3/19/2022

पुरुषार्थ का अर्थ, प्रकार या तत्व

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पुरुषार्थ का अर्थ (purusharth kya hai)

purusharth meaning in hindi;पुरुषार्थ का शाब्दिक अर्थ है " पुरूषरथर्यते पुरुषार्थ: " अर्थात् पुरूष के लिये जो अर्थपूर्ण है, जो अभीष्ट है, उसे प्राप्त करने के लिये प्रयास करना पुरुषार्थ है। इस प्रकार पुरुषार्थ से आशय है पुरूष का अर्थ अर्थात् अभीष्ट और इस अभीष्ट की प्राप्ति हेतु उद्यम करना।

भारतीय संस्कृति मे जीवन को एक वास्तविकता के रूप मे स्वीकार किया गया है। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जो जन्म जन्मांतर चलती है। व्यक्ति  ( अर्थात् जीवात्मा ) कर्मानुसार विभिन्न योनियों मे जन्म लेता है। स्वर्ग और नर्क का भोग करता है। भोग की अवधि समाप्त होते ही जीवात्मा पुनः जीवन-मृत्यु की प्रक्रिया मे शामिल हो जाता है। इसलिए जीवन की सार्थकता इस बात मे नही है कि व्यक्ति अच्छी योनि मे जन्म ले तथा लौकिक सुख अथवा स्वर्गिक सुख का अधिकतम उपभोग करे। जीवन तो वास्तव मे सार्थक तब है जबकि व्यक्ति जीवन मृत्यु के इस चक्र से पूर्णतः मुक्त हो जाए। यह अवस्था ही मोक्ष कहलाती है। जिसे भारतीय संस्कृति मे मानव जीवन का परम लक्ष्य या साध्य निरूपित किया गया है। इस लक्ष्य की प्राप्ति मे धर्म, अर्थ और काम साधन है। (गीता, 18:38)। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों तत्वों के सम्यक संयोग से जिस तत्व की सृष्टि होती है उसे पुरुषार्थ कहते है जो हिन्दू जीवन दर्शन का सारभूत तत्व है। जो भी व्यक्ति धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी पुरुषार्थ को नही समझता और जीवन मे उन्हे उतारने के लिये उद्यम नही करता उसका जीवन निरर्थक है।

पुरुषार्थ के तत्व या प्रकार (purusharth ke pirakar)

पुरुषार्थ के क्रमानुसार 4 तत्व है--

1. धर्म 

धर्म वह साधन है जो मनुष्य द्वारा अर्थ  और काम के उपभोग को मर्यादित करता हुआ उसे मोक्ष की ओर ले जाता है। इसलिए धर्म की वैशेषिक सूत्र मे व्याख्या की गई है, जिसके द्वारा अभ्युदय और नि: श्रेयस की सिद्धि हो वह धर्म है। वायु पुराण मे भी धर्म की व्याख्या करते हुए कहा गया है, " स्मृतियों ने कुशल करने वाले कर्म को धर्म तथा अकुशल करने वाले को अधर्म बताया है। धर्म की धारणा और धृति अर्थ होने के कारण जो धारण करता है, जिससे व्यवस्था बनी रहती है उसे धर्म कहा जाता है। जिसमे धारणा नही होती और जिससे महत्व ( सुयश अथवा सम्मान ) प्राप्त नही होता उसे अधर्म कहते है। 

2. अर्थ 

पुरुषार्थ में दूसरा स्थान 'अर्थ' का है। अर्थ का सम्बन्ध धन-सम्पत्ति से होते हुए भौतिक संसाधनों और सुख से भी है। मनुष्य को समृद्ध बनाने वाले सभी साधन इसमें आ जाते हैं। 

महाभारत में धर्मराज युधिष्ठिर ने भी धन की महत्ता बताते हुए श्रीकृष्ण से कहा है कि धन ही सभी धर्मों का मूल है, क्योंकि इसी से सारी धार्मिक क्रियाएं की जाती है। जो धन से अनावृत्त है, वह धर्म से भी, क्योंकि समस्त धार्मिक कार्यों में धन की अपेक्षा की जाती है। अर्थविहीन व्यक्ति ग्रीष्म की सूखी सरिता के समान माना गया है। अर्थ के बिना जीवन-यापन मुश्किल हो जाता है।कौटिल्य ने भी अर्थ को धर्म जितना ही महत्व का बताया है तथा धर्म और काम का आधार माना है। 

अतः जनसामान्य के लिए शास्त्रकारों ने उचित सुख भोग की अनुमति दी है। आपस्तम्ब ने मनुष्य को धर्मानुकुल सभी सुखों का उपभोग करने की अनुमति दी है। 

मनु के अनुसार त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ एवं काम) ही श्रेय है जिसमें अर्थ की अपनी विशेषता है। लेकिन वह पुनः कहते हैं कि यदि अर्थ और काम धर्म विरूद्ध है तो उन्हें छोड़ देना चाहिए-- 

धर्मार्थादुच्यते श्रेयः कामार्थो धर्म एव च।

अर्थ एवेह वा श्रेयस्तिवर्ग इति तु स्थितिः।। 

परित्यजेदर्थकामौ यौ स्यातां धर्मवर्जितौ। 

धर्म चाप्यसुखोवर्क लोक विक्रुष्टमेव च।।' 

इस प्रकार धन का महत्व भौतिक जगत में सर्वाधिक माना गया है। वही संसार का मूल है। धन सम्पन्न होने पर ही धर्म किया जा सकता है लेकिन उसके लिए भी इच्छाशक्ति जरूरी है क्योंकि आज के समय में बहुत लोगों के पास धन है लेकिन वे इसका प्रयोग धर्म की जगह अधर्म में लगा रहे हैं और अपना तथा समाज का नैतिक पतन कर रहे हैं। अतः अर्थ में भौतिक गौरव प्राप्ति के सभी साधन समाहित होते है।

3. काम 

काम भी एक पुरुषार्थ है। काम का अभिप्राय केवल भोग वासना ही नही है बल्कि इनका संबंध समस्त कामनाओं और इच्छाओं से है जिनसे प्रेरित होकर व्यक्ति कार्य करता है। काम की परिभाषा है -- कम्यते जनैरिति कामः सुखः। मनुष्यों द्वारा जिसकी कामना की जाए, वह काम है तथा यह काम सुख ही है। विचारकों का ऐसा मत है कि यदि कामना ही न हो तो व्यक्ति कार्य के लिए उन्मुख ही न हो। जिसके भीतर कामना नही है उसे धन कमाने की इच्छा होती है न धर्म करने की। कामना के बिना तो व्यक्ति कोई भी काम नही चाहता।

4. मोक्ष 

मनुष्य के पुरुषार्थ की अन्तिम और चरम परिणति मोक्ष है। साधारण रूप में मोक्ष का अर्थ जीवन की मुक्ति से लिया जाता है परन्तु यह मुक्ति संयमित जीवन एवं विधि-नियमों के अधीन होनी चाहिए। मोक्ष शब्द की व्युत्पत्ति मुक् धातु से हुई है, जिसका अभिप्राय है मुक्त करना अथवा स्वतन्त्र करना। अतः मोक्ष का अर्थ आत्मा की मुक्ति से है। अपने जीवन के सभी कार्यों को सात्विकता और सफलतापूर्वक पूरा करने के बाद मनुष्य वृद्धावस्था में इस चरम उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति का प्रयास करता है। गृहस्थ आश्रम के बाद वानप्रस्थ आश्रम में मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रयास किया जाता है तथा सन्यास आश्रम में इसे पूरा किया जाता है। धर्म, अर्थ और काम जीवन के अन्तिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति के लिए साधन है, न कि स्वयं में साध्य मोक्ष का सम्बन्ध केवल व्यक्ति से है, समूह से इसका कोई सम्बन्ध नहीं हैं। 

गीता में कहा गया है कि जो व्यक्ति निश्चयपूर्वक अन्तरात्मा में ही सुख वाला है , आत्मा में ही ज्ञानवाला है, ऐसा ही योगी परब्रह्म परमात्मा के साथ एकीभूत होकर शान्त ब्रह्म को प्राप्त करता है। अपनी इन्द्रियों मन और बुद्धि पर नियन्त्रण रखने वाले व्यक्ति को मोक्ष अपने आप ही मिल जाता है। मोक्ष प्राप्ति के तीन प्रधान आधार माने गए हैं- कर्म ज्ञान और भक्ति।" 

मनु के अनुसार तीनों ऋणों को पूरा करके ही व्यक्ति के अपने मन को मोक्ष में लगाना चाहिए, नहीं तो वह व्यक्ति नरकगामी होता है। मोक्ष के लिए प्रयास करने वाले व्यक्ति के लिए यह आवश्यक था कि वह वेदों का ज्ञान प्राप्त करें, धर्मानुसार पुत्रों को उत्पन्न करें, शक्ति के अनुरूप यज्ञों का अनुष्ठान करें और इसके बाद मोक्ष का निवेशन करें।

विष्णु पुराण में भी कहा गया है कि सभी आश्रमों के कार्य सम्पादित करने के बाद ही ब्रह्मलोक अथवा मोक्ष की प्राप्ति होती है। 

मनु (6.60) के अनुसार इन्द्रिय निरोधी, राग-द्वेष का त्यागी और अहिंसा परायण व्यक्ति ही मुक्ति के योग्य होता हैI' 

इन्द्रियाणां निरोघेन रागद्वेषक्षयेण च। 

अहिंसया व भूतानाममृतत्वाय कल्पते।। 

विधि-नियन्ताओं ने मोक्ष या परमतत्व की प्राप्ति के लिए व्यक्ति को सभी राग-द्वेष से मुक्त होकर ब्रह्मचर्य एवं गृहस्थ आश्रम का विधिपूर्वक पालन करते हुए मोक्ष प्राप्ति की अनुमति दी है। 

अतः प्राचीन भारतीय समाजशास्त्रियों का मानना है कि मनुष्य के व्यक्तित्व का उत्कर्ष पुरुषार्थ से ही सम्भव है और इनकी संख्या चार है। पर वास्तव में ये तीन ही है क्योंकि मोक्ष तो हमारे जीवन का उद्देश्य है, वही हमारा गन्तव्य तथा लक्ष्य भी है। यही कारण है कि धर्म, अर्थ तथा काम को 'त्रिवर्ग' कहा गया है। लेकिन इस त्रिवर्ग में सबसे अधिक महत्व धर्म को ही मिला है।

यह जानकारी आपके के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी

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