4/08/2021

एकाधिकार का वर्गीकरण, उत्पत्ति के कारण, उद्देश्य

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एकाधिकारो का वर्गीकरण (ekadhikar ka vargikaran)

एकाधिकार का विभिन्न आधारों पर वर्गीकरण किया जा सकता है, जिसमे मुख्य इस प्रकार है--

1. स्वामित्व के आधार पर 

स्वामित्व के आधार पर एकाधिकारों को निम्नलिखित दो भागों मे बाँटा जा सकता है--

(अ) निजी या व्यक्तिगत एकाधिकार 

(ब) सार्वजनिक एकाधिकार

यह भी पढ़ें; एकाधिकार क्या है? परिभाषा, विशेषताएं

"निजी या व्यक्तिगत एकाधिकार वह है जिसका संचालन किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा लाभ कमाने के उद्देश्य से किया जाता है, जबकि सार्वजनिक या सरकारी एकाधिकार वह है, जिसमे फर्म का स्वामित्व सरकार या सार्वजनिक संस्था के अधिकार मे होता है, परन्तु जिसका उद्देश्य लाभ कमाना नही होता बल्कि सामाजिक कल्याण मे वृद्धि करना होता है।" कुछ अर्थशास्त्री इसे कल्याण एकाधिकार की संज्ञा देते है।

2. साधारण एवं विभेदात्मक एकाधिकार 

साधारण एकाधिकार उसे कहते है, जब एक अधिकारी अपनी वस्तु के लिए विभिन्न ग्राहकों से एकसमान मूल्य वसूल करता है, जबकि विभेदात्मक या विवेचनात्मक एकाधिकार के अंतर्गत एक ही वस्तु का भिन्न-भिन्न ग्राहकों से अलग-अलग मूल्य वसूल किया जाता है। उत्पादक एक ही वस्तु को अलग-अलग नामों से भिन्न-भिन्न मूल्य पर बेचता है।

3. अपूर्ण या सीमित तथा पूर्ण विशुद्ध एकाधिकार 

अपूर्ण या सीमित एकाधिकार बाजार की वह स्थिति परिस्थिति है जिसमे वस्तु का केवल एक ही विक्रता होता है और उस वस्तु के कोई निकट स्थानापन्न नही होते।" 

अन्य शब्दों मे," अपूर्ण एकाधिकार उसे कहते हैं, जिसमे नई फर्मों के प्रवेश, सरकारी नियंत्रण, आदि का भय भना रहता है। प्रावैधिक भाषा मे," अपूर्ण या सीमित एकाधिकार से आशय उस व्यक्तिगत फर्म उद्योग से है, जहां पर उस फर्म की वस्तु एवं बाजार मे बिकने वाली अन्य वस्तुओं के बीच मांग की प्रतिलोच कम होती है, यद्यपि यह शुन्य से ऊपर ही होती है।" 

इसके विपरीत, पूर्ण या विशुद्ध एकाधिकार उसे कहते है, जिसमे एकाधिकारो को उद्योग मे नई फर्मों को प्रवेश करने का भय नही होता अर्थात् जिस बाजार मे प्रतियोगिता शुन्य होती है।

प्रो. चैम्बरलिन के अनुसार," विशुद्ध एकाधिकार बाजार की वह परिस्थिति है, जिसमे सभी वस्तुओं की पूर्ति पर एक ही फर्म का नियंत्रण होता है। विशुद्ध एकाधिकारी को अपनी स्थिति और उसके लाभ पर उसका विश्वास होता है।

प्रो. चैपमेन ने एकाधिकार को निम्नानुसार वर्गीकृत किया है--

(अ) प्राकृतिक एकाधिकार 

जब किसी स्थान अथवा क्षेत्र मे किसी वस्तु के उत्पादन पर उस स्थान अथवा क्षेत्र का नियंत्रण हो जाता है, तो उसे प्राकृतिक एकाधिकार कहते है। उदाहरणार्थ, भारत को जूट उत्पादन का प्राकृतिक एकाधिकार प्राप्त है।

(ब) कानूनी एकाधिकार 

जब सरकारी नियमो के कारण किसी व्यक्ति या संस्था को एक वस्तु के उत्पादन करने का अधिकार प्राप्त हो, तो उसे कानूनी अधिकार कहते है, उदाहरणार्थ, काॅपीराइट या पेटेन्ट। ऐसे एकाधिकार से नये-नये अनुसंधानों को प्रोत्साहन मिलता है। 

(स) सामाजिक एकाधिकार 

कभी-कभी किसी स्थान या क्षेत्र मे सामाजिक कल्याण की दृष्टि से किसी वस्तु की पूर्ति का अधिकार सरकार द्वारा किसी संस्था या व्यक्ति को दे दिया जाता है, तो उसे सामाजिक एकाधिकार कहते है। उदाहरणार्थ, सरकार द्वारा किसी नगर मे जल वितरण व्यवस्था का अधिकार वहां के नगर निगम या नगरपालिका के सुपुर्द कर दिया जाता है।

(द) ऐच्छिक एकाधिकार 

कभी-कभी कई व्यवसायी परस्पर मिलकर एकाधिकार की स्थापना करते है, ताकि कण्ठछेदी प्रतियोगिता को कम किया जा सके तो उसे ऐच्छिक एकाधिकार कहते है। ऐच्छिक एकाधिकार दो प्रकार का होता है--

(A) शीर्ष या उत्तरोत्तर मिलन 

इस प्रकार के मिलन मे कोई कंपनी किसी वस्तु के कच्चे माल के उत्पादन से लेकर तैयार माल तक के सभी कार्यों को करती है। उदाहरणार्थ, टाटा आयरन एण्ड स्टील कंपनी अपनी खदानों से लोहा, कोयला तथा मैंगनीज, इत्यादि कच्चे माल को निकालकर इस्पात तैयार करती है।

(B) क्षैतिज मिलनश

जब किसी स्थान पर अनेक कारखाने या कंपनियाँ एक ही नियंत्रण या प्रबन्ध के अंतर्गत आ जाती है, तो इसे क्षैतिज मिलन कहते है, उदाहरणार्थ, स्टेंडर्ड आइल कंपनी।

एकाधिकार की उत्पत्ति के कारण (ekadhikar ki utpatti ke Karan)

एकाधिकार की उत्पत्ति के विभिन्न कारण है, जो इस प्रकार हैं--

1. कभी-कभी सरकार कानून द्वारा किसी व्यक्ति या संस्था को किसी उद्योग के संचालन का पूर्ण अधिकार दे देती है, तो इस प्रकार स्वाधिकार के मिलने के कारण भी एकाधिकार की उत्पत्ति हो जाती है। जैसे किसी कंपनी को नगर मे पानी या बिजली की व्यवस्था का अधिकार दिया जाता है।

2. जब किसी वस्तु के निर्माण के लिए सम्पूर्ण कच्चा माल किसी व्यक्ति या क्षेत्र के अंतर्गत आ जाता है, तो एकाधिकार की उत्पत्ति होती है। जैसे विभाजन से पूर्व बंगाल को जूट उद्योग का एकाधिकार प्राप्त था।

3. कुछ उद्योग ऐसे होते है। जिनके लिए भारी मात्रा मे पूंजी की आवश्यकता होती है, जिसके अभाव मे कम पूंजी वाले छोटे-छोटे पूंजीपति ऐसे वृहद् उद्योगो की स्थापना नही कर पाते और उनकी स्थापना कुछ बड़े पूंजीपति कर पाते है जिससे पूर्ण एवं स्वतंत्र प्रतियोगिता नही होती तथा वे आपस मे मिलकर संघों का निर्माण कर लेते है, जिससे एकाधिकार की उत्पत्ति होती है। 

4. जब किसी वस्तु के उत्पादन करने के कारण किसी उत्पादक का बहुत बड़ा नाम हो जाता है, तब नये उत्पादक उद्योग मे प्रवेश नही करते। इस कारण भी एकाधिकार की उत्पत्ति होती है।

5. कण्ठछेदी प्रतियोगिता से बचने के लिए कई फर्में या कंपनियां वस्तु की पूर्ति अथवा मूल्य को नियन्त्रित करने के उद्देश्य से आपस मे मिलकर संघ का निर्माण करती है, जिससे एकाधिकार का निर्माण होता है।

6. जब किसी स्थान या क्षेत्र मे कच्चे माल का केन्द्रीकरण हो जाता है, तो इससे भी एकाधिकार की उत्पत्ति होती है। दक्षिण अफ्रीका मे स्वर्ण की खदानें तथा देश-विभाजन से पूर्व बंगाल मे जूट का केन्द्रीकरण इसके उदाहरण है।

7. जब किसी देश या स्थान मे विदेशी प्रतियोगिता का अभाव होता है, तो इसमे विदेशी प्रतियोगिता की समाप्ति के कारण देशी उत्पादकों को अपना संघ बनाने के लिए प्रोत्साहन मिलता है, जिससे कि एकाधिकार की उत्पत्ति होती है।

8. कभी-कभी विशेष कानूनी अधिकारों के प्राप्त हो जाने के कारण भी एकाधिकार का निर्माण हो जाता है।

9. कभी-कभी आयात-निर्यात करों से भी एकाधिकार की उत्पत्ति होती है। उदाहरणार्थ, जब सरकार आयात पर प्रतिबंध लगा देती है, तो इससे विदेशी प्रतियोगी पर रोक लग जाती है और देशी उत्पादकों को एकाधिकारी संघ बनाने तथा अधिकतम लाभ कमाने का अवसर मिल जाता है।

10.  कभी-कभी सार्वजनिक अपव्यत को कम करने अथवा सार्वजनिक हितों की रक्षा के लिए एकाधिकार की उत्पत्ति होती है, जैसे-- बिजली, टेलीफोन, रेल, परिवहन आदि के लिए अनेक फर्मों या कंपनियों के बजाय एक ही फर्म या कंपनी रखी जाती है।

एकाधिकारी की मान्यताएं 

एकाधिकारी की मुख्य मान्यताएं निम्नानुसार है--

1. अधिकतम लाभ कमाना 

जब किसी वस्तु का केवल एक ही विक्रता होता है तो ऐसी स्थिति मे फर्म और उद्योग दोनो का एक ही अर्थ होता है। अतः जब किसी उद्योग के साम्य की बात की जाती है, तब इसका आशय फर्म के साम्य से होता है। कोई फर्म साम्य की स्थिति मे उस समय होती है, जब वह अधिकतम लाभ प्राप्त कर रही हो। वस्तुतः एकाधिकारी के उद्योग के साम्य के लिए भी यही दशा है। एकाधिकारी अपनी वस्तु के मूल्य को बढ़ा सकता है, परन्तु यह संभव है कि उपभोक्ताओं के विरोध, नये-नये प्रतियोगियों के उत्पन्न हो जाने अथवा कानूनी नियंत्रण के कारण वह ऐसा नही कर सके। इस प्रकार साम्य की स्थिति मे एकाधिकारी का उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाना है।

2. एकाधिकारी की वस्तु का निकट स्थानापन्न नही होना

एकाधिकार की आदर्श दशा वह होगी, जिसमे एकाधिकारी की वस्तु का कोई निकट स्थानापन्न नही होता। निकट स्थानापन्न शब्द को अर्थशास्त्र के परिभाषित शब्दों मे भी पारिभाषित किया जा सकता है। जैसा कि प्रतिलोच के अध्ययन से स्पष्ट है कि कई बार किसी एक (X) वस्तु का मूल्य बदल जाने से किसी दूसरी (Y) वस्तु की मांग पर प्रभाव पड़ जाता है अर्थात् उसकी मांग घट-बढ़ जाती है। इस संबंध को मूल्य की प्रतिलोच कहते है। इस प्रकार एकाधिकारी की दूसरी मान्यता को इस प्रकार कह सकते है कि किसी दूसरे उत्पादक की वस्तु एकाधिकारी की वस्तु का स्थान न ले सकें। स्पष्ट है कि एकाधिकारी अपनी वस्तु का संपूर्ण उत्पादन स्वयं करता है, अतः उसका उस वस्तु के मूल्य पर बड़ा अधिकार होता है। अन्य शब्दों मे, वस्तु को प्रभावित कर सकने की क्षमता एकाधिकार का सार है।

3. क्रेताओं मे प्रतियोगिता 

एकाधिकार मे वस्तु का उत्पादक या विक्रेता तो एक होता है, परन्तु क्रेताओं की संख्या अधिक होती है। ऐसी स्थिति मे विक्रय प्रतियोगिता न होते हुए क्रेताओं मे प्रतियोगिता होती है तथा उनकी संख्या बहुत अधिक होती है। फलतः कोई भी क्रेता व्यक्तिगत रूप से वस्तु के मूल्य को प्रभावित नही कर सकता। एक क्रेता की दृष्टि मे वस्तु का मूल्य दिया हुआ होता है।

4. क्रेता का विवेकपूर्ण होना 

एकाधिकार की अंतिम मान्यता यह है कि इसके अंतर्गत बाजार मे प्रत्येक क्रेता या ग्राहक विवेक से लेन-देन करते है। प्रत्येक क्रेता अपनी प्राथमिकता के क्रम के आधार पर वस्तुओं का क्रय करता है। इससे यह लाभ होता है कि उसके द्वारा विभिन्न मूल्यों पर मांगी जाने वाली मात्राओं का सरलता से अनुमान लगाया जा सकता है। अतः ग्राहक या क्रेता की मांग रेखा को खींचा जा सकता है और इस प्रकार व्यक्तिगत मांग रेखाओं को जोड़कर बाजार मांग (कुल मांग) का पता लगाया जा सकता है।

एकाधिकारी के उद्देश्य (ekadhikar ka uddeshya)

एकाधिकार का मुख्य उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाना है। दूसरे शब्दों मे, एकाधिकारी की फर्म साम्य की दशा मे तभी प्राप्त होती है, जब वह अधिकतम लाभ कमा रही होती है। पूर्ण प्रतियोगिता की दशा मे उत्पादक की वस्तु का मूल्य सीमान्त लागत एवं सीमान्त आगम के बराबर होता है, अतः प्रत्येक उत्पादक को केवल सामान्य लाभ ही प्राप्त होता है, परन्तु एकाधिकारी उत्पादक केवल सामान्य लाभ को लेने की चेष्टा नही करता, अपितु सामान्य लाभ से कुछ अधिक लाभ कमाने की चेष्टा करता है, क्योंकि उसके हाथ मे वस्तु का मूल्य रहता है। एकाधिकारी अपनी वस्तु के मूल्य को औसत तथा सीमान्त लागत से ऊपर रखने का प्रयत्न करता है। मूल्य एवं लागत का अंतर जिनता ही अधिक समय तक रखा जा सकता है, उतना ही एकाधिकारी का कुल लाभ अधिक होगा। एकाधिकारी वस्तु का मूल्य या पूर्ति की मात्रा को इस प्रकार निश्चित करता है कि उसका कुल लाभ अधिकतम हो जाये।

मार्शल के शब्दों मे," प्रथम अवलोकन मे प्रत्येक एकाधिकारी का उद्देश्य स्पष्ट रूप से मांग तथा पूर्ति के बीच इस प्रकार का समायोजन नही है कि प्राप्त मूल्य से उसका उत्पादन व्यय पूरा हो जाये, अपितु उसे इस प्रकार समायोजित करना होता है, जिससे कि उसको अधिक शुद्ध एकाधिकारी आगम प्राप्त हो।

श्रीमती जाॅन रोबिन्सन के अनुसार," एकाधिकारी अपने शुद्ध एकाधिकारी आगम को अधिकतम प्राप्त करने की चेष्टा करता है।" 

अधिकतम लाभ से आशय "प्रति इकाई लाभ" को अधिकतम करने से नही है, वरन् है कुल लाभ को अधिकतम करने से होता है। वस्तुतः एकाधिकारी अधिकतम कुल लाभ को प्राप्त करने की चेष्टा करता है न कि अधिकतम प्रति इकाई लाभ को

 संक्षेप मे, एकाधिकारी के अधिकतम लाभ से आशय प्रति इकाई लाभ X वस्तु को बेची गई मात्रा को अधिकतम करना है।

संदर्भ; मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, लेखक श्री रामरतन शर्मा जी।

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