6/14/2023

जयशंकर प्रसाद का प्रकृति चित्रण

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प्रश्न; प्रसादजी के प्रकृति चित्रण की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। 

अथवा", जयशंकर प्रसाद के प्रकृति चित्रण पर प्रकाश डालिए। 

अथवा", प्रसाद जी को प्रकृति के मोहक वातावरण ने खूब लुभाया है। इस कथन की विवेचना कीजिए। 

उत्तर-- 

जयशंकर प्रसाद का प्रकृति चित्रण

प्रकृति के प्रति प्रसाद जी के ह्रदय का तीव्र आकर्षण है एवं उनका यह असीम प्रकृति-प्रेम उनकी कविताओं में भली-भाँति व्यक्त हुआ है। सत्य तो यह है कि कवि की ह्रदयानुभूतियों ने प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित कर लिया है। प्रकृति के हास-विलास, राग-विराग, उसकी चेतना में कवि अपने को घुला-मिला देता है। कवि की भाँति ही प्रकृति हँसती है, रोती है तथा प्रेम की विविध क्रीड़ाओं में रत रहती है। कभी वह नेत्र निमीलन करती है, कभी अंगड़ाई लेती है तथा कभी नववधू के समान मान करती है। वास्तव में प्रकृति का यह मानवीकरण प्रसाद जी के प्रकृति-चित्रण की सबसे बड़ी विशेषता है। प्रकृति के मानवीय चित्रों में प्रसाद जी का छायावादी रूप स्पष्टतः मुखरित हुआ है। इस प्रकृति-चित्रण में एक और बात महत्वपूर्ण है वह यह कि जीवन के प्रति कवि प्रसाद का दृष्टिकोण जिस तरह सौन्दर्यमय, भावुक एवं रोमाण्टिक है, उसी तरह प्रकृति के सौन्दर्यमयी पथ को, उसके वैभव एवं विलास को, उसके सरस तथा मादक रूप को कवि ने अधिक चित्रित किया है। प्रकृति के कोमल ही नही, कठोर चित्र भी प्रसाद जी ने उतारे हैं। प्रकृति के माध्यम से उनकी रहस्य भावना भी मुखरित हुई है। यही नहीं आलम्बन, उद्दीपन, संवेदनात्मक, आलंकारिक आदि सभी रूप प्रसाद जी के प्रकृति-चित्रण में मिलते हैं। प्रसाद जी का प्रकृति-चित्रण निम्नलिखित रूपों देखा जा सकता हैं--

1. आलम्बन रूप में प्रकृति चित्रण 

हिमालय का वर्णन करते हुए कवि कहता हैं-- 

सामने विराट, धवल नग, अपनी महिमा से विलसित 

उसकी तलहटी मनोहर, श्यामल तृण वीरूधावली, 

नव-कुँच गुहा गृह सुन्दर, हद से भर रही निराली 

वह मंजरिया का कानन, कुछ अरूण पीत हरियाली। 

पति पर्व सुमन संकुला थे, छिप गई उन्हीं में डाली। 

यहाँ हमें प्रकृति के सुन्दर रूप के दर्शन होते हैं। हिमालय का उपर्युक्त वर्णन हमें कालिदास के 'हिमालय वर्णनम्' का स्मरण दिलाता हैं। 

2. उद्दीपन रूप में 

प्रकृति संयोग में सुख और वियोग में दुःख प्रदान करती है। संयोग की अवस्था में प्रकृति मनु को कितना आनन्द प्रदान कर रही हैं-- 

"निश्चित आह! वह था कितना, उल्लास काकली स्वर में। 

आनन्द प्रतिध्वनि गूँज रही, जीवन दिगन्त के अम्बर में।।" 

3. वातावरण के रूप में 

वातावरण को प्रकाशित करने वाली भावभूमि के रूप में भी प्रसाद जी ने प्रकृति का सजीव चित्रण किया है। ऊषा-सुन्दरी के चिकने और सुनहले बालों से आहत अन्धकार की सिसकियाँ दिखिए-- 

"उषा सुनहले तीर बरसती, जय लक्ष्मी सी उदित हुई।

उधर पराजित कालरात्रि भी, जल में अन्तर्निहित हुई।।" 

4. अलंकार योजना के रूप में प्रकृति-चित्रण 

अलंकृत वर्णनों की तो प्रसाद जी के प्रकृति-चित्रण में कमी ही नही है। कामायानी के 'श्रद्धा' सर्ग में तो श्रद्धा का रूप-चित्रण करते हुए कवि ने सौंदर्य हेतु प्राकृतिक उपदानों की झड़ी लगा दी हैं--

नील नरिधान बीच सुकुमार, 

खुल रहा मृदुल अधखुला अंग, 

खिला ज्यों बिजली का फूल, 

मेघ बन बीच गुलाबी रंग।

5. मानवीकरण के रूप में प्रकृति-चित्रण 

प्रकृति के इस तरह के चित्रण में प्रसादजी का काव्य-क्षेत्र भरा पड़ा हैं। 'कामायनी' में स्थान-स्थान पर उन्होंने प्राकृतिक पदार्थों पर मानवीय भावों का आरोप किया है। उनका 'बीती विभावरी जाग री' गीत प्रकृति के मानवीकरण का बड़ा सुन्दर उदाहरण हैं-- 

बीती विभावरी जाग री। 

अम्बर पनघटन में डुबो रही

तारा-घट ऊषा नागरी।

6. प्रकृति का रहस्यात्मक चित्रण 

प्रकृति के माध्यम से प्रसाद जी की रहस्य भावना भी मुखरित हुई है। प्रकृति की विराट सत्ता में उन्हें किसी अनन्त शक्ति का आभास मिलता हैं। उस शक्ति की विराट् तथा रहस्यमयी सत्ता से उनका ह्रदय उत्सुक हो पूछ बैठता हैं-- 

महानील इस परम व्योम में अन्तरिक्ष में ज्योतिर्मान 

गृह, नक्षत्र और विद्युत्कण किसके करते हैं संधान, 

छिप जाते है और निकलते है, आकर्षण में छिपे हुए, 

तृण वीरूध लहलहे हो रहे, किसके रस से खिंचे हुए।।

7. संवेदनशील सहचरी के रूप में 

इस रूप में भी प्रसाद जी ने प्रकृति का चित्रण किया हैं। डाॅ. सुधाकर पाण्डेय का कथन हैं," कवि ने प्रकृति के सहयोग से सौंदर्य का ऐसा रूप प्रस्तुत किया है, जो अन्यत्र दुर्लभ हैं।" 

8. प्रकृति के कठोर रूप का चित्रण 

प्रसाद जी ने प्रकृति के जैसे कोमल एवं मधुर चित्र उतारे है वैसे ही उसके महाविनाशकारी तथा भयंकर रूप का भी चित्रण किया है। कामायनी के प्रलय-वर्णन से यह बात सर्वथा स्पष्ट हैं-- 

लहरें व्योम चूमने उठतीं, चपलायें असंख्य नचतीं। 

गरल जलदी की झड़ी में बूँदें निज संसृति रचतीं 

चपलाएँ उस जलधि विश्व में स्वयं चमत्कृत होती थीं, 

ज्यों विराट बाड़व ज्वालायें खंड-खंड हो रोती थीं।

9. निष्कर्ष 

सब कुछ मिलाकर प्रसाद जी की प्रकृति की यह चित्रपटी बड़ी गहन और व्यापक है। कला तथा प्रकृति के सामंजस्य से कवि का प्रकृति चित्रण अद्वितीय हो गया है। यह चित्रण बड़ा सूक्ष्म, अतीन्द्रिय एवं अपार्थिव है। कामायनी का प्रारंभ ही वैसे प्रकृति की गोद से होता है तथा उसका पर्यावसान भी प्रकृति की शीतल छाया से हुआ हैं।

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