6/16/2021

समाजशास्त्रीय सिद्धांत क्या है? परिभाषा, विशेषताएं

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samajshastriya siddhant arth paribhasha visheshta mahatva;सिद्धान्त वैज्ञानिक अन्वेषण का महत्त्वपूर्ण चरण है। गुड तथा हैट ने इसे विज्ञान का एक उपकरण माना है क्योंकि इससे हमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण का पता चलता है, तथ्यों को सुव्यवस्थित करने, वर्गीकृत करने तथा परस्पर सम्बन्धित करने के लिए इससे अवधारणात्मक प्रारूप प्राप्त होता है, इससे तथ्यों का सामान्यीकरण के रूप में संक्षिप्तीकरण होता है तथा इससे तथ्यों के बारे में भविष्यवाणी करने एवं ज्ञान में पाई जाने वाली त्रुटियों का पता चलता है। प्रत्येक विषय वैज्ञानिक शोध द्वारा अपनी विषय-वस्तु से सम्बन्धित तथ्यों को यथार्थ रूप में समझने का प्रयास करता है तथा इन तथ्यों को परस्पर सम्बन्धित करके सार्वभौमिक नियमों अथवा सिद्धान्तों का निर्माण करने का प्रयास करता है। समाजशास्त्र भी इसमें कोई अपवाद नहीं है, यद्यपि टी. बी. बॉटोमोर के अनुसार वर्तमान समय तक ऐसा कोई भी सामान्य समाजशास्त्रीय सिद्धान्त विकसित नहीं हो पाया है जो मान्य अथवा व्यापक रूप से स्वीकृत हो। प्रारम्भ के समाजशास्त्रियों का यह दावा कि उन्होंने अनेक मूलभूत एवं सार्वभौमिक नियमों की खोज करने में सफलता प्राप्त कर ली थी, आज के समाजशास्त्री स्वीकार नहीं करते तथा यह तर्क देते हैं कि प्रारम्भिक समाजशास्त्रियों के प्रयास वास्तव में अवधारणाओं के निर्माण एवं वर्गीकरण से ही मुख्यतः सम्बन्धित रहे हैं। समाजशास्त्रीय सिद्धान्त का निर्माण आनुभविक तथ्यों के आधार पर किया जाता है। शोध से हमारे सामने जो तथ्य आते हैं उनके सामान्यीकरण के आधार पर ही समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों का निर्माण किया जाता है। समाजशास्त्र में अभी तक अधिक सिद्धान्तों का निर्माण नहीं हो पाया है।

समाजशास्त्रीय सिद्धांत क्या है? 

सिद्धांत वैज्ञानिक प्रक्रिया का महत्वपूर्ण परिणाम है। विभिन्न विज्ञान अपनी विषय वस्तु से संबंधित घटनाओं के पारस्परिक संबंधो का पता लगाते है। खोज करने के उपरांत जो निष्कर्ष प्राप्त होते है, उनके आधार पर सिद्धांतों का निर्माण किया जाता है। ये सिद्धांत भावी अनुसंधान मे वैज्ञानिकों का मार्गदर्शन करते है। इस प्रकार प्रत्येक विज्ञान मे सिद्धांत का विशेष महत्व होता है। समाजशास्त्र मे भी सामाजिक घटनाओं के व्यवस्थित अध्ययन और अन्वेषण के बाद जिन वास्तविकताओं का उद्घाटन किया जाता है उन्हे 'समाजशास्त्री सिद्धांत' कहा जाता है। 

समाजशास्त्री सिद्धांत की परिभाषा (samajshastriya siddhant ki paribhasha)

फेयर चाइल्ड के अनुसार," अनुभव से प्राप्त तथ्यों पर आधारित वह सामान्यीकरण समाजशास्त्री सिद्धांत कहलाता है जो विश्वसनीय हो और जिसके द्वारा सामाजिक घटनाओं की व्याख्या की जा सके।"

मर्टन के अनुसार," आज जिसे समाजशास्त्री सिद्धांत कहा जाता है, उसके अंतर्गत आंकड़ों के प्रति सामान्य उन्मेष सम्मिलित है। जिन पर किसी न किसी प्रकार से सोच-विचार करने की आवश्यकता पड़ती है। इसके अंतर्गत स्पष्ट तथा विशिष्ट चरों के बीच प्रभाव योग्य प्रस्तावनाओं की गणना नही की जाती है।" 

एबल के शब्दों मे," समाजशास्त्री सिद्धांत नियमों की व्याख्या करने के लिए निर्मित अवधारणात्मक योजनाएं है। सभी सिद्धांत का सामान्य कार्य प्रेक्षित नियमितताओं की व्याख्या करता है।" 

समाजशास्त्रीय सिद्धांत की विशेषताएं (samajshastriya siddhant ki visheshta)

समाजशास्त्रीय सिद्धांत की निम्न विशेषताएं है--

1. सार्वभौमिकता

समाजशास्त्री सिद्धांत सार्वभौमिक होते है। ये समान परिस्थिति मे समान तरह की घटनाओं पर लागू होते है।

2. परीक्षणात्मक 

समाजशास्त्री सिद्धांत काल्पनिक नही होते। ये अवलोकन से प्राप्त तथ्यों पर आधारित होते है।

3. प्रत्यक्षात्मक 

समाजशास्त्री सिद्धांत यथार्थवादी होते है।

4. तर्क संगत 

समाजशास्त्रीय सिद्धांत तर्क की कसौटी पर परखे जाते है।

5. मूल्य मुक्त 

समाजशास्त्रीय सिद्धांत मूल्यों से मुक्त होते है। इसमे क्या उचित है तथा क्या अनुचित है, इसका वर्णन नही किया जाता है।

6. वैज्ञानिक आधार 

समाजशास्त्रीय सिद्धांतों का आधार वैज्ञानिक होता है। इनका निर्माण वैज्ञानिक पद्धति द्वारा होता है।

उपरोक्त विशेषताओं के संदर्भ मे कुछ समाजशास्त्रीयों ने इन्हे अपने अनुसार आलोचनात्मक दृष्टिकोण से स्पष्ट किया है। कोहन ने लिखा है कि ऐसे बहुत से कारण है जिनकी वजह से समाजशास्त्री सिद्धांत विज्ञान की कसौटी पर खरा नही उतरता।

1. कुछ समाजशास्त्रीय सिद्धांत विश्लेषणात्मक सिद्धांतों से बहुत कुछ मिलते-जुलते है तथा इसलिए उनका आनुभाविक परीक्षण संभव नही होता।

2. इसी तरह एक सिद्धांत के अनुसार एक सामाजिक व्यवस्था के विभिन्न अंग जरूरी रूप से अंतः निर्भरशील है। अतः सिर्फ इतना कर देना कि एक सामाजिक व्यवस्था के विभिन्न अंग अंतः निर्भरशील है किसी भी वैज्ञानिक सिद्धांत को पेश नही करता, लेकिन अगर उन अवस्थाओं के विषय मे अंतः निर्भरता की मात्राओं के पाये जाने की बात कही जाये तो यह सिद्धांत वैज्ञानिक सिद्धांत के ज्यादा निकट होगा।

3. बहुत से समाजशास्त्री सिद्धांत न तो सार्वभौमिक कथन होते है तथा न ही तथ्य के कथन।

4. बहुत से समाजशास्त्री सिद्धांतों का परीक्षण इसलिए भी कठिन होता है, क्योंकि वे कुछ ऐसे अस्पष्ट विधान देते है जिनका कि दृढ़तापूर्वक परीक्षण संभव नही होता।

लेकिन उपरोक्त संदर्भ मे कोहेन ने हमे यह भी बतलाया है कि सभी समाजशास्त्रीय सिद्धांत इस तरह के नही होते। कुछ परिशुद्ध तथा परीक्षण योग्य सिद्धांत भी होते है। अतः निष्कर्ष के रूप मे हम कहते है कि सभी समाजशास्त्रीय सिद्धांत स्वयं मे अपूर्ण, निरर्थक तथा अवैज्ञानिक नही है। ऐसे बहुत से समाजशास्त्री सिद्धांत है जो कि असल मे अत्यन्त उपयोगी तथा विज्ञान से संबंधित है एवं उनके द्वारा सामाजिक घटना तथा संबंधों के बारें मे महत्वपूर्ण नियमों का पता चलता है।

समाजशास्त्री सिद्धांत के निर्माण की प्रक्रिया 

सिद्धांत चाहे सामाजिक हो अथवा भौतिक उसके निर्माण की एक विशेष प्रक्रिया होती है। समाजशास्त्रीय सिद्धांत का निर्माण वैज्ञानिक पद्धति के द्वारा ही होता है। लेज्ञार्स फील्ड ने समाजशास्त्रीय सिद्धांत के निर्माण की प्रक्रिया इस प्रकार बताई है--

1. समस्या का निरूपण 

सिद्धांत निर्माण में सबसे पहले समस्या का निरूपण किया जाता है। यह महत्वपूर्ण कार्य है क्योंकि संपूर्ण अनुसंधान इसी के संदर्भ में होता है।

2. अर्थों एवं प्रत्ययों का वर्गीकरण 

अनुसंधान में जिन प्रत्ययों का प्रयोग होता है उनका अर्थ स्पष्ट होना अनिवार्य है। इससे अनुसंधान कार्य स्पष्ट होता है। जिन शब्दों का प्रयोग किया जा रहा है उनका अर्थ और सीमाएं स्पष्ट की जाती है।

3. क्रमबद्ध प्रमाण

समाजशास्त्रीय सिद्धांत क्रमबद्ध प्रमाणों पर आधारित होना चाहिए अवलोकन द्वारा प्रमाणित तथ्य एकीकृत कर उन्हें क्रमबद्ध किया जाता है।

4. सामान्यीकरण 

अंत में वैज्ञानिक पद्धति के द्वारा सामान्यीकरण किया जाता है।

आर. के. मर्टन ने भी समाजशास्त्रीय सिद्धांत के निर्माण की प्रक्रिया मे निम्न चरणों का उल्लेख किया है--

(अ) पद्धतिशास्त्र,

(ब) सामान्य समाजशास्त्री दिशा निर्देश,

(स) प्रत्ययों का विश्लेषण, 

(द) विषय सामग्री की व्याख्या, 

(ई) सामान्यीकरण,

(फ) सिद्धांत निर्माण।

समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों का महत्त्व 

समाजशास्त्र में समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अब्राहम ने हमारा ध्यान समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों के निम्नलिखित आठ प्रकार्यों की ओर दिलवाने का प्रयास किया है--

1. समाजशास्त्रीय सिद्धान्त सम्भावित समस्याओं एवं अर्थपूर्ण उपकल्पनाओं की ओर संकेत करते हैं जो नवीन अन्वेषणों अथवा अध्ययनों का आधार बनती हैं। 

2. समाजशास्त्रीय सिद्धान्त तथ्यों के बारे में पूर्वानुमान लगाने में सहायता देते हैं । एक अर्थपूर्ण सिद्धान्त अन्तर्दर्शी ज्ञान, ऐतिहासिक विश्लेषण तथा सामाजिक समरूपताओं के अवलोकन पर आधारित होने के कारण पूर्वानुमान हेतु एक ठोस आधारशिला प्रस्तुत करता है।

3. समाजशास्त्रीय सिद्धान्त विषय वस्तु एवं तथ्यों के सम्बन्धों को क्रमबद्ध बनाते हैं तथा सरल अवधारणात्मक योजना प्रदान करते हैं।

4. समाजशास्त्रीय सिद्धान्त विशिष्ट आनुभविक निष्कर्षो तथा समाजशास्त्रीय उन्मुखीकरणों अथवा दिग्गवन्यासों (Sociological orientations) के बीच कड़ी प्रदान करते हैं तथा इससे शोध की सार्थकता बढ़ जाती है  

5. अर्थ प्रदान करके समाजशास्त्रीय सिद्धान्त सत्यता को अनुप्रमाणित भी करते हैं।

6. समाजशास्त्रीय सिद्धान्त शोध को निर्देशित करते हैं तथा अध्ययन किए जाने वाले तथ्यों की श्रेणी को परिसीमित भी करते हैं। 

7. समाजशास्त्रीय सिद्धान्त अन्वेषण के उपकरण भी हैं। वे शोध प्ररचना के निर्माण में सहायता प्रदान करते हैं। 

8. समाजशास्त्रीय सिद्धान्त हमारे ज्ञान में त्रुटियाँ बताते हैं तथा इन्हें पूरा करने में सहायता प्रदान करते हैं।

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