिद्धांतों का सृजन करने वाला है और राज्य जो भी कार्य करता है वह सर्वथा न्यायोचित हैं। 

7. राज्य का स्वतंत्र अस्तित्व 

हीगल के अनुसार राज्य का स्वतंत्र अस्तित्व है, वह स्वयं ही अपने कर्तव्य का निर्धारण करता है। राज्य एक पूर्णत्मा है जो सत् और असत् को विवेकपूर्ण ढंग से छाँटकर शर्मनाक जघन्य नियमों का परित्याग करता है। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में राज्य दूसरे देशों के साथ अपने हितों की रक्षा के लिए जो भी कार्यवाही करे वह हीगल के अनुसार न्यायोचित हैं।

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