11/14/2023

प्रबंध के सिद्धांत

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प्रबंध के सिद्धांत 

सिद्धांत एक आधारभूत सत्य है जो किसी दी हुई स्थिति में होने वाली दो या से अधिक परिवर्तनशील गतिविधियों के संबंध को दर्शाते है। यह कारण और परिणाम में संबंध स्थापित करते है। यह वैज्ञानिक अध्ययन, जाँच पड़ताल और विश्लेषण की क्रिया पर आधारित है। सिद्धांतों ने संपूर्ण विश्व में मान्यता प्राप्त की है। प्रबंध के सिद्धांत उतने यथार्थ नही है जितने कि भौतिक विज्ञान और रसायन शास्त्र के सिद्धांत है क्योंकि प्रबंध एक सामाजिक विज्ञान है और इसलिए यह सामाजिक विज्ञान की कमजोरियों का शिकार है। 

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प्रबन्धकीय सिद्धांत मनुष्य से संबंधित है जिनका व्यवहार अनिश्चित है क्योंकि उनकी सामाजिक आर्थिक स्तर, जरूरतें और अनुभव भिन्न-भिन्न है। किसी भी कर्मचारी की स्वामी भक्ति, व्यवहार और योगदान समय-समय पर भिन्न-भिन्न होता है। इसलिए प्रबंध के सिद्धांत इतने यथार्थ नही है। यह सिद्धांत अच्छे प्रकार से लागू किए जा सकते है लेकिन हम यह कह सकते है कि हमने अभी तक परिपूर्णता की स्थिति को हासिल नही किया हैं। 

प्रबन्धकों के लिए बहुत से प्रबन्धकीय सिद्धांत बनाए गए है जो उनको ठीक प्रकार से कार्य करने में सहायक होते है। प्रबंध के लेखक जो परम्परागत प्रबन्धकीय विचारों की शाखा से जुड़े हुए थे उन्होंने बहुत से सिद्धांतों की उत्पत्ति में योगदान दिया है। हैनरी फ्योल जो कि एक फ्रांसीसी उद्योगपति थे उन्होंने सन् 1916 में पहली बार प्रबंध के 14 सिद्धांत प्रदान किए। सन् 1920-40 के दौरान बहुत से अमेरिकी लेखकों ने प्रबन्धकीय सिद्धांतों को बनाने में और उनके निरीक्षण में कड़ी मेहनत की। 

हैनरी फ्योल के अनुसार प्रबंध के सिद्धांत 

फ्योल ने 14 प्रबन्धकीय सिद्धांतों की व्याख्या की है जो उसके कार्य में आमतौर पर इस्तेमाल होते थे। उसने माना कि प्रबन्धकीय सिद्धांतों की गिनती की सीमा नही है और उसके द्वारा बताए गए सिद्धांत लचीले है और प्रत्येक आवश्यकता को अपनाने की क्षमता रखते है। फ्योल द्वारा दिए गए प्रबंध के 14 सिद्धांत निम्नलिखित हैं-- 

1. कार्य का विभाजन 

फैयोल कार्य विभाजन के पक्ष में थे। उनके अनुसार इससे प्रत्येक कार्य में विशिष्टता आएगी। अगर कार्य को श्रमिकों के बीच बाँटकर उनकी जिम्मेदारी तय कर दी जाए तो वे अपना कार्य गंभीरता तथा ईमानदारी से करेंगे। दूसरा, उन्हें अपने काम का विशेष अनुभव प्राप्त हो जाएगा और उत्पादन में यथार्थता के साथ वृद्धि भी होगी। इसके विपरीत अगर श्रमिकों की जिम्मेदारी बार-बार बदली जाएगी तो उनके बार-बार प्रशिक्षण की आवश्यकता पड़ेगी तथा उत्पादन भी घट जाएगा। 

2. अधिकार तथा दायित्व 

अधिकार एवं दायित्व अथवा जिम्मेदारी का गहरा संबंध है। अगर किसी व्यक्ति को स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करने तथा स्वयं निर्णय लेने का अधिकार दे दिया जाए तो वह ज्यादा जिम्मेदारी से काम करेगा। अधिकार का निर्धारण पद तथा व्यक्तिगत योग्यता से होता है। अगर उच्च स्तरीय प्रबन्धन जिम्मेदारी के प्रति गंभीर है तो उसे अधिकार तथा कर्तव्य के मध्य उचित सतुलन रखना चाहिए। 

3. अनुशासन 

संगठन में काम करने वाले सभी लोगों हेतु अनुशासन आवश्यक है। अनुशासन व्यवहार तथा कार्य में व्यक्त होना चाहिए। यह दो तरह का हो सकता है-- 

(अ) स्व-निर्धारित अनुशासन, 

(ब) निर्देशित अनुशासन। 

स्व-निर्धारित अनुशासन व्यक्ति में भीतर से आता है जबकि निर्देशित अनुशासन रीति-रिवाज, नियम तथा कायदों से व्यक्त होता है। इसे प्रबन्धक के अनुभव तथा चतुराई से सीखा जा सकता हैं। 

4. आदेश की एकता 

इसका अर्थ यह है कि कर्मचारियों को नियंत्रण संबंधी निर्देश एक ही अधिकारी से मिलने चाहिए। आदेश की एकता की स्थिति में कोई भ्रम तथा संघर्ष नही होता। इससे जिम्मेदारी का अहसास भी बढ़ जाता है। टेलर के कार्य के देखरेख संबंधी सिद्धांत से यह अलग है। फ्योल के शब्दों में," अगर आदेश की एकता नही रही तो व्यवस्था बिगड़ जाएगी एवं स्थिरता को खतरा पैदा हो जाएगा। यह मुझे मूलभूत बात लगती है एवं इसलिए इसे मैने सिद्धांत के रूप में रखा हैं।" 

5. निर्देश की एकता 

इस सिद्धांत के अनुसार गतिविधियों के हर समूह के लिए एक मुखिया तथा एक योजना होना चाहिए। इससे विभिन्न गतिविधियों के मध्य अच्छा समन्वय पैदा होता हैं। 

6. व्यक्तिगत हितों का सामान्य हितों के पीछे होना 

संगठन का प्रमुख ध्येय व्यक्तिगत उद्देश्यों से ऊपर होता है। अगर दोनों के बीच टकराव की स्थिति आती है, तो मुख्य ध्येय को ही प्रमुखता दी जानी चाहिए। हालांकि महत्त्वाकांक्षा, आलस, कमजोरी आदि चीजें मुख्य ध्येय की महत्ता को कम करती है। इसलिए वरिष्ठ अधिकारियों को भलाई तथा निष्पक्षता का उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए। नियोक्ता तथा कर्मचारियों के बीच संविदा उचित होनी चाहिए तथा लगातार निगरानी एवं पर्यवेक्षण होना चाहिए। 

7. कर्मचारियों का पारिश्रमिक

कर्मचारियों का पारिश्रमिक युक्तिसंगत होना चाहिए तथा उससे कर्मचारियों तथा प्रबंधकों को अधिकतम संतुष्टि मिलना चाहिए। फेयोल ने कर्मचारियों को लाभांश देने की योजना का समर्थन नही किया पर प्रबन्धकों के लिए इसे सही ठहराया। वह गैर वित्तीय लाभ दिए जाने के पक्ष में था, पर ऐसा सिर्फ बड़े संगठनों में ही संभव हैं। 

8. केन्द्रीयकरण 

इसका तात्पर्य संगठन के हितों को सर्वोच्च महत्त्व दिये जाने से है। हमेशा संगठन के मुख्य ध्येय को प्राप्त करने हेतु प्रयासरत रहना चाहिए। 

9. श्रेणी श्रृंखला

ऊपर से नीचे तक अधिकार तथा संवाद का प्रवाह श्रृंखला के रूप में होना चाहिए। जो भी संवाद अथवा चर्चा होती है उसे प्रत्येक स्तर के अधिकारी के ज्ञान में आना चाहिए। फेयोल ने इसके लिए 'गैंग प्लांक' का सुझाव दिया ताकि यह श्रृंखला टूटे नहीं। 

10. व्यवस्था 

प्रत्येक चीज का स्थान नियत होना चाहिए तथा प्रत्येक चीज को अपने नियत स्थान पर होना चाहिए। यदि संगठन बड़ा हो तो व्यवस्था को संभालना और भी मुश्किल होता है। 

11. समता

यह न्याय तथा दया का मिश्रण हैं। व्यवहार में समानता सभी को अच्छी लगती है। इससे संगठन के प्रति निष्ठा भी उत्पन्न होती हैं। 

12. कर्मचारियों को स्थायित्व 

किसी भी कर्मचारी को थोड़े समय में ही हटाना नही चाहिए। काम की उचित गारंटी मिलना चाहिए। इससे कर्मचारी अपना काम ठीक से सीख लेता है और फिर उसे अच्छे से करने लगता है। बार-बार कर्मचारियों को बदलना बुरे प्रबन्धन का कारण व प्रभाव दोनों हैं। 

13. कार्य प्रारंभ करने का उत्साह 

अपने अधिकार तथा अनुशासन की सीमा में रहकर अगर कर्मचारी नया कार्य करने का उत्साह दिखाते है तो प्रबंधक को उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए। इसमें सोचना और करना दोनों सम्मिलित है। इससे लोगों का उत्साह तथा ऊर्जा दोनों बढ़ते हैं। 

14. संगठन की शक्ति 

यह संगठन की शक्ति का सिद्धांत है तथा टीम कार्य स्थापित करने के लिए आदेश की एकता का विस्तार है। प्रबंधक को उसके कर्मचारियों में संगठन की शक्ति को प्रोत्साहित करना चाहिए। कर्मचारियों को मौखिक निर्देश देकर ठीक करना चाहिए बजाय लिखित स्पष्टीकरण माँगकर। लिखित स्पष्टीकरण मसलों को जटिल बनाते हैं।

कुछ अन्य प्रबन्ध के महत्वपूर्ण सिद्धांत

हम ऊपरी सिद्धांत के अलावा कुछ प्रबन्धकीय Experts जैसे R.C. Davis, Mooney, Railey तथा Lyndall के अन्य कई सिद्धांतों के बारे बताता हैं जैसे-- 

1. समन्वय का सिद्धांत

2. अभिप्रेरणा का सिद्धांत 

3. अपवाद का सिद्धांत 

4. कर्मचारी की भागिता का सिद्धांत

5. प्रभावी संचार का सिद्धांत 

6. साझा उद्देश्य का सिद्धांत। 

प्रबन्धकीय सिद्धांतों का महत्व 

प्रबन्धकीय सिद्धांत प्रबन्धकों के लिए मार्गदर्शक का कार्य करते है ताकि वे अपनी जिम्मेदारियों को ठीक प्रकार से और कुशलतापूर्वक कर सकें। प्रबन्ध के उपरोक्त सिद्धांत प्रबन्धकों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है-- 

1. प्रबन्धकों की कुशलता बढ़ाने के लिए 

प्रबन्धकीय सिद्धांत प्रबन्धकों और कारीगरों की कार्य कुशलता बढ़ाने में सहायक होते हैं। ये सिद्धांत प्रबन्धकों को बताते है कि उन्हें अपना व्यवहार कैसा रखना चाहिए और उनका मार्गदर्शन करते है कि कैसे अधिकारियों और कर्मचारियों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित किए जाएं। 

2. प्रबन्धकों और कारीगरों के बीच हार्दिक संबंध 

प्रबन्ध दूसरे व्यक्तियों की सहायता या दूसरे व्यक्तियों से कार्य कराने की कला है। ये इस बात का अनुसरण करते है कि दूसरो से काम करवाना भी एक कला है। कर्मचारी संस्था के हित में कार्य कर सकते है। जब उन्हें इसके लिए अभिप्रेरित किया जाए। प्रबन्धकों और कर्मचारियों के बीच हार्दिक संबंध बनाए रखने के लिए हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए। प्रबन्धकों को चाहिए कि वे कर्मचारियों की सभी समस्याओं को जहाँ तक संभव हो सुलझाने का प्रयास करें। 

3. अनुसन्धानों के लिए प्रोत्साहित करना 

प्रबन्धकीय सिद्धांत भावी शोध के लिए श्रेष्ठ अवसर प्रदान करते है। प्रबन्ध एक सजीव विज्ञान है जो मानवीय क्रियाओं से संबंधित है। इस विज्ञान के सिद्धांतों की सूची कभी भी अंत न होने वाली है। प्रबन्धकीय विज्ञान अभी भी बाल्यावस्था में है और इसके लिए उन्नति और बदलाव का वातावरण चाहिए। 

4. उत्पादकता को बढ़ाने के लिए 

प्रबन्धकीय सिद्धांत कर्मचारियों को स्वास्थ्यप्रद वातावरण प्रदान करते है, उन्हें अच्छी सुविधाएं देते है, अच्छा वातावरण काम करने के लिए देते है और प्रबन्धकों तथा कर्मचारियों में मित्रतापूर्वक संबंध स्थापित करते है। ये सभी उत्पादन के साधनों की उत्पादकता को बढ़ाते है। उत्पादकता के बढ़ने से संस्था में, कर्मचारियों में, सह-संस्थाओं में और समाज में खुशहाली आती हैं।

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