प्रश्न; भारतीय संविधान के क्रमिक विकास को समझाइये।
अथवा" भारतीय संविधान के क्रमिक विकास की विवेचना कीजिए।
उत्तर--
भारतीय संविधान का क्रमिक विकास
अंग्रेजों के भारत में आगमन के साथ ही वर्तमान संविधान की शुरुआत हो गयी थी। अंग्रेजों के आगमन से पूर्व में भी भारत में संवैधानिक नियमों को अप्रत्यक्ष रूप से लागू किया जाता था। भारतीय संवैधानिक इतिहास सन् 1600 ई. से 1950 तक 350 वर्ष लम्बा हैं।
भारत में संवैधानिक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का अध्ययन करने हेतु हम इसके इतिहास को निम्नलिखित पाँच चरणों में विभाजित कर सकते हैं--
1. प्रथम चरण (1600 से 1765) [अंग्रेजों का भारत आगमन]
(अ) ईस्ट इण्डिया कंपनी की स्थापना
(ब) 1726 का राजपत्र
2. द्वितीय चरण (1765 से 1858) [ब्रिटिश सामाजिक की स्थापना]
(अ) 1773 का रेग्यूलेटिंग एक्ट
(ब) एक्ट ऑफ सैटिलमेण्ट, 1781
(स) पिट्स इण्डिया एक्ट, 1784
(द) 1813 का राजपत्र
(य) 1833 का राजपत्र
(र) 1853 का राजपत्र
3. तृतीय चरण (1858 से 1919) [कंपनी शासन का अन्त]
(अ) भारत सरकार अधिनियम, 1858
(ब) भारतीय परिषद् अधिनियम, 1861
(स) भारतीय परिषद् अधिनियम, 1892
(द) भारतीय परिषद् अधिनियम, 1909
4. चतुर्थ चरण (1919 से 1947) [भारतीय शासन का प्रारंभ]
(अ) भारत सरकार अधिनियम, 1919
(ब) साइमन कमीशन, 1927
(स) भारत सरकार अधिनियम, 1935
(द) क्रिप्स मिशन, 1927
(य) केबिनेट मिशन, 1946
(र) भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947
5. पांचम चरण (1947 से 1950) [भारतीय संविधान का जन्म]
(अ) संविधान सभा से सदस्यों का चुनाव
(ब) संविधान सभा की बैठकें
(स) संविधान का निर्माण
1. प्रथम चरण; अंग्रेजों का भारत आगमन (1600 से 1765)
भारत में अंग्रेजों के आगमन का समय सन् 1600 से 1765 तक रहा। भारत से व्यापार करने के लिए दिसंबर सन् 1600 ई. मे लंदन के सौ व्यापारियों ने एक कंपनी की स्थापना की, जो कालांतर मे "ईस्ट इंडिया कंपनी" कहलाई। महारानी एलिजाबेथ ने इसे पुर्वी देशों के साथ व्यापार, युद्ध और संधि संबंधी एकाधिकार प्रदान किया। व्यापार के आधार पर अंग्रेजों ने भारत मे प्रवेश किया। कालांतर मे ब्रिटिश साम्राज्यवाद की स्थापना हेतु यह घटना महत्वपूर्ण मानी जाती है।
ईस्ट इंडिया कंपनी ने पश्चिमी तट के बंदरगाह सूरत को अपना केन्द्र बनाया था। इसके बाद अंग्रेजों ने बम्बई, कलकत्ता, मद्रास आदि स्थानों पर भी अपनी फैक्टरियों की स्थापना की तथा वहाँ पर कई व्यापारिक केन्द्र भी खोलें।
1726 का राजपत्र
ईस्ट इण्डिया कंपनी द्वारा सन् 1726 ई. में एक राजपत्र (Charter) के द्वारा कलकत्ता, बम्बई तथा मद्रास प्रेसिडेन्सियों में राज्यपाल और उनकी परिषद् को कानून बनाने का अधिकार दे दिया गया। इसी चार्टर के द्वारा हर प्रेसिडेन्सी राज्य में एक मेयर कोर्ट को स्थापित किया गया।
मुगल साम्राज्य के पतन-काल के समय ईस्ट इण्डिया कंपनी ने कुछ परिस्थितियोंवश बंगाल के शासन को अपने हाथों में ले लिया। सन् 1757 ई. में अंग्रेजों ने बंगाल के शासक नवाब सिराजुद्दौला को हरा दिया तथा बंगाल की बागडोर सँभाल ली। इसके अलावा कंपनी ने दीवानी न्याय प्रशासन और मालगुजारी वसूल करने का अधिकार स्वयं ले लिया।
2. द्वितीय चरण; ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना (1765 से 1858)
यह चरण सन् 1765 से 1858 तक रहा। इस चरण में कई एक्ट (अधिनियम) पारित किये गये--
(अ) 1773 का रेग्यूलेटिंग एक्ट
रेग्यूलेटिंग अधिनियम पारित होने से पूर्व बंगाल की स्थिति अत्यंत दयनीय तथा नाजुक बन चुकी थी। कंपनी के सेवकों को बहुत कम वेतन मिलता था। कंपनी के सेवक बंगाल की जनता का शोषण करते थे। कंपनी के अंग्रेज कमचारी निजी स्वार्थ के लिए धन एकत्रित करने मे लगे रहते थे तथा अधिक धन एकत्रित करके इंग्लैंड वापस लौट जाते थे। जब वे इंग्लैण्ड वापस लौटते थे तो वहां उन्हें ऐश्वर्य तथा संपन्न होने पर नवाब कहा जाता था। अधिक धन होने पर प्रभावशाली होकर इंग्लैंड की संसद के सदस्य हो जाते थे। इस तरह ये सदस्य कंपनी के शेयर्स खरीद लेते थे।
इस परिस्थिति मे कंपनी की स्थिति बिगड़ती जा रही थी तथा उसकी आर्थिक स्थिति डावांडोल होने लगी। कंपनी को बिहार, बंगाल और उड़ीसा के क्षेत्र मे लगान वसूल करने के लिए ज्यादा खर्चा करना पड़ता था। सन् 1771 ई. तक कंपनी दिवालियेपन की स्थिति तक पहुंच चुकी थी। कंपनी के घाटे मे चलने के कारण अंशधारियों को भी लाभ नही मिल पा रहा था।
इसी समय एक घटना और घटी। कंपनी अब बिना आर्थिक सहायता के जीवित नही रह सकती थी। कंपनी ने अपने जीवन को बचाने के लिए ब्रिटिश शासन से कर्जा मांगा। इंग्लैंड की सरकार का मत था कि जब कंपनी के नौकर धनाढय हो रहे है तो कंपनी को भी धनी होना चाहियें। अगर कंपनी की आर्थिक स्थिति खराब है तो इसका अर्थ है कि कंपनी के ढांचे एवं प्रशासन मे अवश्य ही कोई कमी है।
इसी बीच बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा मे भीषण अकाल पड़ा। यह अकाल अत्यंत भयानक था। इस अकाल मे बंगाल की कुल जनसंख्या के 1/5 हिस्से की मृत्यु हो गयी। इस तरह सन् 1773 तक कंपनी की कमियां प्रत्येक व्यक्ति के सामने उजागर हो चुकी थीं। उस समय ब्रिटेन के प्रधानमंत्री लाॅर्ड नाॅर्थ ने पाया कि जब तक कंपनी के प्रबंध को वैज्ञानिक नही बनाया जाता है तब तक बंगाल की स्थिति मे कोई भी सुधार नही किया जा सकता है। ब्रिटिश सरकार ने कंपनी को ऋण देने की प्रार्थना स्वीकार कर ली। परन्तु कंपनी पर नियंत्रण भी लगाया।
कंपनी की माली हालत को सुधारने के लिए सन् 1773 मे रेग्यूलेटिंग एक्ट पारित किया गया। यह भी जरूरी समझा गया कि भारत मे कंपनी की स्वतंत्रता समाप्त करके उस पर ब्रिटिश संसद की श्रेष्ठता स्थापित की जाए।
इस तरह रेग्यूलेटिंग एक्ट का मुख्य उद्देश्य था कंपनी के प्रबंध मे सुधार करना तथा कलकत्ता के लिए एक प्रभावशाली एवं शक्तिशाली न्यायालय की स्थापना करना जो कंपनी के सेवकों तथा सरकार पर नियंत्रण स्थापित कर सकने मे सक्षम हो। अतः इंग्लैंड की संसद ने सन् 1773 मे रेग्यूलेटिंग एक्ट पारित किया।
(ब) एक्ट ऑफ सैटिलमेण्ट (1781)
1773 का रेग्यूलेटिंग एक्ट की कमियों को दूर करने के उद्देश्य से एक्ट ऑफ सेटलमेंट 1781 पारित किया गया। इसे ‘संशोधनात्मक अधिनियम’ (Amending Act) या बंगाल जूडीकेचर एक्ट, 1781 की भी कहा जाता है।
(स) पिट्स इण्डिया एक्ट (1784)
यह एक्ट भी सन् 1773 मे पारित रेग्यूलेटिंग एक्ट की विभिन्न त्रुटियों को दूर करने के लिए इंग्लैंड के प्रधानमंत्री विलियम पिट ने सन् 1784 मे नवीन पारित किया था। जिसे पिट्स इंडिया एक्ट के नाम से जाना जाता है।
पिट्स इंडिया एक्ट अधिनियम ने भारत मे कंपनी के प्रशासन पर अंकुश लगाने की व्यवस्था की थी। इस अधिनियम द्वारा भारतीय प्रशासन पर दोहरे नियंत्रण स्थापित किये गये थे। कंपनी के समस्त कार्यकलापों को दो भागों मे बाँट दिया गया। राजनितिक तथा प्रशासनिक मामलों का प्रबंध बोर्ड ऑफ कंट्रोल (नियंत्रण परिषद्) को सौंप दिया गया और व्यापारिक मामले पूर्णतः निदेशकों के नियंत्रण मे रहने दिये गये।
भारत मे गवर्नर जनरल तथा गवर्नर की नियुक्ति की प्रक्रिया को भी परिवर्तित कर दिया गया। इंग्लैंड का सम्राट कलकत्ते के गवर्नर जनरल को इंग्लैंड वावप बुला सकता था। अधिनियम द्वारा युद्ध और शांति की घोषणा पर भी सीमाएं अंकित की गई थी।
पिट्स इंडिया एक्ट अधिनियम द्वारा नियंत्रण मंडल को कंपनी के राजनीतिक के राजनीतिक विषयों पर पूर्ण नियंत्रण प्रदान किया गया। भारतीय प्रशासनिक पत्रों का सर्वेक्षण भी कोर्ट ऑफ डायरेक्टर के द्वारा संभव था। लेकिन नियंत्रण मंडल को भारतीय रियासतों पर अंकुश लगाने का अधिकार नही था।
पिट्स इंडिया एक्ट अधिनियम ने काफी हद तक रेग्यूलेटिंग एक्ट के दोषो को दूर किया। गवर्नर जनरल अब अपनी परिषद के सदस्यों से अधिक शक्तिशाली हो गया। अन्य गवर्नरों पर भी उसका सीधा नियंत्रण स्थापित हो गया था। इससे शासन मे दृढ़ता, एकरूपता तथा मजबूती आई। ब्रिटिश कैबिनेट के दो सदस्यों के बोर्ड ऑफ कंट्रोल मे शामिल होने से भारत सरकार पर गृह सरकार का नियंत्रण भी बढ़ गया तथा कंपनी के डायरेक्टरों व प्रोप्राइटरों के अधिकार सीमित हो गये।
(द) 1813 का राजपत्र
ब्रिटिश सरकार द्वारा सन् 1813 ई. में एक चार्टर एक्ट पारित किया गया जिसके द्वारा उसको कंपनी के ऊपर और नियंत्रण का अधिकार मिल गया। भारत में व्यापारिक एकाधिकार को खत्म करके समस्त ब्रिटिश नागरिकों को भारत में व्यापार करने के अवसर प्रदान किये गये।
(य) 1833 का राजपत्र
देश की शासन-प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन करने हेतु सन् 1833 में एक चार्टर एक्ट पारित हुआ। इस एक्ट के द्वारा बंगाल के गवर्नर जनरल को संपूर्ण भारत देश का गवर्नर बना दिया गया।
गवर्नर जनरल परिषद् में 'लाॅ मेम्बर' का पद बढ़ा दिया गया। यह कानूनी मामलों पर सलाह देता था। प्रेसीडेन्सी को कानून बनाने का अधिकार खत्म कर दिया गया।
(र) 1853 का राजपत्र
कार्यकारिणी तथा विधायिनी शक्तियों को अलग करने हेतु सन् 1853 का चार्टर एक्ट पारित किया गया। उस एक्ट के द्वारा बंगाल में एक नये लेफ्टिनेंट गवर्नर की नियुक्ति की गयी जिसका कार्य प्रशासनिक मशीनरी को संभालना था। विधान परिषद् में 12 सदस्यों की नियुक्ति की गयी। विधान परिषद् का मुख्य कार्य देश हेतु कानून बनाना था। इस अधिनियम के द्वारा भारत के लिए एक विधानमंडल की स्थापना की गयी।
3. तृतीय चरण; कंपनी शासन का अंत (1858 से 1919)
यह चरण 1858 से 1919 तक रहा।इस समय भी कई महत्वपूर्ण अधिनियम पारित किये गये--
(अ) भारत सरकार अधिनियम 1858
1857 की राज्य क्रांति में ईस्ट इंडिया कंपनी खत्म हो गयी थी। बोर्ड ऑफ कंट्राल कंपनी के ऊपर नियंत्रण नहीं कर सका। भारत के शासन को सम्राट को हस्तांतरित करने हेतु भारत सरकार अधिनियम, 1858 ई. में पारित किया गया। सभी उच्च पदों पर नियुक्तियां सम्राट द्वारा की जाने लगीं। राज्य सचिव की परिषद् को भी स्थापित किया गया। विधि निर्माण की प्रणाली त्रुटिपूर्ण थी। प्रशासन का कार्य चलाने हेतु 15 सदस्यों को भारतीय परिषद् के नाम से गठित किया गया।
(ब) भारतीय परिषद् अधिनियम, 1861
गर्वनर जनरल के अनुचित हस्तक्षेप को रोकने, प्रांतीय सरकारों के असंतोष को दूर करने तथा विधि निर्माण की प्रणाली को सुधारने के लिए सन् 1861 में इंडियन काउंसिल एक्ट पारित किया गया। इस अधिनियम के द्वारा भारतीयों को कानून बनाने के लिए रखा गया तथा प्रांतीय विधान सभाओं को भी कानून बनाने का अधिकार दिया गया। गवर्नर जनरल परिषद् की संख्या 5 कर दी गयी। गवर्नर जनरल की परिषद् को विधि निर्माण का महत्वपूर्ण अधिकार प्रदान किया गया। केन्द्रीय विधानमंडल की सदस्य संख्या बढ़ा दी गई। गवर्नर जनरल को विधान सभा द्वारा पारित कानूनों को नामंजूर करने, अध्यादेश जारी करने के अधिकार बढ़ा दिये गये। गवर्नर जनरल नये प्रांतों को बना सकता था तथा प्रांतों की सीमाओं में परिवर्तन कर सकता था।
(स) भारतीय परिषद् अधिनियम, 1909
1909 का एक्ट (अधिनियम) राजनीतिज्ञों के अनुसार एक सीमा-चिन् था जो अपने से पूर्व बने अधिनियमो से अधिक प्रगतिशील था परन्तु कुछ विचारक इसे एक प्रतिक्रियावादी और तत्कालीन परिस्थितियों मे चालाकी भरा कदम बताते है। 1909 का भारतीय परिषद अधिनियम तत्कालीन वायसराय लार्ड मिण्टो ने भारत मंत्री लार्ड मार्ल की सहायता से बनवाया, जिसकी पृष्ठभूमि मे अलीगढ़ महाविद्यालय का प्राचार्य आर्चीबोल्ड और उनका अंध अनुयायी आगा खाँ था, जो पूरी तरह से ब्रिटिश सरकार का कृपा पात्र था और इंग्लैंड मे विलासी जीवन व्यतीत करता था।
1909 के अधिनियम के अनुसार गवर्नर जनरल के विधानमंडल के अतिरिक्त गवर्नर के विधान परिषद् के अतिरिक्त सदस्यों की संख्या मे वृद्धि कर दी गयी। 1909 के अधिनियम के अनुसार विभिन्न वर्गों के आधार पर निर्वाचित सदस्य रखे गये।
4. चतुर्थ चरण; भारतीय शासन की शुरुआत (1919 से 1947)
यह चरण 1919 से 1947 तक रहा। इस समय में भी कई महत्वपूर्ण अधिनियम पारित किये गये--
(अ) भारत सरकार अधिनियम, 1919 या माॅण्फोर्ड सुधार
मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड के प्रतिवेदन के आधार पर जून 1919 में ब्रिटिश हाउस ऑफ काॅमन्स में भारत सरकार बिल रखा गया तथा लाॅर्ड सभा से पास होने व शाही अनुमति पाने के बाद 13 दिसंबर, 1919 को यह अधिनियम के रूप में क्रियान्वित किया गया। निःसंदेह, इस अधिनियम से देश में कतिपय मौलिक संवैधानिक सुधारों का सूत्रपात हुआ।
1919 के अधिनियम की आधार योजना के चार प्रमुख सिद्धांत थे--
1. प्रान्तीय शासन के क्षेत्र में यथासंभव जनता के नियंत्रण की स्थापना होगी।
2. केन्द्र के नियंत्रण शासन को काफी मात्रा में स्वतंत्रता व उसका लोक प्रतिनिधियों के प्रति उत्तरदायित्व होगा।
3. भारत सरकार ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी रहेगी, परन्तु लोकप्रिय प्रतिनिधित्व तथा उसके प्रभाव क्षेत्र में वृद्धि की जायेगी।
4. परिवर्तन संभव होने तक भारत सरकार का ब्रिटिश संसद तथा भारत मंत्री का प्रान्तों पर नियंत्रण कम कर दिया जायेगा।
इस अधिनियम में दो मौलिक विशेषताएं थी-- प्रान्तों के ऊपर केन्द्रीय नियंत्रण में ढील तथा प्रान्तों में द्वैध- शासन प्रणाली का सूत्रपात। अब भारत सरकार पर इंग्लैंड स्थित गृह शासन का नियंत्रण घटा और प्रान्तीय शासनों पर केन्द्रीय नियंत्रण भी कम हो गया। देश में पहली बार कानूनी नियमों द्वारा केन्द्रीय विषयों का प्रान्तीय विषयों से पृथक किया गया। विशेषतया विधायी, प्रशासकीय व वित्तीय क्षेत्रों में केन्द्र व प्रान्तीय सरकारों की शक्तियों की विभाजन की व्यवस्था सम्यक् ढंग से की गई। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण घटना यह है कि द्वैध- शासन योजना (Dyarchy) के अंतर्गत प्रान्तों में प्रजातान्त्रिक प्रशासन का हल्का प्रयोग हुआ।
(ब) साइमन कमीशन
जब भारत सरकार अधिनियम, 1919 देश में उत्तरदायी सरकार की स्थापना को सफलतापूर्वक संचालित नहीं कर सका तो अंग्रेजों ने भारतीय आंदोलन से आकर्षित होकर सन् 1927 में साइमन कमीशन को नियुक्त किया। इस कमीशन में भारतीय सदस्यों को नहीं लिया गया था।
(स) भारत सरकार अधिनियम, 1935
1935 का भारत सरकार अधिनियम ब्रिटिश साम्राज्यवाद का अन्तिम राजनीतिक उपहार है। वास्तव में, सबसे महत्वपूर्ण बाय यही है कि इसके प्रथम भाग के प्रमुख प्रावधान क्रियान्वित नहीं हो पाये, यद्यपि ब्रिटिश राजनीतिज्ञों के एक प्रभावशाली वर्ग ने इसे 'स्वायत्त शासन की वास्तविक सिद्धि' कहा तथा कुछ उदारवादी भारतीय नेताओं ने इसे 'भारत का नया संविधान' कहते हुए इसकी प्रशंसा भी की। इस अधिनियम में 321 अनुच्छेद तथा 10 अनुसूचियां थी। इस अधिनियम की निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएं थी--
1. संघात्मक शासन की स्थापना,
2. केन्द्र में दोहरे शासन की स्थापना,
3. प्रांतों में स्वायत्त शासन की स्थापना,
4. केन्द्रीय विधानमंडल का गठन,
5. प्रांतों में प्रांतीय शासन व्यवस्था,
6. प्रांतीय विधानमंडल,
7. केन्द्र एवं प्रांतों में शक्तियों का विभाजन,
8. फेडरल न्यायालय की स्थापना
इस तरह हम देखते है कि भारत सरकार अधिनियम, 1935 द्वारा एक ऐसी सरकार की स्थापना की गयी जिसे सही अर्थों में उत्तरदायी सरकार कहना ही उचित है। प्रशासन में गर्वनर जनरल को विशिष्ट अधिकार दिये गये। प्रांत की कार्यकारिणी शक्ति गर्वनर में निहित कर दी गयी। केन्द्रीय विधानमंडल के सदनों में सदस्य संख्या 375 एवं 260 कर दी गयी। गवर्नर जनरल के कानून बनाने के अधिकार बढ़ा दिये गये। धन विधेयक भी विधान सभा में पेश किये जाने लगे। प्रांतों की कार्यपालिका को गर्वनर तथा मंत्रिपरिषद् द्वारा संगठित कराया गया। गवर्नर को मंत्रिमंडल के प्रमुख का पद दिया गया। प्रांतीय विधानमंडलों को कानून बनाने का अधिकार दिया गया। वित्त विधेयक को बगैर गर्वनर की पूर्व अनुमति से पेश नहीं किया जाता था।
इस अधिनियम द्वारा केन्द्र तथा प्रांतों में शक्तियों का विभाजन कर दिया गया। निम्नलिखित तरह की तीन विषय सूचियां बनाई गई--
1. संघ सूची-59 विषय थे,
2. प्रांतीय सूची-54 विषय थे
3. समवर्ती सूची-36 विषय थे।
केन्द्रीय विधानमंडल को दंड विधि, दंड संहिता, दीवानी प्रक्रिया संहिता, विवाह विधि तथा पंचनिर्णय के कानून बनाने का अधिकार सौंपा गया। इसके साथ ही इस अधिनियम द्वारा भारत के उच्चतम न्यायालय को दिल्ली में स्थापित किया गया। फेडरल न्यायालय स्थापित करके उन्हें निम्नलिखित क्षेत्राधिकार प्रदान किये गये--
1. प्रारंभिक क्षेत्राधिकार,
2. अपीलीय क्षेत्राधिकार,
3. परामर्श क्षेत्राधिकार।
(द) क्रिप्स मिशन
विश्व मे द्वितीय विश्व युद्ध की घटनायें चल रही थी और इसमे इंग्लैंड की दशा बिगड़ती जा रही थी, फिर भी वह भारत को स्वतंत्र नही करना चाहता था। भारत मे भारतीयों के स्वतंत्रता संघर्ष को कम करने के लिये तथा अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिए और भविष्य मे स्वतंत्रता संघर्ष को दबाने का अवसर एवं समय पाने के लिये स्टेकाॅर्ड क्रिप्स को 22 मार्च, 1942 को भारत भेजा गया।
22 मार्च, 1942 को क्रिप्स ने दिल्ली पहुँचकर वाइसराय, उसकी कार्यकारिणी के सदस्यों और भारतीय नेताओं से चर्चा की तथा अपने प्रस्ताव का प्रारूप भारतीयों के सामने रखा," भारत के भविष्य के संबध मे दिये गये वचनो के पूरा होने के विषय मे जो चिंता इस देश मे तथा भारत मे प्रकट की गई है उस पर विचार करते हुए सम्राट की सरकार स्पष्ट तथा निश्चित शब्दों मे उन उपायों को बता देना आवश्यक समझती है जो भारत मे शीघ्रातिशीघ्र स्वायत्त शासन स्थापित करने के लिए वह करना चाहती है। ऐसा करने मे उसका उद्देश्य एक नवीन भारतीय संघ को जन्म देना है जो एक स्वाधीनता प्राप्त उपनिवेश होगा और ब्रिटेन तथा साम्राज्य के अन्य स्वाधीनता प्राप्त उपनिवेशो से उसका संबंध सम्राट के प्रति समान राजभक्ति द्वारा स्थापित रहेगा। यह भारतीय संघ पद की दृष्टि से पूरी तौर पर ब्रिटेन तथा अन्य स्वाधीनता प्राप्त उपनिवेशों के समान होगा और आंतरिक शासन का वैदेशिक समस्याओं के संबंध मे भी वह किसी प्रकार से भी पराधीन न होगा।
क्रिप्स मिशन के प्रस्ताव
1. भारत को ब्रिटिश मण्डल के अंर्तगत औपनिवेशिक स्वराज्य दिया जायगा।
2. युद्ध की समाप्ति पर शीघ्रातिशीघ्र एक संविधान सभा का निर्वाचन किया जाएगा जो भारत के लिये नवीन संविधान का निर्माण करेगी जिसे अंग्रेजी सरकार स्वीकार करेगी।
3. भारतीय नेताओं की ओर से यदि अन्य कोई समझौते की योजना नही हुई तो युद्ध के बाद प्रांतीय विधानमण्डल का निर्वाचन होगा। निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व द्वारा होगा और संविधान सभा के सदस्यों की संख्या प्रांतीय विधानमण्डल के लगभग 1/10 होगी।
4. ब्रिटिश भारत के प्रत्येक प्रांत और देशी राज्यों को संघ मे सम्मिलित होने अथवा न होने तथा पृथक रहकर स्वयं औपनिवेशक स्तर का अधिकार रहेगा।
5. ब्रिटिश भारत के प्रतिनिधियों के समान ही जनसंख्या के अनुपात से देशी राज्य द्वारा विधानसभा के सदस्यों की नियुक्ति की जायेगी।
6. शासन हस्तांतरित होने और जातीय तथा धार्मिक अल्पसंख्यकों के संबंध मे विधान बनाने वाली सभा एक संधि ब्रिटिश सरकार से करेगी।
7. ब्रिटिश सरकार अनिवार्य रूप से भारत की प्रतिरक्षा के लिये उत्तरदायी होगी। विश्वव्यापी युद्ध के प्रयत्नों के अंश के रूप मे वह भारत की प्रतिरक्षा का नियंत्रण व निर्देशन करेगी। ब्रिटिश सरकार भारत के सैन्य, नैतिक और भौतिक साधन संगठित करेगी।
8. यदि भारत चाहेगा तो राष्ट्रमंडल से अपना संबंध विच्छेद कर सकता है। ये प्रस्ताव आधारभूत सिद्धांतों मे अपरिवर्तनशील थे, जिन्हें पूर्ण रूप से स्वीकार अथवा अस्वीकार किया जा सकता था।
इस मिशन के प्रस्तावों को राजनीतिक दलों ने अस्वीकृत कर दिया। ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत की मांगों को अनसुना करने के कारण "भारत छोड़ो" प्रस्ताव पारित करके अंग्रेजों का दमन करने का प्रयत्न किया गया।
(य) कैबिनेट मिशन, 1946
भारतीय नागरिकों हेतु संविधान बनाने के लिए ब्रिटिश शासन द्वारा एक नया प्रतिनिधिमंडल भेजा गया जिसे कैबिनेट मिशन कहा गया। इस मिशन में मार्च, 1946 को ब्रिटिश मंत्रिमंडल के तीन मंत्रियों पेथिक लारेन्स, सर स्टेफर्ड क्रिप्स व ए.वी. अलेक्जेंडर- को भारत की संवैधानिक समस्या सुलझाने के लिये भेजा गया।
इस मिशन द्वारा भारत का एक संघ बनाने, ब्रिटिश सरकार की प्रभुसत्ता समाप्त करने, भारतीय रियासतों को छूट देने, अंतरिम सरकार की स्थापना करने एवं संविधान बनाने के लिए संविधान सभा का निर्वाचन करने की महत्वपूर्ण योजनाएं थीं।
(र) भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947
इस अधिनियम द्वारा 15 अगस्त, 1947 को भारत तथा पाकिस्तान को स्वतंत्र अधिराज्यों की स्थापना करने की योजना थी एवं इसके द्वारा प्रत्येक राज्य में गर्वनर जनरल, संविधान बनाने वाली सभाओं को संविधान बनाने का अधिकार, ब्रिटिश सरकार का आधिपत्य न होना, सेक्रेटरी ऑफ स्टेट पद को खत्म करने के महत्वपूर्ण उपबंध रखे गये।
इस अधिनियम के द्वारा भारतीय नागरिकों को करीब दो सौ बर्षों के बाद सन् 1947 को स्वतंत्रता मिली।
5. पंचम चरण; भारतीय संविधान का जन्म (1947 से 1950)
यह चरण 1947 से 1950 तक रहा। इस काल में स्वतंत्रता मिलने के बाद भारतीय संविधान का निर्माण करके लागू किया गया।
(अ) संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव
कैबिनेट योजना के अनुसार नम्बर 1947 को 296 सदस्यों की एक संविधान सभा बनाई गई जिसमें 211 सदस्य कांग्रेसी तथा 73 सदस्य मुस्लिम लीग के थे। प्रमुख रूप से इस सभा में पं. नेहरू, राजेन्द्र प्रसाद, सरकार पटेल, मौलाना आजाद, गोविन्द वल्लभ पन्त, श्री अय्यर, सर फिरोजखान, डाॅ. जयशंकर, लियाकत अली खाँ, डाॅ. भीमराव अम्बेडकर आदि सदस्य थे।
(ब) संविधान सभा की बैठकें
भारत का संविधान तैयार करने हेतु प्रथम बैठक 9 सितंबर 1946 को हुई। भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 पारित होने पर कैबिनेट मिशन के उपबन्ध समाप्त हो गये।
(स) संविधान का निर्माण
संविधान सभा की बैठकों से संविधान का प्रारूप तैयार किया गया तथा उस पर 8 महीने तक बहस हुई। संविधान सभा के 11 अधिवेशन हुये। अन्त में 2 वर्ष 11 महीने और 18 दिन में 26 नवम्बर 1949 तक संविधान पूर्ण होकर 26 जनवरी, 1950 को भारत में लागू कर दिया गया। इस तरह भारत को अपना एक अलग संविधान प्राप्त हुआ। इस संविधान पर भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डाॅक्टर राजेन्द्र प्रसाद के हस्ताक्षर थे।
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