हिंदी के विविध रूप
भाषाओं में निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं जिसके फलस्वरूप शब्द कभी बढ़ जाते हैं तो कभी घट जाते हैं। इस घटा-बढ़ी के पीछे अनेक कारण कार्य करते हैं। उदाहरण के लिए हिन्दी में बहुत से ऐसे शब्द है जिनका रूप संस्कृत जैसा ही है। कुछ शब्द संस्कृत पर आधारित है परन्तु अनेक रूप में परिवर्तन आ गया है। अन्य भाषाओं के शब्द भी हिंदी में आ गये हैं। अरबी, फारसी तथा अंग्रेजी के अनेक शब्द हिन्दी में आ गये है और हिन्दी का अभिन्न अंग बन गये हैं। इसके अतिरिक्त भाषा बहुत बड़े प्रदेश में बोली जाती है तो क्षेत्र विशेष के अनुसार उसके कई रूप विकसित होते हुए दिखाई देते हैं। बम्बइया हिन्दी, हैदराबादी हिन्दी, पंजाबी हिन्दी आदि हिन्दी के अनेक रूप हैं। यहाँ पर हम हिन्दी के कुछ रूपों पर विचार करेंगे, जो नीचे निम्नानुसार हैं--
1. खड़ी बोली
खड़ी बोली वह भाषा है जो मोटे तौर पर आज की मानक हिन्दी का एक पूर्वरूप है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से इसे आदर्श (स्टैंडर्ड) हिंदी, उर्दू तथा हिंदुस्तानी की आधार स्वरूप बोली होने का गौरव प्राप्त है। किन्तु 'खड़ी बोली' से आपस में मिलते जुलते अनेक अर्थ निकाले जाते हैं।
खड़ी बोली, हिंदी का वह रूप है जिसमें संस्कृत के शब्दों की बहुलता करके वर्तमान हिंदी भाषा की सृष्टि हुई, इसी तरह उसमें फारसी तथा अरबी के शब्दों की अधिकता करके वर्तमान उर्दू भाषा की सृष्टि की गई है। खड़ी बोली से एक तात्पर्य उस बोली से है जिसपर ब्रजभाषा या अवधी आदि की छाप न हो । ठेठ हिंदी परिनिष्ठित पश्चिमी हिंदी का एक रूप है ।
खड़ी बोली निम्नलिखित स्थानों के ग्रामीण क्षेत्रों में बोली जाती है- मेरठ, बिजनौर, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, देहरादून के मैदानी भाग, कलसिया अम्बाला, और < >
पटियाला के पूर्वी भाग, रामपुर और मुरादाबाद। खड़ी बोली क्षेत्र के पूर्व में ब्रजभाषा, दक्षिण-पूर्व में मेवाती, दक्षिण-पश्चिम में पश्चिमी राजस्थानी, पश्चिम में पूर्वी पंजाबी और उत्तर में पहाड़ी बोलियों का क्षेत्र है। मेरठ की खड़ी बोली आदर्श खडी बोली मानी जाती है जिससे आधुनिक हिंदी भाषा का जन्म हुआ, वही दूसरी और मुजफ्फरनगर व सहारनपुर बागपत में खड़ी बोली हरयाणवी की झलक देखने को मिलती है। बाँगरू, जाटकी या हरियाणवी एक प्रकार से पंजाबी और राजस्थानी मिश्रित खड़ी बोली ही हैं जो दिल्ली, करनाल, रोहतक, हिसार और पटियाला, नाभा, झींद के ग्रामीण क्षेत्रों में बोली जाती है।
खड़ी से 'खरी' का अर्थ भी लगाया जाता है, अर्थात शुद्ध अथवा ठेठ हिन्दी बोली। शुद्ध अथवा ठेठ हिंदी बोली या भाषा को उस समय खरी या खड़ी बोली के नाम से सम्बोधित किया गया जबकि हिंदुस्तान में अरबी-फारसी और हिंदुस्तानी शब्द मिश्रित उर्दू भाषा का चलन था, या अवधी या ब्रजभाषा का । ठेठ या शुद्ध हिंदी का चलन नहीं था। लगभग 18वीं शताब्दी के आरम्भ के समय कुछ हिंदी गद्यकारों ने ठेठ हिंदी बोली में लिखना शुरू किया। इसी ठेठ हिंदी को 'खरी हिंदी' या 'खड़ी हिंदी' कहा गया।
2. सर्जनात्मक भाषा
सर्जनात्मकता के संबंध में अनेक गलत धारणाएँ फैली हुई हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि भाषा में होने वाले किसी भी परिवर्तन या नये प्रयोग को सर्जनात्मकता कहा जा सकता है। समाज का प्रत्येक सदस्य इससे प्रभावित होता है। यदि कोई बच्चा बिल्ली की ओर संकेत कर 'म्याऊँ' की आवाज निकालता है तो वह भी एक नये शब्द का सर्जन करता है। लेकिन यह सर्जनात्मकता का भ्रामक अर्थ है। भाषा प्रतीकों की व्यवस्था है जिसके अंगों-उपांगों में नियमबद्ध संबंध हैं। भाषा का प्रयोजन संप्रेषण या विचारों का आदान-प्रदान होता है। जो व्यक्ति संप्रेषण के प्रयोजन से भाषा का प्रयोग करता है, उसे भाषा के सभी नियमों का पालन करना होता है। वक्ता भाषा का प्रयोग कर अपनी बात कहता है, लेखक लिखकर पाठक को पहुँचाता है। इसके लिए आवश्यक है कि वक्ता और लेखक तथा श्रोता और पाठक को भाषा के नियमों का ज्ञान हो। ये प्रयोग सामान्य भाषा का प्रयोग कहे जाते हैं। इसके विपरीत जब भाषा के नियमों का प्रयोग नहीं किया जाता तो उसे हम असामान्य प्रयोग कहते हैं।
असामान्य प्रयोग में वक्ता/लेखक जो बात, जिस प्रकार से और जितनी मात्रा में प्रेषित करता है, वह बात उसी प्रकार के श्रोता/पाठक तक नहीं पहुँचती है। नियमों का ज्ञान होने से संदेश का गुणात्मक ह्रास हो जाता है क्योंकि श्रोता/पाठक को बात समझने में बाधा आती है। दूसरी ओर यदि वक्ता/लेखक को नियमों का पूर्ण ज्ञान है लेकिन वह किसी विशेष कारण से नियमों का उल्लंघन कर अपनी बात इस प्रकार कहता है कि पाठक/श्रोता कही गई बात से अधिक प्राप्त करता है तो इस अतिरिक्त को सर्जना कहा जाता है। इस प्रकार वक्ता/लेखक का नियमों का सायाम उल्लंघन और अपने संदेश में अतिरिक्त अर्थ की संभावना का उद्बावन 'सर्जनात्मकता' हैं। इसके लिए उपलब्ध शब्द से हटकर नये शब्दों का निर्माण, शब्दों में नये अर्थों को भरना, शब्दों का नया प्रयोग करना तथा शब्दों को नये ढंग से प्रस्तुत करना आदि सम्मिलित है। लेखक जितना प्रयास संदेश में अतिरिक्त अर्थ भरने में लगायेगा पाठक उतना या उससे अधिक प्रयास अर्थ निकालने में करेगा। ऐसे संदेश में सर्जनात्मक तत्वों को समझकर अतिरिक्त अर्थ निकालना प्रत्येक भाषा प्रयोक्ता के वश की बात नहीं। कई पाठक ऐसे अर्थ भी निकाल लेते है जो लेखक ने सोचा भी नहीं होता। जिस सन्देश से ऐसे अतिरिक्त अर्थ निकलने की संभावना जितनी अधिक होगी, उसमें सर्जनात्मकता का स्तर उतना ही अधिक ऊँचा होगा। सर्जनात्मक भाषा में लिखे संदेशों के रचयिता (कवि, लेखक) अपनी रचनाओं को बार-बार परिष्कृत करते हैं। कई लेखकों में तो अपनी सृजनात्मक भाषा में अतिरिक्त अर्थ का सर्जन करने की क्षमता होती हैं। यह अर्थ भाषा के नियमों के उल्लंघन से ही किया जाता है। विशेषकर व्याकरण के नियमों का। यह प्रत्येक सर्जनात्मक प्रयास में नही होता। सर्जनात्मक लेखक में साहित्यकार को कुछ छूट मिल जाती है परन्तु एक सीमा में।
भाषा का सर्जनात्मक प्रयोग कई विधाओं में हो सकता हैं। कविता, कहानी, नाटक, कविता, कहानी, नाटक, निबंध, संस्मरण आदि सर्जनात्मक प्रयोग के उदाहरण हैं। इस प्रकार के प्रयोगों में यह महत्वपूर्ण नहीं होता कि क्या कहा गया है, अपितु महत्वपूर्ण यह होता है कि संदेश कैसे दिया गया हैं।
जो काव्य-पंक्तियाँ ऊपर से सामान्य दिखाई देती हैं, वे भी एक से अधिक अर्थ लिये हो सकती हैं। बिहारी का एक भक्ति भाव का दोहा देखिये--
मेरी भव वाधा हरों, राधा नागरी सोय,
जा तन की झाई परत, स्याम हरित दुति होय।।
उपर्युक्त उदाहरण में यह नहीं देखा जाता कि इन पंक्तियों का अर्थ क्या हैं अपितु इस बात पर ध्यान दिया जाता है कि उसने सर्जनात्मक भाषा-प्रयोग के द्वारा एक चित्र खींच दिया है जो एक विशेष प्रकार के सौंदर्य को लिये हुए हैं।
इस प्रकार के भाषा प्रयोगों में इस बात को रेखांकित किया जा सकता है कि किसी एक संदेश का कोई निश्चित भाव या अर्थ नहीं होता, पाठक भिन्न-भिन्न समय में भिन्न-भिन्न अर्थ निकाल सकते हैं। ऐसे सर्जनात्मक प्रयोगों की व्याख्या करते हुए एक कविता या नाटक का अर्थ तो समझाया जा सकता है परन्तु ऐसे कोई निश्चित नियम नहीं बनाये जा सकते कि प्रत्येक कविता या नाटक का संपूर्ण अर्थ अपने आप समझ में आ जाये। इसका कारण खोजने के लिए भी दूर नहीं जाना पड़ता। प्रत्येक कवि, नाटककार, कहानीकार अपने-अपने ढंग से रचना का सर्जन करता है। इस बात को रेखांकित किया जा सकता है कि एक युग के सर्जनात्मक प्रयोगों में एक जैसी प्रवृत्तियाँ या लक्षण हों और उस युग-विशेष के लेखक की रचनाओं में कुछ व्यक्तिगत विशेषताएँ हों, पर यह कोई निश्चित नियम नहीं हैं। इसे सर्जनात्मक भाषा प्रयोग के नियम के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता।
3. राजभाषा
किसी भाषा को राजभाषा तब कहते है जब देश का संविधान उस भाषा को प्रशासन की भाषा घोषित कर देता है। इस प्रकार की स्थिति में सभी औपचारिक कार्यों के लिये इस भाषा का प्रयोग अनिवार्य होता हैं। किसी भाषा के राजभाषा बन जाने पर यह बात प्रमुख नहीं होती कि लोग उस भाषा को भावात्मक स्तर पर स्वीकारते हैं अथवा नहीं।
स्वतंत्रता के पश्चात संविधान सभा ने भारत जैसे विशाल और बहुभाषी की एकता और प्रशासन की सुविधा के लिए ऐसी भाषा की आवश्यकता महसूस की जिसके माध्यम करोड़ों लोग परस्पर भावों एवं विचारों का विनिमय कर सकें। हिन्दी को सक्षम मानकर संविधान सभा ने इसे देश की राजभाषा घोषित की है।
राजभाषा हिन्दी के प्रयुक्ति क्षेत्रों के अंतर्गत केन्द्र सरकार के सभी संस्थान, निगम, बीमाक्षेत्र, बैंक आयोग तथा समितियां आते हैं। इन सभी जगहों में हिन्दी भाषा का सर्वथा नया रूप जो भाषागत शैलीगत एवं अर्थगत वैशिष्ट्य लिए हुए है उभर कर सामने आ रहा है। यही नहीं द्विभाषिकता का महत्त्व स्थापित होने के पश्चात अनुवाद का बोल-बाला बढ़ा है। इस प्रकार हम देखते हैं कि राजभाषा पद पर आसीन होने के पश्चात हिन्दी को कुछ नए दायित्वों का वहन करना पड़ा और प्रयोजनमूलक हिन्दी का नया रूप 'राजभाषा हिन्दी' के रूप में हमारे सामने आया।
यहाँ पर यह ध्यान देने की बात है कि हिंदी और अंग्रेजी पूरे देश की सरकार अर्थात् संघ या केन्द्रीय सरकार की भाषाएँ है और हिन्दी सात राज्यों की राजभाषा भी है। इस प्रकार औपचारिक रूप से हिन्दी भारत संघ की राजभाषा और सात राज्यों की राजभाषा हैं। संविधान ने हिन्दी को भारत की राजभाषा घोषित किया हैं, राष्ट्रभाषा नहीं।
4. माध्यम भाषा
जिस भाषा द्वारा पठन-पाठन और शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाती है, उसे माध्यम भाषा कहा जाता हैं। अंग्रेजी में इसे 'medium language' कहा जाता है। भारत में उच्च स्तर पर ज्ञान-विज्ञान और तकनीकी का पठन-पाठन प्रायः अंग्रेजी माध्यम से ही होता है। इसके परिणामस्वरूप देश की युवा पीढ़ी को भारी क्षति उठानी पड़ती है। यह एक राष्ट्रीय क्षति है जिसका एक मात्र उपाय है, प्रादेशिक भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाना। सरकार ने हिन्दी के तथा अन्य प्रादेशिक भाषाओं के प्रयोग की तो अनेक घोषणाएँ की परन्तु उनका अनेक ज्ञात-अज्ञात कारणों से पालन नहीं हो पाया। विश्व में ज्ञान-प्रतिक्षण परिवर्तित हो रहा है जिसके अनुरूप स्तरीय पुस्तकें नहीं आ पा रही है। दूसरी ओर अंग्रेजी-माध्यम से पढ़कर आये हुए अध्यापक अंग्रेजी को ही अध्यापन के लिये सुविधाजनक समझते हैं। इसके अतिरिक्त उच्च शिक्षा में अंग्रेजी मिथ्या दम्भ की प्रतीक बनी हुई हैं। यह भ्रम भी फैलाया गया है कि विज्ञान और तकनीकी का ज्ञान अंग्रेजी भाषा द्वारा ही संभव है। इस बात में संदेह नहीं कि प्रौद्योगिकी जिस भाषा-क्षेत्र से आती है, वह अपने साथ अपनी शब्दावली भी लाती है। कम्प्यूटर पश्चिमी देशों से आया है। इसके साथ ही हजारों अंग्रेजी शब्द हिंदी में आ गये है। इनका या तो हिन्दीकरण हो गया या इन्हें देवनागरी लिपि में लिखा जायेगा। ऐसी परिस्थिति में उधार के शब्दों को लेना ही होगा नहीं तो हिंदी को 'अप-टू-डेट' नहीं किया जा सकता। अंग्रेजी आज क्यों ऊपर उठ रही हैं? इसका कारण है उसकी सर्वसंकलन क्षमता। ऐसी ही क्षमता को हिन्दी भाषा में विकसित कर उसे माध्यम भाषा बनाने की दिशा में कार्य करना होगा।
हिंदी को माध्यम भाषा बनाने के लिए उसके रूप में वृद्धि करनी होगी। अभी तक हिंदी के पास कुछ ही द्वभाषी, त्रिभाषा शब्द कोष है। इसी प्रकार विभिन्न विषयों के कोश, पर्याय कोश, व्युत्पत्ति कोश, संदर्भ कोश आदि भी बहुत कम है। इन्हें बनाना, प्रकाश में लाना अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य हैं। इस आवश्यकता की पूर्ति तभी हो सकती है जब कोश विज्ञान का प्रशिक्षण देकर विभिन्न बोलियों और विषयों के शब्दकोश बनाये जायें। अब रचनाकारों को साहित्य को छोड़कर इस क्षेत्र में आना होगा। सर्जनात्मक लेखन हिंदी में बहुत हो चुका हैं। अब आवश्यकता है उपयोगी साहित्य को या उपयोगी पाठ्य सामग्री को प्रकाश में लाने की। परिभाषिकों, संकेताक्षरों को इस समय हिंदी की आवश्यकता है। विदेशी भाषा के प्रत्येक शब्द का धात्वर्थ के अनुकूल हिन्दी नामान्तर गढ़ना होगा और हिंदी के शब्दाभाव को दूर करना होगा। इस प्रकार के प्रयास विश्वविद्यालय के स्तर पर जब होंगे, शिक्षक और शोधार्थी इसमें अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायेंगे और नवीनतम ज्ञान को हिन्दी में रूपांतरित करेंगे तभी हिन्दी का माध्यम भाषा के रूप में विकास होगा। हिन्दी को माध्यम भाषा न तो दंड प्रावधानों के द्वारा बनाया जा सकता है और न ही तुष्टीकरण की नीति के द्वारा। यह तभी संभव है जब अंग्रेजी स्कूलों से बेहतर हिन्दी स्कूल खोले जाएँ और गुलामी की मानसिकता का भारतीयकरण अर्थात् हिंदीकरण किया जाए। इसके लिए एक राष्ट्रव्यापी अभियान आवश्यक हैं।
5. मातृभाषा
मातृभाषा का शाब्दिक अर्थ हैं, माँ की भाषा। जिसे बालक माँ के सानिध्य में रह कर सहज रूप से सुनता और सीखता है। सभी संस्कार एवं व्यवहार हम इसी के द्वारा पाते हैं। इसी भाषा से हम अपनी संस्कति के साथ जुड़कर उसकी धरोहर को आगे बढ़ाते हैं।
कालरिज (Coleridge) के अनुसार," मातृभाषा मनुष्य के शरीर में धडकते हृदय की भाषा है। इसे हिंडोले की भाषा (Language of the Cardle) भी कहा जाता है।
मातृभाषा मनुष्य के विकास की आधारशिला होती हैं। मातृभाषा में ही बालक इस संसार में अपनी प्रथम भाषिक अभिव्यक्ति देता हैं। मातृभाषा वस्तुतः पालने या हिंडोल की भाषा हैं। बालक अपनी माँ से लोरी इसी भाषा में सुनता हैं, इसी भाषा में बालक राजा-रानी और परियों की कहानी सुनता है और एक दिन यही भाषा उस शिशु की तुतली बोली बनकर उसके भाव-प्रकाशन का माध्यम बनती हैं। इस प्रारंभिक भाव-प्रकाशन में माँ-बेटे दोनों आनन्द-विभोर हो जाते हैं। यह सुख अन्य भाषा में कहाँ?
इस तरह जिस भाषा में मनुष्य अपने जीवन में गतिशील रहने के लिए, जिस मूल या प्रारंभिक भाषा को अपनाता है, वह उसकी मातृभाषा कहलाती है ।
हिंदी भाषा के संदर्भ में हम कह सकते है कि सामान्य रूप से विभिन्न बोलियां उसके प्रयोक्ता के लिए प्रथम भाषा और स्वभाषा के रूप में है। ये बोलियां ही बालक के परिवार और दूसरे आत्मीय क्षेत्रों में प्रयुक्त होने वाली भाषाएं है। ये बोलियां ही बालक अपनी माँ की गोद में पलते हुए प्रथम भाषा के रूप में सीखते है और इन्हीं के सहारे वह परिवार के दूसरे सदस्यों से तथा अपने आसपास के परिवेश में रहने वाले मित्रों से संबंध स्थापित कर सामाजिकता की ओर अग्रसर होता हैं। जब साक्षरता की बात आती है तो वह बोली से भाषा की ओर उन्मुख होता हैं, इससे आगे जब वह किसी साहित्यिक परम्परा से जुड़ता है तो वह हिंदी भाषा को मातृभाषा के रूप में अपनाता दिखाई देता हैं। उसके लिए ब्रज और अवधी में लिखा गया साहित्य एक ही साहित्यिक-सांस्कृतिक धारा की दो अलग-अलग अभिव्यक्तियाँ दिखाई देती हैं। खड़ी बोली में रचित साहित्य भी उसी धारा का उपांग बन जाता हैं। इस प्रकार मातृभाषा एक संस्थागत यथार्थता है और परम्परा तथा दृष्टिकोण से बनी इस यथार्थता के संदर्भ में कह सकते हैं कि हिन्दी भाषाई समुदाय के लिए बोलियां नहीं, अपितु हिन्दी भाषा, मातृभाषा के रूप में सिद्ध भाषा हैं। हिंदी भाषा के द्वारा ही इस भाषाई समुदाय के लोग अपनी सामाजिक पहचान बनाते हैं।
मातृभाषा के मूल रूप में दो प्रकार्य दिखाई देते हैं--
(अ) स्वभाषिक तथा
(ब) स्वभाषिकेतर भाषा।
स्वभाषिका का तात्पर्य हिंदी भाषा की बोलियाँ-ब्रज, अवधी, भोजपुरी आदि से हैं। इन बोलियों के मध्य जन संपर्क स्थापित करने वाली भाषा को स्वाभाषिक भाषा कह सकते हैं। साक्षरता के लिए भी इसी भाषा को अपनाया जाता है। इसके विपरीत स्वभाषिकेतर भाषा की संकल्पना बोली निरपेक्ष होती हैं। यह विशिष्ट प्रयोजनों को सिद्ध करती है जिसे मनुष्य अपने सामाजिक विकास के लिए सीढ़ी के रूप में प्रयुक्त करता हैं। शिक्षा, कानून, व्यापार आदि विभिन्न व्यवहार क्षेत्रों में प्रयुक्त होने वाली यह भाषा है। इस प्रकार श्री रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव के शब्दों में," स्वभाषिका भाषा का आयाम समस्तरीय (हारिजेंटल) है तो स्वभाषिकेतर भाषा का विषमस्तरीय (वर्टिकल)।" स्वभाषिकेतर भाषा के भी दो वर्ग हैं-- सन्निहित प्रयोजक तथा आरोपित प्रयोजक। सन्निहित भाषा प्रयुक्ति (रजिस्टर) और प्रोक्ति (डिस्कोर्स) से सम्बद्ध है जबकि आरोपित प्रयोजक का संदर्भ एक ही भाषा, की दो शैलियों के व्यवहार की उस स्थिति से है जिसे 'डायग्लासिया' कहा जाता है यथा हिन्दी और उर्दू का संबंध, जो प्रयुक्ति और प्रोक्ति से न होकर औपचारिक स्थिति में अपनायी जाने वाली उस सामाजिक शैली से है जिसे संस्थागत यथार्थता आरोपित करती हैं।
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