प्रश्न; जय शंकर प्रसाद के काव्य सौष्ठव पर प्रकाश डालिए।
अथवा", जयशंकर प्रसाद की काव्यगत विशेषताएं बताइए।
अथवा", जय शंकर प्रसाद के कला-पक्ष एवं भाव-पक्ष की विशेषताओं का विवेचन कीजिए।
अथवा", प्रसाद की काव्यगत विशेषताएं लिखिए।
अथवा", प्रसाद जी के काव्य में भाव-पक्ष और कला-पक्ष का सुन्दर समन्वय हुआ है। कथन की विवेचना कीजिए।
उत्तर--
जय शंकर प्रसाद का काव्य सौष्ठव
प्रसाद बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने प्रत्येक क्षेत्र में हिन्दी को कुछ न कुछ दिया-- कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना। कविता के क्षेत्र में उन्हें अत्यधिक प्रसिद्ध मिली। इस प्रसिद्धि का आधार दो ग्रंथ बने-- आँसू और कामायनी। इनमें भी कामायनी की महत्ता सर्वाधिक है। इसे पृथ्वीराज रासो तथा पद्मावत की कोटि की रचना माना जाता है। आधुनिक-काल के संबंधों में वही ऐसा गंथ्र है, जो सच्चे अर्थों में गिना जाता है। 'कामायनी' की इस सफलता का रहस्य है, उसके भाव तथा कला पक्ष का उच्चकोटि का होना। कामायनी ही क्या, प्रसाद की बाद की लगभग सभी रचनाओं का भाव तथा कला-पक्ष इसी स्तर का हैं।
जयशंकर प्रसाद के काव्य की भाव-पक्ष की विशेषताएं
प्रसाद जी के भाव-पक्ष की निम्नलिखित विशेषताएं हैं--
1. भावयमता
भाव तो प्रसाद जी के काव्य का प्राण है। उनकी कविताओं में कोमल भावनाओं का ऐसा भण्डार है, जो कभी रिक्त नहीं हो सकता। कामायनी, आँसू, झरना आदि के गीतों में भावों का सागर लहरा रहा है। करूणा, हर्ष, विषाद, आशा-निराशा आदि अमूर्त भावों के बड़े ही मर्मस्पर्शी शब्द-चित्र उतारना प्रसाद जी की काव्य-प्रतिभा की सबसे बड़ी विशेषता हैं।
'चिन्ता' का यह मूर्त रूप देखिये--
'हे अभाव की चपल बालिके, री ललाट की खल रेखा।
हरी-भरी दौड़-धूप हो, जलमाया की चल-रेखा।।'
2. कल्पना की प्रधानता
भावों की तीव्रता, अनुभूतियों की अधिकता और विचारों की गतिशीलता की त्रिवेणी को प्रवाहित करने वाली कल्पना की पैठ प्रसाद जी के काव्य की सर्वप्रधान विशेषता है। प्रसाद जी का भावमय संसार किसी प्रकार के बन्धन को स्वीकारने वाला नहीं है। संसार और जीवन कीश वास्तविकता को ठोकर मारकर प्रसाद जी ने कल्पना का स्वागत किया था--
'आह कल्पना का सुन्दर वह, जगत-मधुर कितना होता हैं।'
3. रूपकात्मकता
प्रसाद के काव्य के भाव-पक्ष की तीसरी विशेषता-रूपकात्मकता हैं। कामायनी में उनकी यह विशेषता सर्वोत्तम रूप में प्रकट हुई हैं। संपूर्ण काव्य एक विराट रूपक पर आधारित है। मनु प्रतीक हैं मानव-मन के। श्रद्धा प्रतीक है राग की। इड़ा प्रतीक है बुद्धि की। ग्रंथ पढ़ते ही पता लग जाता है कि प्रसाद जी मनु-श्रद्धा इड़ा की कथा के माध्यम से मानव-मन की कहानी कहना चाहते हैं। वे दिखाना चाहते है कि सामंजस्य में जीवन की सफलता का रहस्य है। व्यक्ति श्रद्धा तथा इड़ा अर्थात् राग तथा वृद्धि में सामंजस्य बनाए रखे, तो उसे कभी भी प्रलय (उद्विग्नता) का सामना नहीं करना पड़ता। इस अर्थ से कामायनी का गौरव कई गुना बढ़ जाता है। इसी के आधार पर वह पद्मावत तथा रामचरितमानस जैसे ग्रंथों से होड़ ले पाती हैं।
4. वेदना और निराशा का स्वर
प्रसाद जी के छायावादी-काव्य में वेदना और निराशा के स्वर सुनाई देते हैं। 'आँसू' उनके असफल प्रेम की गाथा है। उसमें विरह-वेदना के कारूणिक-चित्र अंकित है। उसका प्रत्येक छन्द वेदना की गहरी अनुभूति से भरा हुआ है। ऐसा लगता है कि मानो कवि का जीवन पीड़ा का साकार रूप बन गया है। अन्त में कवि व्यथित होकर निराशा-पूर्वक कहता हैं--
'विकल वेदना फिर आई, मेरे चौदह, भुवन में।
सुख कभी न दिया दिखाई, विश्राम कहाँ जीवन में।।'
5. मानवतावाद
प्रसाद जी मानवतावाद के हिमायती हैं। वे 'जिओ और जीने दो' के सिद्धांत के पक्षपाती है। उन्हें विश्व-मानव के कल्याण की चिन्ता है। इसीलिए वे विश्वव्यापी मानवता का चित्रण करते हुये लिखते हैं कि--
'चेतना का सुन्दर इतिहास, अखिल मानव भावों का सत्य।
विश्व ह्रदय-पटल पर दिव्य, अक्षरों से अंकित हो नित्य।।'
6. प्रकृति वर्णन
भाव-पक्ष के क्षेत्र में प्रसाद का दूसरा प्रिय विषय प्रकृति-वर्णन है। उनकी कोई भी रचना ऐसी नही मिलेगी, जिसमें प्रकृति का भरपूर वर्णन न किया गया हो। यह वर्णन प्रभावशाली भी खूब है। यह दोनों प्रकार का हैं-- प्रकृति के कोमल रूप का वर्णन और प्रकृति के भंयकर रूप का वर्णन। उदाहरण देखिए--,
(अ) कोमल रूप का वर्णन
धीरे-धीरे हिम-आच्छादन
हटने लगा धरातल से,
जंगी वनस्पतियाँ अलसाईं
मुख धोतीं शीतल जल से।
(ब) भयंकर रूप का वर्णन
किसका था भ्रू-भंग प्रलय-सा
जिसमें ये सब विकल रहे,
अरे! प्रकृति के शक्ति-चिन्ह ये
फिर भी कितने निबल रहे!
7. रहस्यवाद
प्रसाद ने कहीं-कहीं रहस्यवाद की भी अभिव्यक्त की है। उनकी कई रचनाएं इसी प्रकार की है। कामायनी में भी कई स्थल पर ऐसा ही मिलेगा।
उदाहरण देखिए--
हे अनंत रमणीय! कौन तुम,
यह मैं कैसे कह सकता?
कैसे है! क्या हो! इसका तो
भार विचार न सह सकता।
जयशंकर प्रसाद के काव्य की कला पक्ष विशेषताएं
प्रसाद जी के कला-पक्ष की निम्नलिखित विशेषताएं हैं--
1. भाषा
खड़ी बोली को अधिकाधिक अभिव्यंजनशील बनाने वालों में प्रसाद का नाम भी विशेष आदर के साथ लिया जाता है। प्रसाद से पूर्व खड़ी बोली में मृदुलता तथा गंभीर अभिवंदना-शक्ति का अभाव था। प्रसाद ने उसे ये दोनों गुण दिये। उन्होंने खड़ी बोली को गंभीरतम भावों को अभिव्यक्ति देने योग्य सिद्ध कर दिखाया। 'कामायनी' और 'आँसू' दोनों ही इसके ज्वलंत प्रमाण हैं। दोनों में खड़ी बोली के उच्चतम रूप का प्रयोग हुआ हैं।
कविवर प्रसाद की भाषा न केवल मंजुल, अर्थवान और सरस है, अपितु चित्रमयी, अलंकृत और भाववर्द्धक भी है। प्रसाद की भाषा में संस्कृत शब्दावली की प्रधानता है। अन्य काव्य रचनाओं के समान कामायनी में लक्षणापूर्ण भाषा के प्रयोग हुए है। इस प्रकार प्रयोग सुबोध और सुन्दर हैं। जैसे--
पगली हा सम्हाल ले कैसे छूट पड़ा तेरा अंचल।
देख बिखरती है मणिराजी, अरी उठा बेसुध चंचला।।
कविवर प्रसाद की भाषा की एक अन्य विशेषता है-- मुहावरों और कहवतों के समुचित प्रयोग। इससे भाषा और भाव दोनों ही प्रभावोत्पादक हुए हैं।
प्रसादजी की भाषा संबंधी यह भी महत्वपूर्ण विशेषता है कि यह शब्द निर्माण की उस प्रक्रिया को अपनाने वाली है, जो संक्षिप्तीकरण नाम वैशिष्ट्य रूप को लेकर आगे बढ़ती है। प्रसाद काव्य में शब्द संक्षिप्तीकरण पद्धति पर जोर देते है। जैसे-- गुलाली। (गुलाल-से रंगों वाली) विकास चली (विकसित हुई), दीपती (दीप्त होती) आदि। इनकी भाषा की यह भी पहचान है कि यह ब्रजभाषा होती हुई क्रमशः खड़ी बोली में ढल गयी हैं।
2. शैली
गीतात्मक एवं चित्रात्मकता उनकी शैलीगत प्रमुख विशेषता हैं। उन्होंने अपनी कविताओं में विषय-वस्तु को प्रतीकों के माध्यम से प्रस्तुत किया है। इनके द्वारा कवि ने अन्तःकरण की गहनता, विदग्धता, भावुकता और मर्मिकता को सार्थक और सफल रूप में अभिचित्रित किया हैं।
3. रस
प्रसाद जी के काव्य में मुख्य रूप से श्रृंगार (संयोग, वियोग, करूण, शांत, वीर रस) के प्रवाह अपेक्षित और ह्रदयस्पर्शी रूप मे है। इससे भावाभिव्यक्ति सोद्देश्यमयी हुई हैं।
4. अलंकार योजना
प्रसाद जी की कविता में अलंकारों का प्रचुर प्रयोग हुआ है। उनका प्रयोग इतना सहज है कि वे सर्वत्र काव्य के सौंदर्य को पुष्ट करते है और उसकी श्रीवृद्धि करते है। कविता-कामिनी पर बोझ नहीं बनते है। छायावादी कवि होने के कारण उन्होंने उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अनुप्रास, श्लेष आदि भारतीय काव्यशास्त्र में विहित अलंकारों के साथ-साथ, मानवीकरण, विशेषण-विपर्यय और ध्वन्यार्थ-व्यंजना आदि पाश्चात्य अलंकारों को भी मूल ह्रदय से अपनाया है और उनका सशक्त व सुन्दर प्रयोग किया है।
5. छंद
प्रसाद ने छंदों के प्रयोग में भी बड़ी सतर्कता से काम लिया है, जो छंद जिस भाव के अनुकूल पड़ता है, उसी का प्रयोग किया है। 'आँसू' में उन्होंने 28 मात्रा के आनंद छंद का प्रयोग किया है। आशा सर्ग में तोटक छंद का प्रयोग किया हैं।
Sandhya vabna or roop chaitran
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