8/21/2020

साझेदारी के गुण एवं दोष

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साझेदारी मे, एकल व्यापार कम्पनी की अपेक्षाकृत, अनेक लाभ अथवा गुण विद्यमान है। व्यवसायिक संगठन का साझेदारी स्वरूप मध्यम पैमाने के व्यवसायों के लिए सर्वोत्तम है, क्योंकि न तो एकाकी व्यावसाय की भांति इसका क्षेत्र अत्यंत सीमित है, और न कम्पनी की भांति अधिक व्यापक। किन्तु साझेदारी मे लाभ होते हुए भी साझेदारी संगठन मे किंचित दुर्बलताएं भी है। साझेदारी के अनेक लाभ व गुणों होते हुए भी यह पूर्णतया दोष मुक्त नही है। इस लेख मे हम साझेदारी के गुण एवं दोषों पर चर्चा करेंगे।
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साझेदारी के गुण अथवा लाभ अथवा महत्व (sajhedari ke gun)

1. स्थापना मे सरलता
दो या दो से अधिक व्यक्ति मिलकर सार्थ की सरलता से स्थापाना कर सकते है। साझेदारी मात्र आपसी संविदा (संलेख) द्वारा सार्थ का स्थापना कर सकते है। साझेदारी फर्म के पंजीय की अनिवार्यता न होने के कारण किसी भी प्रकार की वैधानिगक आवश्यकता की पूर्ति करने की आवश्यकता नही होती।
2. विभिन्न प्रकार की क्षमताओं का संगम
साझेदारी का एक गुण यह है की साझेदारी के व्यापार मे विभिन्न प्रकार की क्षमता वाले जैसे- धीनी, चतुर, प्रबंध कुशल, अनुभवी आदि है।
3. साझेदारी की संख्या मे सरलता से घटा-बढ़ी
वैधानिक कठिनाईयाँ न होने के कारण साझेदारों की संख्या आवश्यकतानुसार घटायी-बढ़ायी जा सकती है और इस प्रकार की घटा-बड़ी का कार्य-संचालन पर कोई प्रभाव नही पड़ता।
4. प्रत्येक कार्य पर पर्याप्त विचार-विमर्श होना
साझेदारी फर्म मे प्रत्येक कार्य एक-दूसरे की राय से खूब सोच-समझकर किया जाता है। इससे किसी मामले की तह तक पहुंचकर अचित-अनुचित का भली प्रकार निश्चित हो जाता है और बाद मे गलती होने की आशंका नही रहती।

5. अधिक लोच 
साझेदारी मे आवश्यकतानुसार, कोई भी परिवर्तन बहुत आसानी से किया जा सकता है। आवश्यकतानुसार इसके आकार को घटया या बढ़ाया जा सकता है।
6. कार्य-कुशलता को प्रोत्साहन
एकाकी व्यापार की तरह, साझेदारी मे भी कार्य तथा परिणाम या लाभ मे सीधा सम्बन्ध होने के कारण साझेदारों को कुशलता से काम करने व परिश्रम करने का प्रोत्साहन मिलता है। अधिक परिश्रम वे इसलिए भी करते है क्योंकि वे जानते हैं कि यदि वे परिश्रम न करेंगे तो हानि होगी और उस हानि को उन्हें ही वहन करना पड़ेगा।
7. असीमित दायित्व
साझेदारी मे समस्त साझेदार सम्पूर्ण लाभ के अधिकारी और हानि के भाजक होते है। साझेदारी का दायित्व असीमित होता है अतः सभी साझेदार केवल लाभ के लिए प्रयत्नशील होते है, जिससे कि हानि की सम्भावना ही न रहे। अन्यथा हानि की स्थिति मे फर्म की सम्पत्ति के बाद उसकी पूर्ति साझेदारों की व्यक्तिगत सम्पत्ति से करनी होगी।
8. अधिक पंजी की उपलब्धता
एकाकी व्यापार की तुलना मे साझेदारी स्वरूप के अन्तर्गत पूंजी को अधिक मात्रा मे एकत्र किया जा सकता है, क्योंकि यहाँ एक नही वरन् अनेक साझेदार अपने वित्तीय साधनों का सामंजस्य करते है।
9. जोखिम का बाँटवारा
साझेदारी व्यवसाय अधिक जोखिमपूर्ण व्यवसायों के लिए उपयुक्त माना जाता है, क्योंकि इसमे जोखिम का वहन किसी एक नही करना पड़ता है। जोखिम का बँटवारा सभी साझेदारों के मध्य होने के कारण इसका भार एकाकी व्यावसाय की तुलना मे कम उठाना पड़ता है।

साझेदारी के दोष या हानियाँ (sajhedari ke dosh)

1. असीमित दायित्व 
साझेदारी संगठन का यह प्रमुख दोष है कि एकाकी व्यापार की तरह इसके साझेदारों या दायित्व भी असीमित होता है। इसके परिणामस्वरूप, साझेदारों की व्यक्तिगत सम्पत्ति का प्रयोग फर्म के भुगतान के लिये किया जा सकता है। इस दायित्व का भय साझेदारों को सदैव बना रहता है और उनके साहस की मात्रा को कम करता है।
2. दैनिक कार्यों मे देरी 
फर्म को अपने दैनिक कार्यों मे धीरे-धीरे बढ़ना पड़ता है, क्योंकि कार्य के प्रति सब साझेदारों की सहमति लेनी पड़ती है। कभी-कभी तो लाभ के मौके भी हाथ से निकल जाते है।
3. मतभेदों की अधिक संभावना
जब साझेदारों की संख्या अधिक होती है तो प्रबंध मे कठिनाई पड़ने लगती है और बहुधा आसप मे मतभेद हो जाया करता है जो आगे चलकर संस्था के अन्त का कारण बन जाता है।
4. अस्तित्व का अनिश्चित होना 
साझेदारी का अस्तित्व बड़ा अनिश्चित होता है। किसी साझेदार की मृत्यु, दिवालिया या पागल होने से फर्म टूट जाती है। अस्तित्व के अनिश्चित होने से इसके व्यवसाय मे उतनी स्थितरता नही होती, जितनी कि एक कम्पनी के व्यापार मे।

5. सीमित पूँजी
इसमे कई साझेदार मिल कर पूँजी लगाते है फिर भी कुल पूँजी की मात्रा सीमित ही होती है। कम्पनी की अपेक्षाकृत, फर्म को उपलब्ध पूँजी बहुत कम होती है। जैसे-जैसे, फर्म का आकार बढ़ता जाता है उसके वित्तीय साधन अपेक्षाकृत कम होते जाते है।
6. बड़े व्यवसाय के लिए अनुपयुक्त
यह संगठन बड़े आकार वाले व्यवसाय के लिए अनुपयुक्त होते है। इसी दोष के कारण, कम्पनी अत्यधिक प्रचलित संगठन का स्वरूप है जो कि किसी बड़े आकार वाले व्यवसाय के सफल संचालन के लिये समर्थ एवं सक्षम है।
7. प्रबंध सम्बंधी दोष
व्यवहार मे साझेदारों मे प्रबंध सम्बंधी अनेक कठिनाइयाँ आती है। प्रायः वे एकमत नही होते, इससे निर्णय लेने मे देरी व कठिनाई होती है। कुछ साझेदार प्रबंधन मे सक्रिय रूप से भाग लेते है जबकि अन्य साझेदार उतने सक्रिय नही रह पाते। उस स्थिति मे, आपसी मतभेद भी उत्पन्न होता रहता है। इस कारण प्रबन्धन मे सब के हितों का सामंजस्य, प्रायः नही हो पाता है।
8. गोपनीयता मे सन्देह 
फर्म के लेखो का अंकेक्षण व प्रकाशन आवश्यक नही होता। साथ ही इसका पंजीयन भी आवश्यक नही होता। फर्म की समस्त बातें केवल साझेदारों तक ही सीमित होती है। इस प्रकार निर्मित गोपनीयता से तृतीय पक्षों को फर्म की क्षमता और ख्याति पर सन्देह होने लगता है, जिसके फलस्वरूप फर्म की साख क्षमता कम हो जाती है। कभी-कभी गोपनीयता से साझेदारों मे आपस मे ही भ्रम उत्पन्न हो जाता है जिससे कटुता और अविश्वास उत्पन्न होते है।
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