8/09/2022

मध्ययुगीन राजनीतिक चिंतन की विशेषताएं

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मध्ययुगीन राजनीतिक चिंतन की विशेषताएं 

madhyayugin rajnitik chintan ki visheshtayen;मध्ययुग में धर्म की प्रधानता होते हुए भी कुछ राजनीतिक संस्थाओं का विकास हुआ। इस युग में कुछ व्यापक सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया। यह कहना उचित नहीं होगा कि मध्य युग सर्वथा निष्फल रहा। उसने यूरोपीय सभ्यता के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया तथा आधुनिक युग का शिलान्यास किया। मध्य युग के राजनीतिक चिंतन की मुख्य विशेषताएं निम्‍नलिखित हैं-- 

1. सार्वभौमिकता

मध्ययुग का सार उसका सार्वभौमिकतावाद हैं। मध्ययुगीन ईसाई विचारकों की यह धारणा थी कि संपूर्ण मानव जाति एक ही ईश्वर की संतान है। अतः सभी मनुष्य भाई-भाई है। संपूर्ण संसार के ईसाई एक-दूसरे के बंधु है तथा उनका एक विश्वव्यापी अथवा सार्वजनिक समान है। ईसाई विचारकों के इसी विचार ने संपूर्ण मानव जाति को एकता के सूत्र में बाँधने का प्रयत्न किया। 

2. चर्च की सर्वोच्चता 

मध्य युग में धर्म का स्थान प्रबल था। धर्म इस समय जादू के समान सभी विचारों पर चढ़ा हुआ था। राजसत्ता भी धार्मिक सत्ता के अधीन थी। धार्मिक सत्ता की सर्वोच्‍चता स्थापित करने हेतु और दो प्रमुख सिद्धांतों का सहारा लिया गया-- 

(१) दो तलवरों का सिद्धांत एवं 

(२) कान्स्टेन्टाइन का दान पत्र। 

चर्च की श्रेष्ठता के समर्थकों ने तर्क दिया कि पोप का सन्त पीटर से दो तलवारें प्राप्‍त हुई हैं। आध्यात्मिक तथा लौकिक। पोप ने आध्यात्मिक तलवार अपने पास रख ली तथा लौकिक तलवार शासकों को प्रदान कर दी इसलिए राजनीतिक शक्ति का प्रयोग चर्च के निर्देशन में किया जाना चाहिए। यह भी कहा गया कि जो सत्ता सौंपता है वह उसे छीन भी सकता है। इसलिए उस दृष्टि से भी चर्च की सत्ता सर्वोच्‍च हैं। 

चर्च की श्रेष्ठता के समर्थकों ने 'कान्स्टेन्टाइन के दान पत्र' के आधार पर भी चर्च की सर्वोच्‍चता के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। उनका विचार था कि जब सम्राट कान्स्टेन्टाइन अपनी राजधानी को रोम में हटाकर कुस्तुन्तुनिया ले गया तब उसने कई पश्चिमी साम्राज्य को दान के रूप में तत्कालीन पोप सिलवेस्टर को भेंट कर दिया। 

पोप गिलेसियस ने चर्च की सर्वोच्‍चता के सिद्धांत का प्रतिपादन करते हुए सम्राट अबेस्टेसयिस को पत्र लिखा था," यह संसार प्रमुखतः दो व्यवस्थाओं द्वारा संचालित होता है, पादिरियों की पवित्र शक्ति तथा राजशक्ति द्वारा। इनमें प्रथम ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि पादरी पादरियों ही निर्णय के दिवस ईश्वर के सम्मुख राजा के कार्यों के प्रति उत्तरदायी होंगे।" 

3. राजतंत्र की प्रधानता 

मध्य युग के दार्शनिक एकता की भावना को सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते थे। उनका विचार था कि शक्ति को स्थान पर केन्द्रित होना चाहिए। गीर्के के शब्दों में," मध्य युग के विचारकों की मान्यता थी कि सामाजिक संगठन का मूल तत्व एकता है तथा यह शासन करने वाले अंग में भी होना चाहिए। यह उद्देश्य तभी अच्छी तरह से पुरा हो सकता है जब शासक अंग स्वयं एक इकाई एवं परिणामतः एक व्यक्ति हो।" 

इस सिद्धांत के आधार पर जहाँ कुछ व्यक्तियों ने इस सत्ता का केन्द्रीयकरण पोप के हाथों में सौंपा वहीं दूसरों ने राजसत्ता के केन्द्रीयकरण का समर्थन किया। सत्ता का केन्द्रीयकरण किसके हाथों में हो इस विषय में मत भिन्नता होते हुए भी ये विचार राजतंत्रात्मक सरकार के अनुकूल ही थे। 

4. लोकप्रिय सम्प्रभुता का विचार 

मध्य युग में राजा के दैवी अधिकारों के सिद्धांत में विश्वास किया जाता था लेकिन इसके साथ यह भी मान्यता थी कि जनता को भी कुछ दैवी अधिकार प्राप्त है। उनका यह विचार था कि सम्प्रभुशक्ति का निवास जनता में होता है। राजा को यह सत्ता समाज द्वारा ही मिली है। 

गीर्के के शब्दों में," अगर प्रभुसत्ता का प्रादुर्भाव जनता से होता है तो इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जब कोई वैध सम्राट नहीं होगा तब यह शक्ति पुनः जनता के पास लौट आयेगी।" 

5. प्रतिनिधि शासन प्रणाली 

मध्य युग में धार्मिक एवं राजनीतिक दोनों ही क्षेत्रों में प्रतिनिधि शासन प्रणाली का विकास हुआ। धार्मिक क्षेत्र में पोप का निर्वाचन होता था। समस्‍त पादरी उसका निर्वाचन करते थे एवं वह तभी तक पदासीन रहता था जब तक वह अपने कर्तव्यों का पालन करता था। पादरीगण उसे अकर्त्त व्यपरायणता और धर्मभ्रष्टता का आरोप लगाकर अपने पद से हटा सकते थे। धर्म विषयक मामलों में अन्तिम निर्णय का अधिकार पोप के पास न होकर पादरियों की संयुक्त परिषद को प्राप्‍त था। 

प्रतिनिधि शासन को राजनीतिक क्षेत्र में भी लागू करने का प्रयत्न किया गया। सम्राट का निर्वाचन किये जाने की व्यवस्था की गई।

6. राजसत्ता पर प्रतिबंध 

मध्य युग में राजा निरंकुश नहीं था। उसकी निरंकुशता पर निम्न प्रतिबन्ध थे-- 

(१) राजा को राज्यभिषेक के समय न्यायोचित ढंग से शासन करने की शपथ लेनी पड़ती थी। 

(२) राजा को कानून निर्माण का अधिकार नहीं था। उसे सिर्फ कानूनों की व्याख्या करने का अधिकार प्राप्त था। 

(३) राजा परम्पराओं तथा रीति-रिवाजों का पालन करने को बाध्य था। 

(४) इस समय सामंतवादी व्यवस्था का प्रचलन था। राजा को सामंतों के साथ किये गये समझौतों का पालन आवश्यक रूप से करना पड़ता था। 

7. सामूहिक जीवन की प्रवृत्ति 

मध्ययुग में सामुदायिक जीवन का विकास हुआ तत्कालीन अवस्था अराजकता की अवस्था थी। इसलिए प्रत्‍येक व्यक्ति इस बात का अनुभव करता था कि उसके द्वारा एकाकी जीवन व्यतीत किया जाना असंभव है। इसलिए वह किसी समूह का सदस्य बनकर ही सुरक्षा प्राप्त कर सकता था एवं अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता था। इसलिए धार्मिक, आर्थिक एवं राजनीतिक सभी क्षेत्रों में जीवन व्यतीत करने की जरूरत महसूस की गई। इस तरह मध्य युग में गिल्ड, कम्यून एवं कार्पोरेशन आदि कई संगठनों का निर्माण हुआ। सामूहिक जीवन की यह प्रवृत्ति इतनी व्यापक थी कि धार्मिक, आर्थिक सामाजिक कोई भी क्षेत्र इससे अछूता नहीं रहा। 

सामूहिक जीवनयापन करने के कारण मध्ययुग में व्यक्ति के अधिकारों की उपेक्षा की गई। यह युग सर्वाधिकारवादी एवं पोप की प्रभुसत्ता का युग था। इसलिए व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं अधिकारों के विचार का विकास होना असंभव था।

7. केन्द्रीय सत्ता का अभाव तथा ग्रामीण समाज का विकास 

बर्बर जातियों के आक्रमण के कारण रोमन साम्राज्य का पतन हो गया। यूरोप टुकड़ों-टुकड़ों में बँट गया जिनका शासन स्थानीय सरदारों एवं सामन्तों के हाथों में चला गया। सामन्तवादी व्यवस्था के कारण केन्द्रीय सत्ता का अभाव हो गया और यूरोप में ग्रामीण समाज एवं सभ्यता का विकास हुआ। 

9. निगम व्यवस्था का प्रारंभ 

मध्ययुग में निगम प्रणाली का विकास हुआ। इन दार्शनिकों का विचार था कि जिन संस्थाओं का उद्देश्य आध्यात्मिक एवं लौकिक जीवन का विकास करना है, उन्हें अपना कार्य उचित रूप से चलाने हेतु इस तरह सत्ता प्रदान की जाये कि जिससे उनके कार्यों में हस्तक्षेप करने का अधिकार किसी बाहरी शक्ति को प्राप्‍त न हो और वे राजनीतिक झगड़ों से दूर रहकर अपना कार्य सुचारू रूप से कर सकें। मध्य युग में निगम मुख्य रूप ईसाई संघ अथवा चर्च, चर्च की परिषद्, विश्वविद्यालय, स्वतंत्र नगर तथा कानून आदि थे। 

10. अव्यवस्थित राजनीतिक दर्शन 

मध्ययुग के राजनीतिक चिंतन में क्रमबद्धता का सर्वथा अभाव था। इसका प्रमुख कारण यह था कि इस युग में राजसत्ता बहुत निर्बल थी। सबल राजसत्ता के अभाव में क्रमबद्ध राजनीतिक विचारों की आशा करना व्यर्थ था। इस युग के राजनीतिक विचारकों के आधार भिन्न थे। कुछ ने बाइबिल को आधार चुना, कुछ ने अरस्तु की 'पालिटिक्स' को आधार चुना। जिन राजनीतिक ग्रन्थों की रचना की गई वे अत्यधिक साधारण कोटि के थे। उनमें प्रतिभा, प्रौढ़ता तथा परिपक्वता का अभाव था।

2 टिप्‍पणियां:
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  1. बेनामी12/8/23, 5:48 pm

    कृपया इस विषय ओर गहन रूप मे समझाए विशेषरूप से विचारको के नाम जो इस काल मे प्रासंगिक रहे हे......धन्यवाद

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