पारिस्थितिकी तंत्र के प्रकार
paristhitik tantra ke prakar;हमे भली भांति मालूम है कि पारिस्थितिकी तंत्र मे प्रकृति और जीव मुख्य तत्व है। जीवों मे मनुष्य ने तकनीकी विकास से पारिस्थितिकी तंत्र की कार्यकुशलता को जहाँ एक ओर बढ़ाया है तो दूसरी ओर उसे घटाया भी है।
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अतः इसे दो भागों मे विभक्त किया जा सकता है--
1. प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र
इसका समस्त संचालन प्रकृति से होता है और जैविक घटकों का उद्भव, विकास, विनाश, स्थानीय या क्षेत्रीय आधार पर प्राकृतिक पर्यावरण के तत्वों से नियंत्रित होता है। जहाँ जैव उद्भव एवं विकास एवं समस्त चक्र (पोषण, कार्बन, जैव, रसायन चक्र आदि) और अनुक्रमण बिना किसी मानवीय हस्तक्षेप के चलते रहते है, उस इकाई को प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र कहते है। पर्यावरण विशेषताओं के आधार पर इसे निम्नलिखित उप विभागों मे विभाजित किया जा सकता है--
(अ) स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र या पार्थिक पारिस्थितिकी तंत्र
(A) वन पारिस्थितिकी तंत्र,
(B) घास पारिस्थितिकी तंत्र,
(C) मरूस्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र।
(ब) जलीय पारिस्थितिकी तंत्र
(A) खारा जल पारिस्थितिकी तंत्र अथवा सागरीय पारिस्थितिकी तंत्र
(B) स्वच्छ जल पारिस्थितिकी तंत्र अथवा झील, नदी, तालाब पारिस्थितिकी तंत्र।
2. कृत्रिम या मानव निर्मित पारिस्थितिकी तंत्र
समस्त जैव जगत मे मनुष्य सर्वाधिक बुद्धिमान प्राणी है। इसलिए उच्च तकनीकी एवं नवीन अनुसंधान कर वह प्राकृतिक साधनों का शोषण करता है। वह ऊर्जा और उष्मा पाने के लिए वन काटता है। मिट्टी मे रासायनिक उर्वरकों का उपयोग करता है। कीटाणु एवं खरपतवार-नाशक विषाक्त रसायनों का प्रयोग करता है। वृहद् यंत्रों के उपयोग से कृषि, उद्योग, खनिज, परिवहन एवं व्यापार एवं वाणिज्य के क्षेत्रों मे उसने इतना परिवर्तन कर दिया है कि कृत्रिम पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण हो गया है। अतः आर्थिक विकास के आधार पर उसे 5 उप विभागों मे विभाजित किया जाता है--
(अ) जनजातीय पारिस्थितिकी तंत्र,
(ब) उपकृषित पारिस्थितिकी तंत्र,
(स) उच्चतम तकनीकी युक्त कृषि पारिस्थितिकी तंत्र,
(द) वाणिज्यिक एवं व्यापारिक पारिस्थितिकी तंत्र,
(ई) औद्योगिक एवं नगरीय पारिस्थितिकी तंत्र आदि।
पारिस्थितिकी तंत्र के कार्य
paristhitik tantra ke karya;कार्यात्मक दृष्टि से किसी भी पारिस्थितिकी तंत्र के जैविक तथा अजैविक घटक प्रकृति मे इस प्रकार एक दूसरे से परस्पर जुड़े रहते है कि इनको व्यावहारिक रूप से अलग नही किया जा सकता। पारिस्थितिक तंत्र के कार्यात्मक दृष्टि से चार विभाग होते है-- अजैविक तत्व, उत्पादक, उपभोक्ता, विघटक।
उपर्युक्त चारों वर्गों चरणबद्ध रूप से ऊर्जा का प्रवाह आगे की ओर सुचारू रूप से संचालित होता है, तभी पारिस्थितिकी तंत्र के कार्यात्मकता दृष्टि से चार विभाग होते है--
1. अजैविक
2. उत्पादक
3. उपभोक्ता
4. विघटक
उपर्युक्त चारों वर्गों मे चरणबद्ध रूप से ऊर्जा का प्रवाह आगे की ओर सुचारू रूप से संचालित होता रहता है। तभी पारिस्थितिकी तंत्र का अस्तित्व कायम रह सकता है। किसी भी स्तर पर ऊर्जा प्रवाह मे अवरोध उत्पन्न होने पर पारिस्थितिकी तंत्र मे असंतुलन उत्पन्न हो जाता है। अतः किसी भी पारिस्थितिकी तंत्र की कार्यशीलता उस पारिस्थितिकी तंत्र मे होने वाले ऊर्जा प्रवाह के प्रतिरूप पर निर्भर करती है ऊर्जा प्रवाह से ही पारिस्थितिकी तंत्र मे विनिमय का कार्य संपन्न हो पाता है।
पारिस्थितिक तंत्र मे ऊर्जा का प्रवाह एकदिशीय होता है। पारिस्थितिक तंत्र मे होने वाला ऊर्जा प्रवाह ऊष्मागतिकी के निम्नलिखित दो नियमों द्वारा संचालित होता है--
प्रथम नियम
इस नियम को ऊर्जा संरक्षण का नियम भी कहते है। इस नियम के अनुसार किसी पारिस्थितिकी तंत्र मे न तो ऊर्जा का उत्पादन होता है और न ही उसका क्षय होता है। पारिस्थितिक तंत्र मे ऊर्जा एक रूप से दूसरे रूप मे या एक स्थान से दूसरे स्थान को स्थानान्तरित अवश्य होती है।
द्वितीय नियम
इस नियम के अनुसार जब ऊर्जा एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित होती है तो ऊर्जा के कुछ भाग का विरण होकर वायुमंडल मे चला जाता है। यह विसरित ऊर्जा पारिस्थितिकी तंत्र को पुनः प्राप्त नही होती।
पारिस्थितिक तंत्र मे प्रत्येक पोषण स्तर पर ऊर्जा का यह क्षय विसरण प्रक्रिया के माध्यम से संपन्न होती है। प्रत्येक पोषण स्तर पर जीवधारियों द्वारा जितनी ऊर्जा का क्षय होता है वह प्रमुख रूप से श्वसन के माध्यम से वायुमंडल मे छोड़ी जाती है। श्वसन के कारण बढ़ते पोषण स्तर के साथ ऊर्जा का सापेक्षिक क्षय बढ़ता जाता है क्योंकि बढ़ते पोषण स्तर के साथ जन्तुओं को अपना आहार प्राप्त करने के लिये अधिक चलना एवं कार्य करना पड़ता है।
भाई इसमें कारण और प्रभाव का उल्लेख नहीं किया आपने
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