2/01/2022

संविधानवाद का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, तत्व, आधार

By:   Last Updated: in: ,

संविधानवाद का अर्थ (samvidhanvad kya hai)

samvidhanvad ki avdharna arth paribhasha visheshta tatva aadhar;संविधानवाद एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था है जिसका संचालन कानूनों एवं नियमों द्वारा किया जाता हैं, व्यक्तियों के द्वारा नहीं। यह लोकतन्त्रिक भावना और व्यवस्था पर आधारित रहता हैं। इसमें शक्तियों से केन्द्रीयकरण और निरंकुश सम्प्रभुता को कोई स्थान नहीं दिया जाता हैं। आधुनिक मान्यता के अनुसार," संविधानिक राज्य वही हैं जो समकालीन लोकतन्त्रात्मक प्रतिनिधित्व की ऐसी प्रणाली पर आधारित हो जिसमें जनता की प्रभुता निश्चित हो जायें।"

कार्ल जे . फ्रेड्रिक के अनुसार," व्यवस्थित परिवर्तन की जटिल प्रक्रियात्मक व्यवस्था ही संविधानवाद है।"  

औपचारिक दृष्टि से संविधानवाद का अर्थ है, ऐसा सिद्धान्त और व्यवहार, जिसके अन्तर्गत किसी समुदाय का शासन संविधान के अनुसार चलाया जाता है प्रस्तुत संदर्भ में संविधान का अर्थ है, उन नियमों और प्रक्रियाओं का समुच्चय, जो शासन की संरचना और कार्यों का स्वरूप निर्धारित करती है, शासन के अंगों का विवरण देती है, उनकी शक्तियों और परस्पर संबंधों का निरूपण करती है, और यह भी निर्दिष्ट करती है कि इन्हें किन-किन सीमाओं और मर्यादाओं के भीतर कार्य करना होगा, ताकि शासन या उनका कोई अंग, किसी तरह की मनमानी न कर पाए। अर्थात् यह संविधान पर आधारित विचारधारा है, जिसका मूल अर्थ यही है कि शासन संविधान में लिखित नियमों एवं विधियों के अनुसार संचालित हो तथा उसपर प्रभावशाली नियंत्रण स्थापित रहे, जिससे वे मूल्य एवं राजनीतिक आदर्श सुरक्षित रहें; जिनके लिए समाज राज्य के बंधन को स्वीकार करता है परन्तु संविधानवाद केवल संविधान के नियमों के अनुरूप प्रशासन संचालन ही नहीं है भ, वरन् उससे कुछ अधिक है। 

संक्षेप में कहा जा सकता है कि," संविधानवाद निरंकुश शासन के विपरीत नियमानुकूल शासन है, जिसमें मनुष्य की आधारभूत मान्यताओं, आस्थाओं और मूल्यों की व्यवहार में उपलब्धि सम्भव होती है। दूसरे शब्दों में", संविधानवाद उस निष्ठा का नाम है जो मनुष्यों द्वारा संविधान में निहित शक्ति में विश्वास रखते हैं, जिससे सरकार व्यवस्थित बनी रहती है। अतः संविधानवाद तभी सम्भव है जब किसी राजनीतिक व्यवस्था में शक्ति विभाजन के द्वारा सरकारी कामों पर प्रभावशाली नियंत्रण स्थापित किया जा सके, ताकि सरकार नागरिकों की स्वतंत्रता और समानता में कोई कटौती न कर सके। 

कार्ल जे. फ्रेडरिक की भी मान्यता है कि," सभ्य शासन का आधार शक्ति विभाजन है और 'संविधानवाद' का यही अर्थ है।" 

वस्तुतः शासकों को संविधान द्वारा नियमित अधिकार क्षेत्र में रहने के लिए बाध्य करने की संवैधानिक नियंत्रण व्यवस्था को ही 'संविधानवाद' कहते हैं 

संविधानवाद की परिभाषा (samvidhanvad ki paribhasha)

पिनॉक और स्मिथ के अनुसार," संविधानवाद केवल प्रक्रिया या लक्ष्य का नाम ही नहीं है, अपितु  राजनीतिक सत्ता के सुविस्तृत समूहों दलों और वर्गों पर प्रभावशाली नियंत्रणों, अमूर्त तथा व्यापक प्रतिनिध्यात्मक मूल्यों, प्रतीकों, अतीतकालीन परम्पराओं और भावी महत्वाकांक्षाओं से संबद्ध भी है।" 

विलियम जी. ऐन्ड्रज के मतानुसार," संविधानवाद इन दो प्रकार के सरकार व नागरिक तथा एक सरकारी सत्ता के दूसरी सरकारी सत्ता से संबंधों का संचालन मात्र है।"

कौरी तथा अब्राह्म के शब्दों में," स्थापित संविधान के निर्देशों के अनुरूप शासन को 'संविधानवाद' कहा जाता है।" 

कार्टर एवं हर्ज के विचारानुसार," मौलिक अधिकार तथा स्वतंत्र न्यायपालिका, प्रत्येक संविधानवाद  की अनिवार्य और सामान्य विशेषता है।" 

प्रो. जे. एस. रोडसैक के अनुसार," धारणा के रूप में संविधानवाद का अर्थ है, अनिवार्य रूप से सीमित सरकार और शासित तथा शासन के ऊपर नियंत्रण की एक व्यवस्था।" 

उपर्युक्त तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है, कि शासक पर अंकुश रखने की शक्ति, स्वयं शासितों के हाथों में रहे। वस्तुतः संविधानवाद प्रजातांत्रिक भावना और व्यवस्था पर आधारित एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था है, जो कानूनों और नियमों से संचालित होती है और जिनमें शक्तियों के केन्द्रीकरण और निरंकुश सम्प्रभुता के लिए कोई स्थान नहीं है तथा जिनमें मनुष्य की आधारभूत मान्यताओं, आस्थाओं और मूल्यों की व्यवहार में उपलब्धि सम्भव होती है।

संविधानवाद की विशेषताएं (samvidhanvad ki visheshta)

संविधानवाद को ओर अच्छी तरह से समझने के यहाँ संविधानवाद की निम्नलिखित विशेषताएं दी गई हैं-- 

1. मूल्य सम्बद्ध धारणा 

संविधानवाद की सबसे पहले विशेषता यह कही जा सकती है कि संविधानवाद एक मूल्य सम्बद्ध धारणा या विचार हैं। इसका सम्बन्ध राष्ट्र के जीवन-दर्शन से हैं। इसमे इन सभी अथवा अधिकांश तत्वों का समावेश होता है जो कि किसी राष्ट्र के जीवन-दर्शन में पहले ही मौजूद रहते हैं। संविधानवाद में हम उन मूल्यों, विश्वासों और राजनीतिक आदर्शों की झलक पाते हैं जो राष्ट्र के निवासियों को प्रिय है अथवा जिन्हें राष्ट्र ने अपने जीवन का आधार बना रखा है। यद्यपि राजनीतिक दर्शन का उदय देश के कतिपय बुद्धिजीवियों द्वारा होता हैं, लेकिन इनकी प्रकृति तेजी से प्रसार की ओर हैं, अतः यह कुछ लोगों तक सीमित नहीं रहता, बल्कि मध्यम वर्ग को प्रभावित करते हुए संपूर्ण जनता में व्याप्त हो जाता है।

इस प्रकार समाज की स्वीकृति मिल जाने पर संविधानवाद की आधारशिलायें सुदृढ़ हो जाती हैं। संविधानवाद के दर्शन के जन्मदाता बुद्धिजीवी होते हैं परन्तु उनके दर्शन को प्रभावित करने वाले तत्व देश की परम्परायें, परिस्थितियाँ, समस्यायें आदि हैं। 

सही अर्थों में, संविधानवाद विभिन्न केन्द्रों अथवा स्थानों में निर्मित मूल्यों से युक्त धारणा है और ये मूल्य वे होते हैं जिनका संबंध राष्ट्र के जीवन-दर्शन से होता हैं, जो समाज को प्रिय होते हैं और जिनकी रक्षा तथा उपलब्धि और प्रगति के लिए समाज बड़े से बलिदान करने को तैयार रहता हैं। जिन मूल्यों को समाज अमान्य ठहरा देता हैं, उनको संविधानवाद में स्थान नही दिया जाता। पाश्चात्य विचारक संविधानवाद में दो पहलू देखते हैं, साधन (Means) तथा साध्य (End)। संविधान में इन दोनों पहलुओं का होना जरूरी हैं। 

2. संस्कृति सम्बद्ध धारणा 

संविधानवाद देश की संस्कृति से विशेष संबंध रखता हैं। किसी भी देश के मूल्य उसके समाज की संस्कृति और सभ्यता से जुड़े होते हैं। देश के आदर्श मूल्य तथा विचारधारायें उस देश की संस्कृति की उपज होती हैं। संविधानवाद इन आदर्शों, मूल्यों तथा विचारधाराओं पर आधारित होता हैं। जिस देश में अनेक संस्कृतियाँ होती हैं, वहाँ संविधानवाद समन्वय का सूचक हैं अर्थात् वह विविधता को एकरूपता में बदल देता हैं। अपनी इसी शक्ति के कारण वह विकास को प्राप्त होता है और इसी शक्ति के बल पर देश या समाज में व्याप्त संघर्षों और विरोधों पर विजय प्राप्त करके सामंजस्य एवं सहयोग का निर्माण करता हैं। 

3. गतिशील धारणा 

संविधानवाद एक गतिशील धारणा हैं परन्तु इसका यह अर्थ नही हैं कि उसमें स्थायित्व (Stability) नही होता। संविधानवाद की एक विशेषता यही हैं कि इसमें स्थायित्व के साथ-साथ गतिशीलता भी होती हैं। इसलिए संविधानवाद हमेशा प्रगति की ही ओर अग्रसर होता है। अपनी गतिशीलता के कारण ही संविधानवाद समय और परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढालता हुआ आगे बढ़ता हैं। यदि इसमें लचीलापन न होता तो वह लम्बे समय तक सजीव न रह पाता। समाज के अंदर परिवर्तनों के अनुसार ही संविधानवाद अपने में ही परिवर्तन कर लेता हैं। संविधानवाद वर्तमान में प्रिय मूल्यों और आदर्शों के साथ ही भावी आकांक्षाओं का प्रतीक भी होता हैं। इसी प्रकार हमेशा गतिशील धारणा हैं और इसको विकास प्रक्रिया कहा गया हैं। 

4. समभागी धारणा 

यह संभव है कि एक राष्ट्र के मूल्यों, विश्वासों, राजनीतिक और संस्कृति के प्रति कुछ अन्य देश भी आस्था रखते हों। ऐसे देशों में संविधानवाद आधारभूत समानतायें रखता है और इस प्रकार अपना समभागी व्यक्तित्व हमारे सामने प्रस्तुत करता हैं। उदाहरण के लिए, ऐंग्लों अमेरिकन अर्थात् पश्चिमी संस्कृति वाले देशों में संविधानवाद में समानता के प्रचुर लक्षण देखने को मिलते हैं। 

इस तरह की समानताओं में प्रकार का अंतर नही होता, यद्यपि मात्रा का अंतर जरूर होता हैं। यह अंतर साम्यवादी देशों में भी पाया जाता हैं। विकासशील देशों में यद्यपि अधिक असमानतायें पाई जाती हैं और प्रत्येक देश का अपना पृथक अहम (Ego) होता हैं परन्तु वह अपने मौलिक जीवन-दर्शन की स्थापना का प्रयत्न करता हैं तथापि इन देशों की संस्कृति में भी मैत्री का अधिक पुट पाया जाता हैं। इन देशों के संविधानवाद में असमानताओं के होते हुए भी मोटे रूप में समानताओं के लक्षण दिखाई देते हैं। अतः निष्कर्ष यह निकला कि संविधानवाद एक समभागी धारणा हैं। 

5. प्रधानतः साध्यमूलक धारणा 

संविधानवाद मुख्यतः साध्यों से संबंधित विचार हैं, तथापि यह साधन प्रधान विचार भी साध्यों या लक्ष्यों के प्रति पूर्ण उदासीन नहीं रह सकता। साध्य और साधन घनिष्ठ रूप में संबंधित हैं, और इनमें अंतर प्रकार का नही बल्कि प्रधानतः मात्रा का ही हैं, फिर भी संविधानवाद का प्रमुख संकेत साध्यों अथवा लक्ष्यों की ओर ही होता हैं, क्योंकि वह उन आदर्शों से अधिक सम्बद्ध होता हैं, जिन्हें नागरिक प्राप्त करना चाहते हैं। साधनों से लगाव रखते हुए भी संविधानवाद का महत्वपूर्ण लगाव साध्यों अथवा लक्ष्यों से ही रहता हैं। 

6. सामान्यतया संविधान पर आधारित धारणा 

कोई भी देश किसी भी क्षेत्र में अपनी आस्थाओं से अछूता नहीं रहता हैं और उस देश का संविधान इन आस्थाओं का प्रतिनिधित्व करता है।

दूसरे शब्दों में, प्रत्येक देश अपने संविधानवाद में अपने समाज की मूलभूत अवस्थाओं का समावेश करना उपयोगी समझता हैं क्योंकि इससे संविधान के प्रति जनता में विश्वास और लगाव पैदा होता है। संविधानवाद में हमें इसी संविधानवाद की छाप आद्योपान्त दिखाई देती हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता हैं कि संविधानवाद के आदर्शों का प्रतिनिधित्व संविधान में नही मिलता अर्थात् संविधान और संविधानवाद में परस्पर साम्य न होकर दोनों की दिशायें अलग-अलग होती हैं। यह स्थिति खतरे का सूचक हैं क्योंकि यह देश में शासकों और शासितों की राजनीतिक मान्यताओं में विरोध और तीव्र मतभेदों का संकेत करती हैं। इसका परिणाम देश में उथल-पुथल और अराजकता होता हैं परन्तु आमतौर से ऐसा कम होता हैं। आमतौर से संविधानवाद के आदर्श संविधान में सन्निहित रहते हैं। किसी भी लोकतांत्रिक देश में समाज के आदर्शों को उसके संविधान में पूरा स्थान मिलता हैं। ऐसा संविधान संविधानवाद की नींव को स्थायित्व प्रदान करता हैं।

7. संविधान कानून के शासन पर आधारित अवधारणा है 

संविधानवाद में व्यक्ति तथा व्यक्तियों के शासन की अपेक्षा कानून का शासन मुख्य है, जिसे Rule of law के नाम से जाना जाता है।

8. अधिनायक विहीन राज्य में ही संभव 

इसकी अगली विशेषता यह है कि यह 'अधिनायक विहीन राज्य' में ही सम्भव है इसलिए इसकी अनिवार्य विशेषता यह है कि इसके अन्तर्गत मूल अधिकार और स्वतंत्र न्यायपालिका को प्रधानता दी जाती है। 

उपर्युक्त विशेषताओं के विश्लेषण से निष्कर्ष रूप मे हम कह सकते है कि हर संविधानवाद में उपर्युक्त सामान्य विशिष्टताएँ विद्यमान होती हैं। ये विशेषताएं प्रत्येक देश में कम या अधिक मात्रा में संविधानवाद के आधार के रूप में पाई जाती हैं। एक संविधानवाद से दूसरे संविधानवाद में इन विशिष्टताओं की भिन्नता केवल मात्रा की ही होती है, प्रकार की नहीं। 

यहाँ पर यह भी स्पष्ट हो जाता है कि यह समाज के विकास के साथ परिवर्तनशील समाज के जीवन दर्शन के मूल्यों से सापेक्षता बनाते हुए विकसित होती हुई प्रजातांत्रिक अवधारणा है, जो संविधान के विभिन्न उपबन्धों को व्यक्ति के हितों की दिशा में एक बहुत बड़ी सीमा तक प्रभावित करती है।

संविधानवाद के तत्व (samvidhanvad tatva)

पिनोक तथा स्मिथ ने संविधानवाद के चार तत्वों की विवेचना की है। संविधानवाद के संदर्भ में ही यह समझना सम्भव है कि किसी राजनीतिक व्यवस्था में संविधान, संविधानवाद का प्रतीक है अथवा नहीं। 

संक्षेप में संविधानवाद के इन तत्वों का विवेचन अग्रलिखित ढंग से किया जा सकता है--

1. संविधान में आधारभूत संस्थाओं की स्पष्ट व्यवस्था 

संविधानवाद का महत्वपूर्ण तत्व यह है कि संविधान में आधारभूत संस्थाओं की स्पष्ट व्यवस्था की जानी चाहिए संविधान चाहे लिखित हो अथवा अलिखित व विकसित, उसमें व्यवस्थापिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका के संगठन कार्यों व उनके पारस्परिक संबंधों की स्पष्ट व्यवस्था संविधानवाद की अभिव्यक्ति के लिए अनिवार्य है। संविधान में सरकार के विभिन्न स्तरों व अंगों की शक्तियों की व्याख्या ही नहीं हो, अपितु उनके पारस्परिक संबंधों का, उन पर लगी सीमाओं और उनकी कार्यविधि का स्पष्ट उल्लेख भी होना चाहिए। अन्यथा संविधान, 'संविधानवाद' की अभिव्यक्ति का साधन नहीं बन सकता वस्तुतः वर्तमान राज्यों में संविधान की सजीवता का मापदण्ड ही यह है कि संविधान कहां तक शासन की आधारभूत संस्थाओं व्यवस्थापिका, कार्यपालिका न्यायपालिका तथा राजनीतिक दलों, समूहों एवं प्रशासकीय सेवाओं की समुचित व्यवस्था तथा स्थापना करता है। 

2. संविधान राजनीतिक शक्ति का प्रतिबन्धक 

संविधानवाद का एक आधारभूत तत्व यह है कि, संविधान को राजनीतिक शक्ति का प्रतिबन्धक होना चाहिए। पिनॉक तथा स्मिथ तो प्रतिबन्धों को संविधानवाद का मूलमंत्र मानते हैं। वस्तुतः प्रत्येक राज्य में सरकार को संवैधानिक बनाये रखने के लिए उनपर किसी न किसी प्रकार का नियंत्रण व्यवस्था के अधीन होना आवश्यक है इसके लिए आवश्यक है कि संविधान स्पष्ट रूप से सरकार की शक्तियों का सीमांकन करे। इससे सरकार का कार्यक्रम निश्चित हो जाता है और शासित, शासकों की स्वेच्छाचारी कार्यों से बच जाता है तथा शासक केवल विधि के अनुरूप ही संचालित होता है। वस्तुतः प्रत्येक राज्य में सरकार को संवैधानिक बनाए रखने के लिए, उनपर किसी न किसी प्रकार की नियंत्रण व्यवस्था के अधीन होना आवश्यक है। ये नियंत्रण निम्नलिखित हैं-- 

(अ) विधि के शासन की स्थापना 

(ब) मौलिक अधिकारों की व्यवस्था 

(स) शक्तियों का पृथक्करण एवं विकेन्द्रीकरण और 

(द) सामाजिक परिस्थितियों को बनाये रखने की व्यवस्था। 

उपर्युक्त नियंत्रणों के द्वारा नागरिक और सरकार दोनों ही अपने अधिकारों एवं कार्यों में सीमित हो जाते हैं और तब, संविधान समाज के आदर्शों, आस्थाओं और राजनीतिक मूल्यों की प्राप्ति का साधन बन जाता है। 

3. संविधान विकास का निदेशक 

संविधान के लिए आवश्यक है कि वह समयानुकूल बने समय, परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं में परिवर्तन के साथ-साथ सामाजिक मान्यताओं, मूल्यों और आदशों में भी हेर-फेर होता रहता है। इन नवीन आस्थाओं को ग्रहण करने की क्षमता संविधान में होनी चाहिए। अगर किसी राज्य का संविधान ऐसी व्यवस्था नहीं रखता है, तो परिवर्तित व अप्रत्याशित परिस्थितियों में वह समाज की बदलती हुई मान्यताओं का प्रतीक नहीं रह जाएगा। 

अत : यह आवश्यक है कि संविधान, भविष्य के सम्भावित विकासों का श्रेष्ठतम साधन भी हो कोई भी संविधान जो वर्तमान से आगे, समाज के भावी विकास की योजना व साधन नहीं बनता, वह शीघ्र ही समाज की आधारभूत मान्यताओं से विलग होता जाता है ऐसा संविधान समाज की आकांक्षाओं की प्राप्ति का साधन न बनकर, उसका बाधक बन जाता है। यह अवस्था संविधानवाद की समाप्ति का प्रारम्भ है। 

4. संविधान, राजनीतिक शक्ति का संगठक 

संविधान केवल सरकार की सीमाओं की स्थापना ही नहीं करता, अपितु सरकार की विभिन्न संस्थाओं में शक्तियों का वितरण भी करता है। संविधान यह व्यवस्था भी करता है, कि सरकार के कार्य अधिकार युक्त रहे और स्वयं सरकार भी वैध रहे। अगर कोई संविधान सरकार के कार्यों को अधिकार युक्त व स्वयं सरकार को वैध नहीं बनाता तो ऐसी सरकार व संविधान अधिक दिनों तक स्थाई नहीं रह सकते तथा ऐसी राजनीतिक व्यवस्था में 'संविधानवाद' राजनीतिक शक्ति का संगठक नहीं रहता। इससे स्पष्ट है कि संविधान द्वारा प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में शक्ति का संगठन होना आवश्यक है। 

उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि संविधानवाद के उपर्युक्त चारों तत्व संविधान में अनिवार्य रूप से निहित होना चाहिए। यदि किसी राज्य के संविधान में 'संविधानवाद' के इन तत्वों का समावेश नहीं है, तो वह संविधान संविधानवाद की अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं होगा और ऐसी राजनीतिक व्यवस्था में संविधानवाद सम्भव नहीं हो पाएगा।

संविधानवाद के आधार  

आज प्रायः विश्व के प्रत्येक शासन व्यवस्था में सरकार के कार्यों का विरोध आम बात हो गई है और सरकार अपने इस विरोध को रोकने के लिए दमन शक्ति का प्रयोग करती है। लेकिन सरकार को इस दमनकारी शक्तियों का प्रयोग विशिष्ट परिस्थितियों में ही करना पड़ता है। आमतौर पर देशद्रोह, क्रान्ति या विद्रोह की स्थिति को दबाने के लिए ही सरकार अपनी दमनकारी शक्तियों का प्रयोग करती है। सामान्य परिस्थितियों में जनता में सहमति या मतैक्य एवं एकता की भावना देखी जाती है। ऐसी परिस्थितियों में सरकार के विरोध का सवाल ही नहीं उठता। 

फलतः सरकार भी अपनी दमनकारी शक्तियों का प्रयोग नहीं करती है। जनता में जितना मतैक्य या सहमति होगी, वहाँ शक्ति का प्रयोग उतना ही कम होगा। अधिकतम सहमति, संविधानवाद की पूर्व शर्त मानी जाती है। मतैक्य जितना ही पूर्ण सहमति या समर्थन के ध्रुव के समीप होगा  संविधानवाद उतना ही ठोस और व्यावहारिक रूप को धारण करेगा। विलियम ऐण्डूज ने चार प्रकार के मतैक्य का उल्लेख किया है, जिन्हें संविधानवाद का आधार कहा जाता है--  

1. संस्थाओं के ढाँचे और प्रक्रियाओं पर मतैक्य

प्रसिद्ध विद्वान ऐण्डूज की मान्यता है कि राजनीतिक संस्थाओं के ढाँचे और प्रक्रियाओं पर मतैक्य, संवैधानिक सरकार के लिए विशेष महत्व रखता है। 'संविधानवाद' के लिए यह आवश्यक है कि संस्थाओं की प्रकृति पर जनता में सामान्य सहमति हो। 

यदि ऐसा नहीं होता, तो जनता सोचेगी कि सरकारी तंत्र जनविरोधी है, इससे जनता का हित होनेवाला नहीं है। फलत: विरोध की भावना प्रबल होगी। 

2. विधि का शासन

नागरिकों में इस बात पर सहमति पाई जानी चाहिए कि शासन के संचालन का आधार विधि का शासन होना चाहिए। कुछ विशेष परिस्थितियों में विधि के शासन के आधार की अवहेलना की जा सकती है। उदाहरण के लिए 1933 में जर्मनी में 'हिटलर' को तथा 1958 ई. में फ्रांस में 'दि गॉल' को संविधानवाद के बन्धनों से छूट दी गई थी। वस्तुतः यह छूट संविधानवाद को नष्ट करने के लिए नहीं, वरन् उसकी रक्षा के लिए दी गई थी। 

3. समाज के सामान्य उद्देश्यों पर सहमति 

संविधानवाद के विकास के लिए यह आवश्यक है कि राजनीतिक समाज के नागरिकों में समाज के लिए सामान्य उद्देश्य पाई जाए। यदि समाज में सामान्य उद्देश्य पर सहमति नहीं होती है, तो राजनीतिक व्यवस्था में तनाव तथा खिंचाव उत्पन्न हो जाता है। फलत: इस स्थिति में सम्पूर्ण संवैधानिक ढाँचा ही अस्त-व्यस्त हो सकता है। 

4. गौण लक्ष्यों और विशिष्ट नीति प्रश्नों पर सहमति

संविधानवाद की व्यावहारिक में उपलब्धि के लिए आवश्यक है कि गौण लक्ष्यों व विशिष्ट नीति प्रश्नों पर समाज में सहमति हो। यदि इन पर सहमति नहीं होती, तो राजनीतिक व्यवस्था में अनावश्यक तनाव व संदेह उत्पन्न हो सकते हैं जिसमें संविधानवाद के सम्पूर्ण भवन में ही दरारें पड़ने लगेंगी, जो अन्ततः उनको कमजोर कर धराशायी करने का कारण बनेगी। 

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि उपर्युक्त चारों आधार, संविधानवाद के लिए आवश्यक हैं। इन्हीं से संविधानवाद का विकास होगा तथा इसकी व्यावहारिक उपलब्धि होती है। यदि किसी राजनीतिक व्यवस्था में ये आधार उपलब्ध न हो, तो संविधानवाद की व्यवस्था अधिक दिनों तक टिक नहीं पायेगी। दीर्घकालीन व सदियों से स्थापित संविधानवाद भी इन आधारों के अभाव में समाप्त हो जाता है समाज में इन चारों आधारों पर असहमति ठोस संविधानवाद की समाप्ति का कारण बन जाती है। वस्तुत: इन आधारों का संविधानवादी व्यवस्था में आधारभूत योगदान है।

यह भी पढ़े; संविधान और संविधानवाद में अंतर

1 टिप्पणी:
Write comment

आपके के सुझाव, सवाल, और शिकायत पर अमल करने के लिए हम आपके लिए हमेशा तत्पर है। कृपया नीचे comment कर हमें बिना किसी संकोच के अपने विचार बताए हम शीघ्र ही जबाव देंगे।