6/13/2023

मैथिलीशरण गुप्त के काव्य की विशेषताएं

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प्रश्न; मैथिलीशरण गुप्त के काव्य सौष्ठव पर प्रकाश डालिये।

अथव", मैथिलीशरण गुप्त जी के काव्य की विशेषताओं का विवेचन कीजिए। 

अथवा", गुप्त जी के काव्य में भाव-पक्ष और कला-पक्ष का सुन्दर समन्वय हुआ है।" - कथन की युक्ति-युक्त समीक्षा कीजिए। 

अथवा", मैथिलीशरण के काव्य की समीक्षा कीजिए।

अथवा", राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त जी काव्यगत विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।

उत्तर-- 

मैथिलीशरण गुप्त का काव्य सौष्ठव 

भारतीय संस्कृति के अमर गायक कविवर श्री मैथिलीशरण गुप्त जी हिन्दी-साहित्य के युग-प्रतिनिधि कवि हैं, जिन्होंने युग की नाड़ी टटोल कर उसके स्पन्दन को अपनी वाणी द्वारा व्यक्त किया है। उनके काव्य में साहित्य और समाज का सुन्दर समन्वय मिलता हैं। जहाँ उनकी काव्य-प्रतिभा ने एक ओर अपनी सामाजिक-चेतना से जीवन-रस लिया है, वहीं दूसरी ओर भारतीय राष्ट्र और समाज की नसों में नव-जीवन का पुनीत स्त्रोत प्रवाहित किया हैं। उनकी काव्य-सम्पदा का क्षेत्र बड़ा व्यापक और विशाल है। वे अपने काव्य-आंचल में अपने युग की सभी प्रवृत्तियों को सहेज कर चले हैं। भारतीय संस्कृति का भव्य आदर्श, अतीत-गौरव का गान, वर्तमान के परिष्कार की प्रेरणा और भविष्य का सुखद सन्देश यह सब गुप्त जी के काव्य की भाव-भूमि है। उनकी भाव-भूमि जितनी सशक्त एवं सुविस्तृत हैं, उसकी अभिव्यक्ति के लिये उनका कला-पक्ष उतना ही समृद्धशाली हैं। उनके भावपक्ष और कलापक्ष का यह अद्भुत समन्वय उनकी उत्कृष्ट काव्य-प्रतिभा का परिचायक हैं।

मैथिलीशरण गुप्त के काव्य की भाव-पक्ष विशेषताएं 

मैथिलीशरण गुप्त जी के काव्य का भाव-पक्ष बड़ी सुंदर एवं समृद्ध हैं। उनके काव्य के भाव-पक्ष की विशेषताएं निम्नलिखित हैं-- 

1. मानवतावादी दृष्टिकोण

गुप्त जी प्राचीन और आधुनिक काव्य-धारा के सन्धि युग के प्रतिनिधि कवि थे। उनका काव्य राष्ट्रीय विचारों से परिपूर्ण है। उनके काव्य का चरम लक्ष्य सामाजिक सेवा या भुवन सेवा ही था। मानवतावादी दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए उन्होंने लिखा हैं कि-- 

न तन सेवा न मन सेवा, न जीवन और न धन सेवा, 

मुझे है इष्ट जन सेवा सदा सच्ची भुवन सेवा। 

2. राष्ट्र-प्रेम की सच्ची भावना 

गुप्त जी एक सच्चे राष्ट्र प्रेमी कवि थे। भारतेन्दु बाबू के समय से राष्ट्रीय भावना की जो भाव-धारा आरंभ हुई उसका समुचित विकास गुप्तजी की ही कविताओं में हुआ। "साकेत" में राम वन-गमन के समय मार्ग में लेटकर जनता कहती है कि-- 

जाओ यदि जा सको, रौंद हमको यहाँ, 

यों कह पथ में लेट गये बहुजन वहाँ। 

3. गाँधी जी का प्रभाव 

राष्ट्रीय भावनाओं में गुप्त जी गाँधी जी से पूर्ण प्रभावित थे। उनके राजनीतिक विचार पूर्ण समयानुकूल थे। राम के शब्दों में विनत-विद्रोह की चर्चा असहयोग आन्दोलन का ही दूसरा रूप है। प्रजा के आग्रह पर राम ने कहा कि--

उठो प्रजानन उठो, तजो यह मोह तुम। 

करते हो किस हेतु विनत-विद्रोह तुम। 

4. समाज-सुधार की भावना 

गुप्त जी की कविता में आधुनिक सामाजिक सुधार की भावना का स्वरूप पर्याप्त रूप से दृष्टिगोचर होता है। हिन्दू-मुस्लिम एकता, अछूतोद्वार और विधवा-विवाह आदि का समर्थन गुप्त जी के काव्य में मिलता है। अछूतों के संबंध में उनके विचार दिखिये-- 

इन्हें समाज नीच कहता है पर हैं ये भी तो प्राणी, 

इनमें भी मन और भाव हैं, किन्तु नहीं वैसी वाणी। 

5. राजनीतिक विचार 

गुप्त जी के प्रबंध काव्यों से उनकी राजनीति संबंधी दृष्टिकोण की दिशा दिखायी देती है, जो प्रजातन्त्रात्मक हैं। जैसे-- 

राजा प्रजा का पात्र है, वह एक प्रतिनिधि मात्र हैं, 

यदि वह प्रजा पालक नहीं तो त्याज्य हैं। 

6. नारी चरित्र का महत्व 

प्राचीन आर्य संस्कृति के गुप्त जी महान उपासक थे। इस कारण उनके ह्वदय में नारियों के प्रति अटूट श्रद्धा और सहानुभूति रही है। कवियों द्वारा उपेक्षित उर्मिला, यशोधरा और कैकेई जैसी नारियों के चरित्र का उन्होंने चित्रण किये, वह सहज रूप में मानते थे कि-- 

एक नहीं दो-दो मात्रा हैं, नर से भारी नारी।

इसी प्रकार नारी के प्रति सहानुभूति व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा है कि-- 

अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, 

आँचल में है दूध ओर आँखों में पानी।  

7. प्रकृति चित्रण 

गुप्त जी को प्रकृति का रम्यरूप बहुत ही प्रिय था और उन्होंने लिखा है कि-- 

रत्ना भरण भरे अंगों मे ऐसे सुन्दर लगते थे, 

ज्यों प्रफुल्ल बल्ली पर सौ-सौ जुगुनू जगमग करते थे। 

8. भक्ति भावना 

गोस्वामी तुलसीदास के समान ही गुप्त जी राम के अनन्य भक्त थे। सभी धर्मों के आराध्य देवताओं का आदर करते हुए भी राम का रूप उन्हें सर्वाधिक प्रिय था, इसलिए उन्होंने कहा हैं-- 

धनुर्वाण या वेणु लो, स्याम रूप के संग, 

मुझ पर चढ़ने से रहा, राम! दूसरा रंग। 

9. वर्णन का क्षेत्र 

गुप्त जी भारत की प्राचीन आर्य संस्कृति के उपासक थे। प्राचीन संस्कारों से ही वशीभूत होकर उन्हें अपना कोई हित अभीष्ट नहीं था। राम के अवतरित होने की बात प्रस्तुत करते हुए उन्होंने लिखा हैं कि-- 

सन्देश नहीं मैं यहाँ स्वर्ग का लाया, 

इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।

मैथिलीशरण गुप्त के कला-पक्ष की विशेषताएं 

भाव-पक्ष की भाँति गुप्त जी कविता मे कला पक्ष का भी समुचित विकास हुआ। गुप्त जी के काव्य के कला-पक्ष की विशेषताएं निम्नलिखित हैं-- 

1. वर्णन-विशद्ता 

वर्णन की विशदता गुप्त जी की काव्य कला की प्रमुख विशेषता है। भाव, वस्तु, दृश्य सभी का वर्णन गुप्त जी ने बड़े ही विशद् रूप में किया हैं। उनकी वर्णन शैली बड़ी सजीव और प्रभावोत्पादक हैं। 'साकेत' महाकाव्य के प्रथम-सर्ग में अयोध्या-नगरी का बड़ा ही भव्य और विशद् चित्रण किया गया है। कवि की ये पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-- 

"देख लो साकेत नगरी है यही, स्वर्ग से मिलने गगन में जा रही। 

केतु-पट सदृश्य हैं उड़ रहे, कनक कलसों पर अमर दृग जुड़ रहे।।"

2. उक्ति-वैचित्र्य 

किसी बात को सीधे ढंग से कहना गुप्त जी जानते ही नहीं। उनके कथन व्यंजना और लक्षणा के सौंदर्य से सम्पन्न हैं। इसीलिए गुप्त जी के काव्य में अनोखी उक्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। 'यशोधरा' खण्डकाव्य में नारी-जीवन की दयनीयता पर कवि का यह कठोर व्यंग्य कितना भार्मिक हैं-- 

"अबला जीवन हाय तुम्हारी रही कहानी। 

आँचल में है दूध और आँखों में पानी।।" 

3. भाषा 

गुप्त जी की भाषा शुद्ध तथा निखरी हुई खड़ी बोली है। खड़ी बोली में सरस मधुर कविता करके गुप्तजी ने महान ख्याति प्राप्त की है। ब्रजभाषा का सा माधुर्य खड़ी बोली के माध्यम से लाने का श्रेय गुप्त जी को ही है। भाषा में शुद्धता और कोमलता के साथ-साथ छायावादी युग का पर्याप्त प्रभाव मिलता हैं। 

4. शैली 

गुप्त जी बहुमुखी प्रतिभा के सम्पन्न एवं धनी कलाकार थे। उनकी रचनाओं में शैली के विभिन्न रूप पाये जाते हैं, जैसे वर्णनात्मक, प्रबन्धात्मक, भावात्मक, उपदेशात्मक, गीति, नाट्य शैली, चित्रात्मक एवं छायावादी शैली। 

5. अलंकार योजना 

गुप्त जी ने अपनी भाषा-शैली को अलंकारों की चमक-दमक से खूब सजाया है। आपकी अलंकार योजना बड़ी सहज और आकर्षक है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अतिश्योक्ति, विभावना, संदेश, भ्रान्तिमान, मानवीकरण, विशेषण विपर्यय आदि गुप्त जी के प्रिय अलंकार हैं, जिनका सहज सौंदर्य आपकी काव्य-रचनाओं में सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। कैकेयी के क्रोध के उपरांत राम के विनम्र वचन दशरथ के लिये ठीक वैसे ही है, जैसे तूफान के पश्चात भूमि पर मेघवृष्टि होना--

"असन पूर्व उतार तारक हार, मलिन-सा सित-शून्य अम्बर-धार। 

प्रकृति-रंजन-हीन-दीन अजस्त, प्रकृति 'विधवा' थी भरे हिम वस्त्र।।" 

6. छंद-योजना 

छंद योजना की दृष्टि से भी गुप्त जी का काव्य समृद्धशाली है। वर्तमान खड़ी बोली कविता में जितने छन्दों का प्रयोग गुप्त जी ने किया है, उतना अन्य किसी कवि ने नहीं किया है। आपने तुकान्त, अतुकान्त सभी प्रकार के छन्द लिखे है। आपकी रचनाओं में रोला, छप्पय, सवैया, कवित्त, दोहा, हरिगीतिका, आर्यापद, पादाकुलक, आदि मात्रिक छन्दों तथा शार्दूल विक्रीडित, शिखरणी, मालिनी, द्रुतबिलम्बित आदि वर्णिक छन्दों का विषय और प्रसंग के अनुकूल सफल प्रयोग दृष्टिगोचर होता हैं। 

इस प्रकार उपरोक्त विवेचन के बाद कह सकते है कि मैथिलीशरण गुप्त अपने युग के प्रतिनिधि कवि थे। वे हिन्दी साहित्य के एक ऐसे प्रकाशित नक्षत्र थे, जिसके प्रकाश में तेज एवं शील दोनों का स्वरूप विकसित हुआ और जो अनन्त काल तक भारतीयों का मार्ग-दर्शन करता रहेगा।

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