8/12/2022

संत ऑगस्टाइन के राजनीतिक विचार

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सन्त ऑगस्टाइन के राजनीतिक विचार 

सन्त आगस्टाइन के राजनीतिक विचार निम्नलिखित हैं-- 

1. मानव स्वभाव संबंधी विचार 

सन्त ऑगस्टाइन ने मानव स्वभाव की दो प्रवृत्तियों का वर्णन किया हैं-- आध्यात्मिक व सांसारिक। आध्यात्मक हितों की पूर्ति के लिये उसे ईश्वरीय नगर की सदस्‍यता प्राप्त करनी होती है तथा सांसारिक हितों की पूर्ति के लिये उसे लौकिक या सांसारिक जगत का सदस्‍य बनना होता है। उसके अनुसार," मानव प्रकृति के दो रूप हैं-- आत्मा और शरीर। अतएव मनुष्य इस संसार का नागरिक है और ईश्वरीय नगर का भी। मानव जीवन का आधारभूत तत्व मानव हितों का विभाजन है। मनुष्य के लौकिक हित उसके शरीर से संबंध रखते है। मनुष्य के पारलौकिक हित उसकी आत्मा से संबंध रखते हैं। 

2. द्वि-नगरीय सिद्धांत 

सन्त आगस्टाइन ने अपने ग्रंथ में दो नगरों का वर्णन किया है-- सांसारिक एवं आध्यात्मिक। सांसारिक नगर की सदस्‍यता मनुष्य अपने जन्म से ही प्राप्त कर लेता हैं, जबकि ईश्वरीय नगर की सदस्‍यता का संबंध मनुष्य की आत्मा से होता है। सेबाइन ने इस संबंध में कहा हैं कि," मानव समाज सदैव ही दो समाजों के संघर्ष द्वारा नियन्त्रित होता है। एक ओर 'संसार का नगर' है। यह मनुष्य की अधोमुखी प्रकृति-काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि के ऊपर आधारित है। दूसरी ओर 'ईश्वर का नगर' है। यह स्वर्गीय शान्ति तथा आध्यात्मिक मुक्ति की आशा के ऊपर आधारित हैं।' 

फाॅस्टर के अनुसार," राजनितिक विचारधाराओं के संदर्भ में सन्त ऑगस्टाइन के सबसे महत्वपूर्ण विचार वह है, जो उसकी दो राज्यों की धारणा में केन्द्रीभूत होते हैं अर्थात् पृथ्वी का राज्य तथा स्वर्ग का राज्य।

3. ईश्वरीय नगरी 

सन्त ऑगस्टाइन ने 'ईश्वर की नगरी' की कल्पना की थी, यह विचारधारा स्टोइक विचारधारा को काफी कुछ प्रभावित करती है। आगस्टाइन इस नगरी की कल्पना कहीं स्वर्ग में न करके बल्कि इस पृथ्वी पर ही करता हैं। उसके अनुसार इसे पाने के लिये केवल ईसाई होना ही आवश्यक है, न कि किसी विशेष जाति या वर्ग का। यह केवल चर्च ही संभव है। ऑगस्टाइन ने इस विषय में स्वयं कहा है कि 'ईश्वरीय नगर का सच्चा प्रतीक चर्च था क्योंकि केवल चर्च ही गुणों तथा भलाइयों का केन्द्र था। भलाई का विकास करने के लिये राज्य चर्च का शस्त्र था। अतः दोनों एक दूसरे पर आधारित थे। वास्‍तव में वह एक अमूर्त समाज का रूप है न कि ऐतिहासिक सत्य। ईश्वर प्रेम में स्थापित है, जबकि सांसारिक राज्य आत्म-प्रेम पर।' फाॅस्टर ने भी राज्य व चर्च के संबंध में कहा है कि," चर्च ईश्वरीय नगर का वह भाग है, जिसमें वे सब सदस्य सम्मिलित हैं, जो अभी अपनी विश्वयात्रा ही कर रहे हैं और जिसमें वे सब (या लगभग सब) जो ईश्वरीय राज्य के सदस्य हैं, जो गुजर चुके हैं।' 

4. ईश्वरीय नगर की विशेषताएं

ऑगस्टाइन ने अपने ईश्वर के नगर की निम्नलिखित विशेषताओं का वर्णन किया हैं-- 

(अ) न्याय 

ऑगस्टाइन की न्याय संबंधी विचारधारा बहुत कुछ प्लेटो की तरह हैं। वह न्याय को व्यवस्था के अनुरूप मानता है। उसके अनुसार मनुष्य का कर्तव्य है कि वह व्यवस्थानुरूप अर्थात् न्याय के अनुसार कार्य करें। 

(ब) शान्ति 

ऑगस्टाइन ने ईश्वरीय नगर की दूसरी प्रमुख विशेषता शान्ति बताया हैं। आगस्टाइन के अनुसार, शान्ति की स्थापना उस ही स्थिति में संभव है, जबकि मनुष्यों में सद्भावना हो। उसने शांति का तात्पर्य किसी झगड़े या युद्ध के न होने से नही लगाया था बल्कि उसका अर्थ समाज के अन्य गुणों से भी था। सन्त ऑगस्टाइन ने दो प्रकार की शांति का वर्णन किया हैं-- 

(१) सांसारिक (क्षणिक) शांति। 

(२) पारलौकिक व आध्यात्मिक शान्ति। 

उसने समाज में प्रत्येक प्रकार की शांति की स्थापना में निम्नलिखित बातों का होना आवश्यक माना हैं-- 

(A) सभी मनुष्यों को प्रेम व सद्भाभाव के साथ रहना चाहिए। 

(B) सभी मनुष्य एक सार्वभौम व्यवस्था के अंदर होने चाहिए। 

(स) राज्य संबंधी विचार 

आगस्टाइन के अनुसार, राज्य एक पवित्र संस्था है। इसको ईश्वर ने मानव के पापों को दूर करने हेतु ही स्थापित किया है। उसके अनुसार, राजा ईश्वर का प्रतिनिधित्व करते हुए पापों से जनता को मुक्त कराने के लिये पैदा हुआ है। वह राज्य को दैवी उत्पत्ति ही मानता है, इसलिए उसके अनुसार समस्‍त व्यक्तियों को राज्य की आज्ञाओं का पूर्ण रूप से पालन करना चाहिए। उसने साथ ही यह भी कहा है कि यदि वे आज्ञा धर्म विरोधी हों तो इनको मानने के लिये वे प्रतिनिन्धित नहीं हैं। संत आगस्टाइन ने चर्च को राज्य से ऊँचा दर्जा दिया, क्योंकि उसके अनुसार न्याय चर्च द्वारा ही संभव है, राज्य द्वारा नही। उसके अनुसार राज्य और चर्च एक दूसरे के साथ ही संभव है अर्थात वह इन्हें एक दूसरे का पूरक मानता है।

(द) संपत्ति संबंधी विचार 

सन्त ऑगस्टाइन के संपत्ति संबंधी विचार मौलिक नहीं है। वह सम्पत्ति के अधिकार को स्वीकार करते हुए उसे परम्परागत संस्था मानता था। उसने व्यक्तिगत संपत्ति का समर्थन किया है। संपत्ति के अधिकारों की प्राप्ति राज्य द्वारा ही संभव है। उसके अनुसार शान्ति व व्यवस्था बनाये रखने की दृष्टि से निजी संपत्ति का होना आवश्यक हैं, परन्तु उसे उतनी ही संपत्ति रखने का अधिकार होना चाहिए, जितनी उसके लिए आवश्यक हैं। 

(ई) दासता संबंधी विचार 

संत आगस्टाइन ने दास प्रथा का समर्थन किया है, उसके अनुसार दास निजी संपत्ति का ही एक रूप है। वह दासता को पूर्व जन्म मे किये गये पापों का परिणाम मानता है। उसके अनुसार दासता 'पाप का दैनिक प्रतिकार' हैं। फाॅस्टर ने इस विषय में कहा है कि," हजतर नूह ने अपने पुत्र को पापमय जीवन व्यतीत करने के कारण दासता का दण्ड दिया, उसी समय से दास-प्रथा का प्रचलन हुआ।' उसने आगे कहा," यदि मनुष्य पाप न करता, तब ईश्वर दासता की व्यवस्था न करता। वस्तुतः मनुष्य के पतन ने उसे उस समानता से वंचित कर दिया जो मानव प्रारंभ में स्थापित करना चाहता था। अतः उसने उसका समर्थन किया।" 

ऑगस्टाइन के विचारों की आलोचना 

फाॅस्टर के अनुसार," आगस्टाइन का दासता का सिद्धांत कठिन और असन्‍तोषजनक है। दासता के समर्थन में आगस्टाइन अरस्तु के तर्कों को अमान्य करते है, क्योंकि वे अरस्तु की तरह यह नहीं मानते कि दासता प्राकृतिक वस्तु हैं।" 

वेबर ने आलोचनात्मक मत प्रस्तुत करते हुए लिखा हैं कि," अपने सिद्धांतों के आधार पर आगस्टाइन प्रशासक तथा दास के बीच अंतर नहीं कर सका।" 

विबासी के अनुसार," ऑगस्टाइन के दासता संबंधी विचार तर्कसंगत प्रतीत नहीं होते हैं। एक स्थान पर तो वह संपूर्ण मानव जाति को पापी घोषित करता है। दूसरे स्थान पर वह दास-प्रथा को पाप का दण्ड घोषित करता है। उसका मत है कि मनुष्‍य को पाप का शोध करने के लिए दासता स्वीकार करनी आवश्यक है। इसका अर्थ तो यह हुआ कि अपने पूर्व पापाचार के कारण संपूर्ण समाज को दासवृत्ति करनी चाहिए।"

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