पल्लवन के उदाहरण
पल्लवन के उदाहरण इस प्रकार हैं--
1. ईर्ष्या
जैसे दूसरे के दुःख को देख दुःख होता है वैसे ही दूसरे से सुख या भलाई को देखकर भी एक प्रकार का दुःख होता हैं, जिसे 'ईर्ष्या' कहते हैं। ईर्ष्या की उत्पत्ति कई भावों के संयोग से होती है, इससे इसका प्रादुर्भाव बच्चों में कुछ देर में देखा जाता है और पशुओं में तो शायद होता भी न हो। ईर्ष्या एक संकर भाव है, जिसकी सम्प्राप्ति आलस्य, अभिमान और नैराशय के योग से होती है। जब दो बच्चे किसी खिलौने के लिए झगड़ते हैं तब कभी-कभार ऐसा देखा जाता है कि एक उस खिलौने को लेकर फोड़ देता है, जिससे वह किसी के काम में नहीं आता। इससे अनुमान हो सकता है कि उस लड़के के मन में यही रहता है कि चाहे वह खिलौना मुझे मिले या न मिले, लेकिन किसी ओर के काम नही आना चाहिए अर्थात् उनकी स्थिति मुझसे अच्छी न रहे। ईर्ष्या पहले-पहल इसी रूप में व्यक्य होती हैं।
2. आत्म दृष्टि विश्वबंधुत्व की आधारशिला है
आचार्य शंकर के अनुसार इस लोक में तीन प्रकार की दृष्टियां होती है देह दृष्टि देव दृष्टि एवं आत्म दृष्टि। संसार के 'मनुष्य पारस्परिक देह संबंध को महत्त्व देकर, पिता-पुत्र, माता-पिता, पति-पत्नी, गुरु-शिष्य, भाई-बहन, एवं शत्रु की स्थिति स्वीकार कर लेते हैं एवं सुख-दुःख का अनुभव करते हैं, इनसे ऊपर वे लोग है, जो किसी पूज्य के प्रति श्रद्धालु होकर आराध्य और आराधक भाव से देवत्व की स्थिति स्वीकार कर लेते हैं तथा 'मात देवो भव, पितृ देवो भव, गुरुर्देवो भव' में ही पुण्य की इतिश्री समझ लेते हैं। इन दोनों के ऊपर के धरातल के लोग आध्यात्मिक होते हैं उनकी दृष्टि में देह एवं दैहिक संबंध नश्वर है, देव एवं देवत्व कर्माधीन होने के कारण क्षणिक हैं, केवल आत्मा ही शाश्वत, अनन्त एवं अभेद्य है। इस आध्यात्मिक धरातल पर 'मैं' 'तुम' और 'वह' की सत्ताविलीन हो जाती है, क्योंकि ये शब्द उसी आत्मा के विभिन्न सर्वनाम हैं। ऐसी बोधात्मक स्थिति में आध्यात्मिक मनुष्य संपूर्ण विश्व को एक परिवार मान लेता है एवं निःस्वार्थ भाव से विश्व बंधुत्व का प्रचार-प्रसार करता है। इस आत्मा दृष्टि से गोरे और काले, अमीर और गरीब, हिन्दु और मुसलमान का भेद नहीं होता। 'बसुधैव कुटुम्बकम्' के मानने वाले लोग इसी आत्म दृष्टि से अनुप्राणित होते हैं।
3. बैर क्रोध का आचार या मुरब्बा हैं
जिससे हमें दुःख पहुँचा है उस पर यदि हमने क्रोध किया और यह क्रोध यदि हमारे ह्रदय में बहुत दिनों तक टिका रहा तो वह बैर कहलाता हैं। इसके स्थायी रूप में टिक जाने के कारण क्रोध का वेग और उग्रता तो धीमी पड़ जाती है पर लक्ष्य को पीड़ित करने की प्रेरणा बराबर बहुत काल तक हुआ करती है। क्रोध अपना बचाव करते हुए शत्रु को पीड़ित करने की युक्ति आदि सोचने का समय प्रायः नहीं देता, पर बैर उसके लिए बहुत समय देता है। सच पूछिए तो क्रोध और बैर का भेद केवल कालकृत है दुःख पहुँचने के साथ ही दुःखदाता को पीड़ित करने की प्रेरणा करने वाला मनोविकार क्रोध और कुछ साल बीत जाने पर प्रेरणा करने वाला भाव बैर हैं। जैसे यदि किसी ने आपको गाली दी और उसी समय आपने उसे मारा तो आपने क्रोध किया। मान लीजिए कि वह गाली देकर भाग गया और दो महीने बाद आपको कहीं मिला अब आपने उससे बिना फिर सुने, मिलते से ही उसे मार दिया तो यह आपका बैर निकालना हुआ। इसी कारण बैर को क्रोध का अचार अथवा मुरब्बा कहा जाता हैं।
4. लालच बड़ी बुरी बला हैं
लालच एक ऐसी मनोवृत्ति है जिसमें व्यक्ति अपना विवेक और बुद्धि दोनों खो देता है। यह बात एक बाल कहानी से सिद्ध होती हैं जिसमें एक मनुष्य के पास एक मुर्गी थी। जो रोज एक सोने का अंडा देती थी। ऐसे सोने के अंडे को पाकर वह आदमी बड़ा खुश रहता था, परन्तु वह काफी लालची था। वह मन-ही-मन सोचा करता था कि मुझे सिर्फ रोज एक ही सोने का अंडा मिलता हैं। मुझे सारे सोने के अंडे एक साथ ही क्यों नहीं मिल जाते। इसी कारण उसने सोचा क्यों ना मुर्गी के पेट से एक साथ सभी अंडे निकाल लिये जाए इसलिए उसने मुर्गी को मार डाला। वह मुर्गी भी अन्य मुर्गियों की ही तरह थी उसके पेट के अंदर सोने के अंडे भरे नहीं थे। मुर्गी के मरने के बाद उसको सोने का एक भी अंडा नही मिला। इस प्रकार सोने का अंडा और मुर्गी दोनों उसके हाथ से चली गई।
इस प्रकार अपने लालच के चलते उस व्यक्ति की सामान्य बुद्धि भी समाप्त हो गई वह लालच के चलते इतना भी नही सोच सका कि मुर्गी के पेट में बहुत से अंडे एक साथ नहीं हो सकते। इसलिए कहा जाता हैं कि लालच बड़ी बुरी बला हैं।
5. लघुता से प्रभुता मिले प्रभुता से प्रभु दूर
विनम्रता मनुष्य की सफलता का विशेष आधार है। विनम्र व्यक्ति गुणों का ग्राहक बनकर धीरे-धीरे शिक्षित और गुणी बन जाता है। विनम्रता में पल्लवित होने वाली श्रद्धा भावना उसे श्रेष्ठ व्यक्तियों का सानिध्य प्रदान करती है सज्जनों की संगति से उसे प्रभुता मिल जाती है, क्योंकि कहा भी गया है, "जैसी संगति बैठिए तैसे ही गुण होत।"
संसार गुणों और विशेषताओं से भरा हुआ है। आवश्यकता है उसको अपनाने के लिए सुपात्र बनने की यदि हम किसी के उठे हुए हाथ के नीचे अपना हाथ रखकर कुछ पाना चाहेंगे, तो अवश्य मिलेगा, किन्तु यदि उस हाथ से ऊपर रखकर उसमें से पाने की आशा रखेंगे, तो असफल ही होंगे। इसी प्रकार यदि मनुष्य में अहं का भाव भर जाएगा, तो न विनम्रता होगी, न गुण-गाध्यता आएगी और न ही भक्ति का आदर्श भाव विकसित हो सकेगा। इस प्रकार विनम्रता ही मनुष्य को गुणसम्पन्न कर ईश्वर-प्रदान कराती है।
6. आत्मविश्वास सफलता का पहला रहकर हैं
आत्मविश्वास का अर्थ स्वयं के भीतर विश्वास होने से है। जीवन में किसी भी कठिन परिस्थिति आने पर भी अगर उसका शांत और समझदारी से सामना किया जाए तो उस स्थिति में व्यक्ति का आत्मविश्वास झलकता है। किसी भी कार्य को पूर्ण करने के लिए आत्मविश्वास का होना बेहद जरूरी है क्योंकि एक आत्मविश्वासी व्यक्ति ही जीवन की सफलताओं को हासिल कर सकता है।
आत्मविश्वास से व्यक्ति का आत्मविश्वास बढ़ता है तथा समाज में उसकी ओर सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। एक स्वस्थ और अनुशासित व्यक्ति में आत्मविश्वास भरपूर मात्रा में होता है क्योंकि एक स्वस्थ मस्तिष्क ही हर कार्य को पूरा करने के लिए अलग रणनीतियां अपनाता है और उस कार्य में दक्ष भी हो जाता है जिससे लोगों का उस व्यक्ति की ओर आकर्षण बढ़ता है।
आत्मविश्वासी व्यक्ति ही आगे कदम बढ़ाता है तथा अपने लक्ष्य तक पहुँचने में समर्थ बनता हैं। इस तरह आत्मविश्वास सफलता का पहला रहस्य हैं।
अपने आत्मविश्वास से एक अकेला शख्स पहाड़ भी तोड़ सकता हैं, इसका उदाहरण दशरथ मांझी हैं। साल 1960 से 1982 के बीच दिन-रात दशरथ मांझी के दिलो-दिमाग में एक ही चीज़ ने कब्ज़ा कर रखा था, पहाड़ से अपनी पत्नी की मौत का बदला लेना और 22 साल जारी रहे आत्मविश्वास और जुनून ने अपना नतीजा दिखाया और पहाड़ ने मांझी से हार मानकर 360 फुट लंबा, 25 फुट गहरा और 30 फुट चौड़ा रास्ता दे दिया।
7. नर-नारी एक ही गाड़ी के दो पहिए हैं
जीवन-रूपी गाड़ी के नर-नारी दो पहिए है। जिस प्रकार से गाड़ी का एक पहिए पर चलना संभव नहीं है, उसी प्रकार जीवन-रूपी गाड़ी भी नर या नारी किसी एक के अभाव में नहीं चल सकती हैं। सृजन, सृष्टि, विकास सभी में नर-नारी की समान रूप से भागीदारी व महत्ता हैं। जीवन की गाड़ी के संचालन के लिए दोनों में परस्पर सहयोग एवं सामन्जस्य नितान्त आवश्यक हैं।
8. परिश्रम सफलता की कुंजी है
मनुष्य को जीवन का वास्तविक आनन्द अपने श्रम से प्राप्त होता है जो सुबह से शाम तक अपना खून-पसीना एक करते हुए कर्मक्षेत्र में लगा रहता है, चिंता उससे दूर-दूर बहुत दूर भाग जाती है। ऐसे व्यक्ति के मन में व्यर्थ की बातों को सोचने का अवसर ही नहीं मिलता है। परिश्रमी व्यक्ति के लिए कोई भी लक्ष्य दूर नहीं, कोई भी रास्ता दुर्गम नहीं वह संघर्ष में मुस्कुराता हुआ आगे बढ़ता रहता है। उसे अपने चिंतन और शक्ति पर पूरा विश्वास होता है। वह किसी के सहारे नहीं रहता। वह आत्मबल पर विश्वास और आत्म-सम्मान का अभिलाषी होता है। वह जानता है कि उसके पास दो हाथ हैं और वह इन्हीं हाथों के बल पर सफलता का वरण करता है। वह अपनी भाग्य का स्वयं निर्माता है। उसमें कठिनता को सरलता में बदलने की अपूर्व शक्ति होती है। परिश्रमी व्यक्ति को अपूर्व आनन्द की अनुभूति और जीवन में सतत सफलता मिलती है।
9. किसान देश की रीढ़ हैं
भारत कृषि प्रधान देश हैं। कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था का मेरुदण्ड है। जहां एक ओर यह प्रमुख रोजगार प्रदाता क्षेत्र है। वहीं सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में इसका महत्वपूर्ण योगदान है। देश की लगभग 58 प्रतिशत जनसंख्या अपनी आजीविका हेतु कृषि पर ही निर्भर है। कृषि की सकल घरेलू उत्पादन में भागीदारी लगभग 22 प्रतिशत है।
10. साहित्य समाज का दर्पण हैं
उक्त कथन आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के साहित्य की महत्ता से उद्धृत किया गया है। जिसका आशय है कि साहित्य अपने समाज की सही वस्तुस्थिति का चित्रण करता है। समाज कैसा है, उसकी सोच, आचार-विचार, रहन-सहन, उन्नति तथा अवनति सभी साहित्य में देखी जा सकती है। किसी भी समय के साहित्य को देखिए उस समय के समाज की वास्तविक स्थिति का पता सहज में चल जायेगा। इसलिए साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया हैं। साहित्य समाज को उसी तरह प्रभावित करता है जिस तरह समाज साहित्य को।
11. सवै दिन होत न एक समान
प्रकृति परिवर्तनशील है। जीवन और जगत् की गति हमेशा एक जैसी नहीं रहती। प्रातःकाल का सूर्य संध्याकाल में निस्तेज हो जाता हैं। जो आज समस्त व्यंजनों का भोग करता पाया जाता है, वह कल भूख से बिलखता फिरता है। दाने-दाने को तरसता हुआ व्यक्ति धनसंपदा के असीम समुद्र में तैरते हुये मिलता है। राजा रंक और रंक राजा बन जाते है। आनन्द से फूला न समाने वाला अगले पल विपत्तियों से घिरा हुआ आँसू बहाता नजर आता हैं। उन्नति के शिखर पर आसीन व्यक्ति दूसरे ही क्षण अवनति के गर्त में जा गिरता हैं। 'सबै दिन होत न एक समान' का सत्य हमें भगवद्गीता के 'स्थितप्रज्ञ' बनने का उपदेश देता हैं, जिसका आशय यह है कि हम सुख-दुख, लाभ-हानि और जय-पराजय में समभाव से रहें क्योंकि हम नश्वर देहधारी नहीं, आत्मा हैं, जिसका सम्बन्ध प्रकृति के विरोधों से नहीं हैं वरन् जो अखण्ड आनन्द का स्वरूप है, जिसकी प्रकृति केवल शान्त हैं, उससे हैं। इसी कारण किसी की गति एक-सी नहीं रहती। समय एक-सा नहीं रहता।
महोदय आपकी प्रयास बहुत ही प्रशंसनीय है।
जवाब देंहटाएं