ख्याति की अवधारणाएं
ख्याति की निम्नांकित तीन अवधारणाएं ध्यान देने योग्य हैं--
1. कम्पनी अवधारणा
विभिन्न न्यायाधीशों ने ख्याति का संबंध इस तथ्य से रखा है कि ग्राहक बार-बार व्यवसाय के स्थान पर आयेंगे। इन्होंने ख्याति को ग्राहक ख्याति तक ही सीमित किया है। इनका विचार है कि ख्याति के लिए यह आवश्यक नहीं है कि व्यवसाय में सामान्य लाभ से अधिक लाभ हो। व्यवसाय की प्रतिष्ठा हो चाहे लाभ अधिक हों या न हों ख्याति मानी जायेगी।
नोरटन एम. फोर्ड के अनुसार, ‘‘एकाधिकार की दशा में ख्याति की विद्यमानता के प्रमाण के लिए अधिक उपार्जन शक्ति होना आवश्यक नहीं है।"
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2. आर्थिक अवधारणा
अर्थशास्त्री ईडे के विचार में लिखित सम्पत्तियों के अतिरिक्त अन्य अलिखित सम्पत्तियों होती हैं जिनके कारण व्यवसाय को साधारण लाभ से अधिक लाभ होता है। यह अधिक लाभ सभी लिखित एवं अलिखित सम्पत्तियों के सामूहिक योगदान का फल है, अतः इन्होंने ख्याति को संगठन का फल माना है।
3. लेखांकन अवधारणा
लेखांकन में ख्याति की प्रकृति, स्वरूप एवं विचार का महत्त्व नहीं वरन् इसकी विद्यमानता एवं मूल्य का महत्व है। यदि व्यवसाय को बेचने पर अधिक मूल्य प्राप्त हो और व्यवसाय में साधारण लाभ से अधिक लाभ हो रहे हैं तो इसे लेखांकन की दृष्टि से ख्याति माना जाता है।
लेखपालाकों की दृष्टि से जब एक ख्याति का कोई विक्रय मूल्य न हो तब तक ख्याति का कोई महत्त्व नहीं है, जैसें एक डॉक्टर ने अपना कार्य एक निश्चित स्थान पर करने का निश्चय किया। उसने व्यक्तिगत व्यवहार, योग्यता एवं लगन के कारण उस क्षेत्र में काफी नाम कमाया और उसकी दुकान की सारे क्षेत्र में ख्याति स्थापित हो गयी। अब यदि वह डॉक्टर उस दुकान को बेचना चाहे तो उसे ख्याति का मूल्य शायद ही मिलेगा। यहां पर दुकान की ख्याति उसकी व्यक्तिगत योग्यता के कारण है। यह व्यक्तिगत योग्यता दूसरे को हस्तान्तरित नहीं की जा सकती। अतः इसकी कोई भी ख्याति नहीं है। ख्याति का आशय उस लाभ के मूल्य से है जिसे भविष्य में उसी प्रकार के व्यवसायों के साधारण लाभ के अतिरिक्त प्राप्त किये जाने की सम्भावना हो।
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