2/14/2022

भारत में दलीय प्रणाली की विशेषताएं/स्वरूप, दोष

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bhartiya raajnitik dalo ki visheshta;लोकतंत्र के कुशल संचालन के लिए राजनीतिक दलों की आवश्यकता होती हैं। प्रजातंत्र का चाहे कोई भी स्वरूप क्यों न हो राजनीतिक दल प्रणाली के अभाव में संचालित हो ही नहीं सकता। राजनीतिक दलों को इसलिए 'लोकतंत्र का प्राण' कहा जाता हैं। मुनरों के शब्दों में "लोकतंत्रात्मक शासन दलीय शासन का ही दूसरा नाम हैं।" 

राजनीतिक दलों को प्रजातंत्र का प्राण, ह्रदय और आत्मा कहा जाता हैं। यह वह तेल है जो शासन के विभिन्न पुर्जों को सहजता से संचालित करता हैं। राजनीतिक दलों को शासन का चतुर्थ अंग कहा जा सकता हैं। ब्राइस के शब्दों में," किसी भी व्यक्ति ने यह नहीं दिखाया हैं कि राजनीतिक दलों के अभाव में लोकतंत्र कैसे चल सकता हैं।" 

भारत में दलीय प्रणाली का स्वरूप एवं विशेषताएं 

भारत में दलीय प्रणाली की अपनी विशेषताएँ हैं। भारत की दलीय प्रणाली में निम्नलिखित विशेषताएं हैं-- 

1. बहुलीय प्रणाली 

भारतीय संविधान के अन्तर्गत समस्त व्यक्तियों को विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संघ तथा समुदाय बनाने की स्वतंत्रता प्रदान की गई हैं। इसी कारण भारतवर्ष में बहुदलीय व्यवस्था विकसित हुई हैं। भारतवर्ष में इतने अधिक राजनीतिक दल हैं कि इनकी संख्या निश्चित कर पाना कठिन हैं। मार्च, 77 के चुनाव में जनता पार्टी के गठन के कारण इन दलों की संख्या को कम करने के प्रयास हुए। जनता पार्टी की असफलता के कारण इस प्रयास को बहुत बड़ा धक्का पहुँचा। 1989 से राजनीतिक दलों के एकीकरण के लिए पुनः प्रयास हुए, जिनके परिणामस्वरूप राष्ट्रीय मार्चा दल का गठन हुआ। 

2. दलीय राजनीति की अपेक्षा गुटों की राजनीति 

भारतवर्ष में कांग्रेस के अतिरिक्त कोई राजनीतिक दल सुदृढ़ और सुसंगठित नहीं है। अधिकांश राजनीतिक दल संसद के मान्यता प्राप्त दल भी नही हैं क्योंकि संसद में उनके सदस्यों की संख्या बहुत कम हैं। प्रो. पार्क ने इन राजनीतिक दलों को 'राजनीतिक समूह' कहा है। भारतीय जनता पार्टी ने अवश्य ही लोकसभा में अपनी संख्या में आशातीत वृद्धि की हैं। 

5. ध्रुवीकरण और खण्डीकरण 

भारतीय राजनीतिक दल प्रणाली की यह विशेषता रही है कि इसमें खण्डीकरण तथा ध्रुवीकरण की प्रक्रिया निरन्तर गतिशील रही हैं। इस रोग से कांग्रेस और विरोधी दल दोनों ही पीड़ित रहे हैं। कांग्रेस को कई बार विभाजन का सामना करना पड़ा। जनता पार्टी के विघटन के बाद विरोधी दलों में यह प्रक्रिया तीव्र गति से चल रही हैं। 

4. राजनीतिक दल-बदल की प्रवृत्ति 

भारतीय राजनीतिक दल प्रणाली दल-बदल के संक्रामक रोग से ग्रसित है। राजनीतिक दलों के सदस्य दलों के सिद्धांतों में विश्वास न रखकर स्वार्थवश सत्ताधारी दल में सम्मिलित हो जाते हैं। चतुर्थ आम चुनाव के पश्चात यह रोग भीषण रूप से भारतीय राजनीतिक दल प्रणाली में विद्यमान हो गया। दल-बदल के परिणामस्वरूप राज्य में राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न होती हैं। दल-बदल के कारण चाहे जो हों परन्तु यह राजनीतिक नैतिकता के सामान्य सिद्धान्त के अनुरूप कभी नहीं कहा जा सकता। संविधान के 52वें संशोधन (1985) द्वारा इस प्रवृत्ति पर बहुत कुछ नियंत्रण स्थापित कर लिया गया है। 

5. अवसरवादिता की उभरती प्रवृत्तियाँ 

भारतवर्ष में राजनीतिक दल अवसरवादिता के रोग से ग्रसित हैं। समस्त सिद्धांतों को ताक में रखकर सत्ता के स्वाद को चखना उनका एकमात्र उद्देश्य है। रजनी कोठारी के अनुसार," व्यक्ति का महत्व अभी भी राजनीति में बहुत हैं।" भारत में एक ही संगठन के विभिन्न अंग अलग-अलग काम करते हैं। एक ही दल की राष्ट्रीय और राज्य शाखाएँ प्रतिकूल दिशाओं में चलती हैं और उन गुटों व तत्वों से हाथ मिलाती है जो विचारधारा और नीति में उनसे भिन्न हैं। केरल में कांग्रेस ने मुस्लिम लीग से गठजोड़ किया। जनसंघ संविदा शासन काल में साम्यवादी दल के साथ मिलकर सत्ता का स्वाद चखने को राजी हो गया। जनता पार्टी का बे-मेल गठन भी इसी प्रवृत्ती का प्रतीक सिद्ध हुआ।

6. विचारधारा की अस्पष्टता और अनिश्चितता 

भारत के सत्ताधारी और विपक्षी दोनों दलों में वैचारिक स्पष्टता का अभाव है। 

7. निर्दलीय सदस्यों की भूमिका

भारत में अनेक राजनीतिक दलों का अस्तित्व है। इसके बावजूद भी अनेक निर्दलीय सदस्य निर्वाचन में चुनकर आते हैं। इन सदस्यों की कोई निश्चित नीति नही होती चाहे जब किसी दल में सम्मिलित हो जायें। निर्दलीय सदस्यों का निर्वाचन लोकतंत्र के हित में नहीं हैं। 

8. संकुचित आधार पर प्रान्तीय दलों का गठन 

भारत में अनेक राजनीतिक दलों का गठन जातीय, प्रान्तीय, भाषा तथा धर्म के आधार पर हुआ हैं। हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग, रामराज्य परिषद तथा डी. एम. के कुछ इसी प्रकार के राजनीतिक दल हैं। 

9. विरोध की नीति आंदोलनकारी रही हैं 

भारतीय राजनीतिक दल की यह विशेषता रही है कि विरोधी पक्ष ने आंदोलनों की नीति का अनुसरण हमेशा किया हैं। संवैधानिक साधनों का प्रयोग विरोध के लिए नहीं किया गया। इसके साथ ही विरोध केवल बुद्धिजीवियों तक ही सीमित रहा हैं। सर्वसाधारण इससे हमेशा अछूता रहा हैं। 

10. व्यक्ति पूजा की भावना 

भारतवर्ष मे राजनीतिक दलों का संगठन प्रजातांत्रिक आधार पर किया जाता हैं तथापि भारतीय चरित्र के अनुकूल व्यक्ति पूजा की भावना सदैव बलवती रही हैं। पण्डित नेहरू का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि किसी को उनका विरोध करने का साहस ही नही होता था। सन् 1967 से श्रीमती इन्दिरा गाँधी का व्यक्तित्व कांग्रेस पर हावी रहा हैं। नम्बर 1984 के बाद राजीव गाँधी का प्रभाव कांग्रेस पर अत्यधिक रहा। कांग्रेस दल ही केवल नेतृत्व से आच्छादित रहा हो, ऐसी बात नही हैं। द्रमुक पर अन्ना का, जनता पार्टी पर अटल बिहारी वाजपेयी का, वर्तमान मे नरेंद्र मोदी का हैं। नेतृत्व की पूजा भारतीय राजनीतिक दल प्रमाली की महत्वपूर्ण विशेषता रही हैं।

भारतीय दल प्रणाली के दोष 

भारतीय दल प्रणाली में निम्नलिखित प्रमुख दोष विद्यमान हैं-- 

1. नीतियों और कार्यक्रमों में अस्पष्टता 

भारत के राजनीतिक दलों में स्पष्ट नीति व कार्यक्रम का अभाव हैं। 

2. दलों का गठन विचारधारा के आधार पर नहीं 

भारत में राजनीतिक दलों का गठन राजनीतिक-आर्थिक विचारधाराओं के आधार पर नहीं, बल्कि अन्य प्रभावों से हुआ हैं। 

3. योग्य व्यक्तियों की उदासीनता 

राजनीतिक दलों के कारण देश में भयंकर झगड़े और उपद्रव होते हैं। अतः योग्य व्यक्तियों का राजनीतिक कार्यों में उत्साह नहीं होता हैं, प्रायः वे उदासीन रहते हैं। 

4. बाहुलता एक अनिवार्य दुर्बलता 

भारत एक 'बहुल' समाज वाला देश हैं। यहाँ भाषाई, जातिगत, धार्मिक और क्षेत्रीय विविधता बहुत अधिक है। साथ ही यहाँ एक परिपक्व राजनीतिक चरित्र का भी अभाव हैं। इसलिए भारत में राजनीतिक दलों की बहुलता एक अनिवार्य दुर्बलता बन गई हैं। 

5. सुसंगठित विरोधी दल का अभाव

संसदीय प्रजातंत्र को सफल बनाने के लिए सशक्त विरोधी दल का होना आवश्यक होता हैं लेकिन बहुदलीय व्यवस्था के कारण भारत में संभव नहीं हैं। 

6. अनुशासन का अभाव

भारत के अधिकांश राजनीतिक दलों में संगठनात्मक ढाँचा बहुत ढीला हैं। दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं में अनुशासन का बहुत अभाव हैं। इसीलिए दलों में फूट पड़ती रहती हैं। 

7. व्यक्ति पूजा पर आधारित 

भारत दल पद्धित व्यक्ति पूजा पर आधारित हैं। राजनीतिक दलों का गठन व्यक्तियों के आधार पर होता हैं, चाहे वे सिने जगत के ही रहे हों।

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