वर्ण व्यवस्था की विशेषताएं
वर्ण व्यवस्था की निम्नलिखित विशेषताएं हैं--
1. गुण-कर्म पर आधारित विभाजन
वर्ण-व्यवस्था सामाजिक विभाजन या वर्गीकरण की एक विशिष्ट व्यवस्था है। इस व्यवस्था में वर्गीकरण का आधार गुण-कर्म एवं व्यवसाय है। इसी आधार पर इस व्यवस्था के अन्तर्गत समाज को चार वर्णों (वर्गों) में विभक्त किया गया है। ये चार वर्ण हैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र।
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2. प्रेरणा
वर्ण व्यवस्था को कर्म के सिद्धांत से जोड़ा गया था। जो व्यक्ति अपने वर्ण धर्म का पालन करता था, उसे वर्तमान में तो प्रतिष्ठा मिलती ही थी साथ ही अगले जीवन में भी उसे इसका अच्छा फल मिलता था, ऐसी मान्यता थी। इस प्रेरणा से व्यक्ति निष्ठापूर्वक अपने वर्ण धर्म का पालन करता था।
3. अनुलोम विवाह की अनुमति
वर्ण-व्यवस्था में अनुलोम विवाह की अनुमति थी। अनुलोम-विवाह के अन्तर्गत उच्च वर्ण के पुरूष का निम्न वर्ण की कन्या से विवाह हो सकता है। इस मान्यता के अनुसार ब्राह्मण या क्षत्रिय वर्ण के पुरूष का विवाह वैश्य वर्ण की कन्या से संभव था। पाण्डव भीम क्षत्रिय थे परन्तु उनका विवाह हिडम्बना नामक स्त्री से हुआ था, जिसका पुत्र घटोत्कच था। घटोत्कच को क्षत्रिय वर्ण में ही सम्मिलित माना जाता था।
4. श्रम-विभाजन की तटस्थ प्रणाली
वर्ण-व्यवस्था मौलिक रूप से समाज में श्रम-विभाजन के लिए लागू की गयी थी। मौलिक रूप से वर्ण-व्यवस्था में ऊंच-नीच की भावना का पूर्ण अभाव था। इस प्रकार स्पष्ट है कि वर्ण-व्यवस्था सामाजिक स्तरीकरण की व्यवस्था नही थी बल्कि सामाजिक विभेदीकरण की व्यवस्था थी।
5. व्यवसाय का पूर्व-निर्धारण
वर्ण-व्यवस्था की एक अन्य विशेषता यह थी कि चारों वर्णों के व्यवसाय पूर्व-निर्धारित थे। प्रारंभ में तो व्यवसायों एवं गुण कर्मों के आधार पर ही वर्ण निर्धारण होता था परन्तु आगे चलकर विभिन्न वर्णों के व्यवसाय भी आनुवांशिक रूप से निश्चित हो गये थे। ब्राह्मण वर्ण के व्यवसायों को शुद्र वर्ण के व्यक्ति नहीं अपना सकते थे तथा ब्राह्मण वर्ण के सदस्य शूद्रों के कार्यों को नहीं अपनाते थे।
6. शक्ति एवं अधिकारों का वितरण
वर्ण व्यवस्था में यद्यपि शक्ति और अधिकार की दृष्टि से ब्राह्मणों की स्थिति सर्वोच्च थी फिर भी अन्य वर्णों को सामाजिक दृष्टि से महत्व दिया गया था।
7. आध्यात्मिकता
वर्ण-व्यवस्था की एक उल्लेखनीय विशेषता इसकी आध्यात्मिकता भी हैं। वर्ण-व्यवस्था के माध्यम से व्यक्ति को कर्म-फल, पुनर्जन्म तथा मोक्ष आदि आध्यात्मिक सत्यों में विश्वास दिलाने का प्रयास किया जाता था। वर्ण-व्यवस्था के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के लिये वर्ण के कर्तव्यों का पालन करना अनिवार्य था। वर्ण-व्यवस्था व्यक्तिगत स्वतंत्रता की छूट नहीं देती इससे सामाजिक संघर्षों से बचाव होता हैं। इस प्रकार कहा जा सकता हैं कि वर्ण-व्यवस्था आध्यात्मिकता की पोषक व्यवस्था थी।
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