पर्यावरण का महत्व (paryavaran ka mahatva)
paryavaran adhiniyam ka mahatva;पर्यावरण जीवन-स्त्रोत है जो अनादिकाल से पृथ्वी पर मानव एवं संपूर्ण जीव जगत को न केवल प्रश्रय देता रहा है, अपितु उसे विकास के प्रारंभिक काल से वर्तमान तक अस्तित्व मे बनाए रखने का आधार रहा है। भविष्य का जीवन भी इसी पर निर्भर करता है। वायु, जल, मृदा, जीव, जंतु तथा वनस्पति पर्यावरणीय मूल घटक है, जिनकी पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया से संपूर्ण जैवमंडल परिचालित होता है। जैवमंडल मे जीवन का उद्धव, विकास एवं विलुप्त होना इस तथ्य पर निर्भर करता है कि प्रकृति अथवा प्राकृतिक वातावरण के साथ उसका कितना समन्वय एवं सामंजस्य है।
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कोई भी जीव सर्वथा एकल (solitary) या विलगित (isolated) जीवन व्यतीत नही करता है। पृथ्वी पर विविध जीव इतनी अधिक संख्या मे है कि किसी भी स्थान पर निवास करने वाले किसी भी जीव का, दूसरे अनेक जीवों के साथ सहवासित होना एक अनिवार्यता होती है। इस प्रकार के सहवासों का जीव के अस्तित्व के प्रकार की दिशा पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। इस दृष्टि से भौतिक पर्यावरण का भी बहुत महत्व होता है क्योंकि जीव की अधिकांश ऊर्जा अपने पर्यावरण की भौतिक स्थितियों के प्रति अनुकूलित होने मे ही व्यय होती है। इस प्रकार पर्यावरण तथा जीव एक दूसरे से जुड़े हुए है। पर्यावरण से पृथक किसी जीव की कल्पना करना भी असंभव है।
समस्त प्राणी भोजन के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप मे हरे पादपों पर निर्भर रहते है। अनेक पादप भी प्राणियों पर निर्भर रहते है, उदाहरणार्थ वे पादप जिन्हे परागण के लिए कीटों की आवश्यकता होती है। यद्यपि कुछ हरे पादप सूर्य से प्राप्त ऊर्जा तथा मृदा मे प्राणपोषक तत्वों के सहारे कुछ समय तक स्वतंत्र रूप से जीवित रह सकते है, पर जैसे ही बीजांकर की वृद्धि आरंभ होती है, उनमें प्रतिस्पर्धात्मक संबंध प्रकट होने लगते है। इस प्रकार प्रत्येक जीव के पर्यावरण मे अन्य जीव भी आवश्यक तथा अपरिवर्जनीय अंग के रूप मे उपस्थित रहते है। कोई भी जीव अन्य सहवासी जीवों की उपेक्षा कर जीवित नही रह सकता है। अतः पर्यावरण अध्ययन का महत्व मानव पर अपने पर्यावरण के प्रभाव और पर्यावरण पर मानव के प्रभाव का अध्ययन करता है, क्योंकि परिभाषित रूप मे पर्यावरण जीवों की क्रियाओं को प्रभावित करने वाले समस्त जैविक और अजैविक परिस्थितियों का योग होता है। पर्यावरण अध्ययन का महत्व पर्यावरण के प्रति मानव की अनुक्रिया जो निम्मलिखित चार रूपों मे अभिव्यक्त होती है, के कारण भी है--
1. आकारिकी अनुकूलन
जीवों की संख्या, आकार, वितरण, घनत्व, वृद्धि, पर्यावरण की अनुकूलता से बढ़ती तथा प्रतिकूलता से घटती है।
2. शारीरिक क्रियात्मक अनुकूलन
जीवों के रूप, रंग, ऊँचाई, स्वास्थ्य और विभिन्न रोग पर्यावरण से नियंत्रित होते है।
3. व्यवहार प्रतिरूप
जीवों के स्थानान्तरण, मनुष्यों के उद्यम, उपकरणों, आदर्शों मान्यतायें, धारणायें पर्यावरण से संचालित होती है।
4. सामुदायिक संबंध
धर्म, रीति रिवाज, परम्पराओं और रूढ़ियों मे भी पर्यावरण की छाप देखी जाती है।
सच तो यह है, जीवन का अस्तित्व मूलतः पर्यावरण पर निर्भर है। मनुष्य एवं समस्त जीवधारी पर्यावरण से ही अपने जीवन के लिए उपयोगी वस्तुएं प्राप्त करते है। सुनियोजित पर्यावरण के अभाव मे अनेक प्रतिकूल एवं हानिकारक प्रभाव परिलक्षित होने लगे है और आज विश्व के अनेक देश पर्यावरण-प्रदूषण की चपेट मे आ चुके है। अतः संसाधनों के अनियंत्रित दोहन, विकास की प्रतिस्पर्धा से हटकर समन्वित उपाय ढूंढना संपूर्ण मानव जाति का अस्तित्व बचाने की दृष्टि से भी पर्यावरण का अध्ययन महत्वपूर्ण है।
पर्यावरण के प्रकार (paryavaran ke prakar)
बाहरी पर्यावरण मुख्य रूप से तीन रूपों मे विद्यमान है--
1. भौतिक पर्यावरण
पर्यावरण का मुख्य भाग भौतिक पर्यावरण से मिलकर बनता है, जिसके अंतर्गत वायु, जल तथा खाद्य पदार्थ, भूमि, ध्वनि, ऊष्मा, प्रकाश, नदी, पर्वत, खनिज पदार्थ, रेडियेशन और अन्य पदार्थ शामिल है जिनसे मनुष्य का लगातार संपर्क रहता है। हमेशा इन घटकों के संपर्क मे रहने के कारण ये मानव स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव डालते है। सामान्य अवस्था की सामंजस्यता टूटने से मनुष्य पर्यावरण के दुष्प्रभावों से प्रभावित हो जाता है।
2. जैविक पर्यावरण
सारभौम मे जैविक पर्यावरण बहुत अवयव है, जो कि मानवों के इर्द-गिर्द रहता है। यहां तक की एक मानव हेतु दूसरा मानव भी पर्यावरण का एक भाग है। जीव-जंतु तथा वनस्पति इस घटक के मुख्य सहयोगी है। सामान्यतया मनुष्य इन जैविक अवयवों के साथ अंतसबंध तथा सामंजस्यता बनाने की कोशिश करता है। जैविक पर्यावरण की समुचित जानकारी बीमारियों के निवारण मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
3. मनो-सामाजिक पर्यावरण
मनो-सामाजिक पर्यावरण मानव के सामाजिक संबंधो से प्रकट होता है। इसके अंतर्गत हम सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक तथा आध्यात्मिक क्षेत्रों मे 'मानव' व्यक्तित्व के विकास का अध्ययन करते है। मावन एक सामाजिक प्राणी है, उसे परिवार मे माता-पिता भाई-बहन आदि से संबंध बनाये रखना पड़ता है तो उसे समाज के अन्य वर्ग, पास-पड़ोसी, समुदाय, प्रदेश तथा राष्ट्र से भी संबंध बनाये रखना पड़ता है। ये सभी सामाजिक पर्यावरण की सीमा मे आते है। सांस्कृतिक मूल्य, आदतें, विश्वास, धैर्य, शिक्षा, व्यवसाय, जीवन मानक तथा राजनीतिक स्थितियाँ आदि सभी मावन पर्यावरण के स्त्रोत है। मनुष्य सामाजिक तथा सांस्कृतिक पर्यावरण का उत्पाद है, जिसके द्वारा मानव आकार तैयार होता है। रहन-सहन, खान-पान, पहनावा-ओढ़ावा, बोल-चाल, सामाजिक मान्यताएं, मानव व्यक्तित्व का ढांचा बनाती है, जिसका मानसिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य से सीधा संबंध है।
पर्यावरण की जरूरत
मानव एक सामाजिक प्राणी है, अतः उसका परिवार तथा समाज से घनिष्ठ संबंध होता है। पर्यावरण का अर्थ है-- वातावरण। जिसमे संपूर्ण प्रकृति (नदियां, जलाशय, वन-उपवन, वाटिका, झरने, पर्वत श्रंखलाएं, जट्टान, खनिज, पेड़-पौधे, वायु तथा जल का संयोग) आती है। मनुष्य पर्यावरण मे ही जी रहा है, इसलिए शूद्ध पर्यावरण की अत्यन्त जरूरत है। कक्षा मे छात्र को विस्तृत पर्यावरण के बारे मे ज्ञान नही कराया जाता है। अवलोकन, प्रायोजना तथा पर्यटन विज्ञान शिक्षण की ऐसी विधियां है, जो उसे अपने चारों तरफ की प्रकृति के रहस्य के बारे मे अवगत कराती है।
प्रकृति का क्षेत्र विस्तृत है, जो कि पर्यावरण के साथ जुड़ा हुआ है। वह प्राकृतिक घटनाओं की जानकारी एवं उसके कारण ढूँढता है। प्राकृतिक वन संपदा प्राथमिक स्तर पर एक मनोहर रूप पेश करती है। खेत, बगीचे, झरने, नदी, वाटिकाएं तथा विभिन्न जीव-जंतु आदि सभी इस पर्यावरण को सुंदर और स्वच्छ बनाते है।
बालक प्रकृति की गोद मे जाकर प्राकृतिक दृश्यों का बोध करता है तथा निरीक्षण कर उन्हे समझ लेता है। आजकल प्राथमिक स्तर पर यूनिसेफ ने एक योजना पर्यावरण शिक्षा विद्यालयों मे शुरू कर दी है। इसके द्वारा छात्रों को शिक्षण दिया जाता है, वह अपव्ययी नही है। प्राथमिक स्तर पर ही छात्रों को प्रकृति के रहस्य का बोध एक अन्वेषणकर्ता के रूप मे करना चाहिए।
Paryawaran ke mahatv ki heading (point) dalna chahiye
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