कंपनी के ऋण लेने के अधिकार से आशय
प्रत्येक कम्पनी को अपने व्यापार के लिये धन उधार लेने तथा अपनी सम्पत्ति को जमानत के बतौर रखने का गर्भित अधिकार होता है। यदि कम्पनी को ऋण लेने का अधिकार होता है। तो उसकी सीमा का वर्णन सीमानियम एवं अन्तर्नियम में होता है और संचालक उन्हीं निर्धारित सीमाओं के अन्दर ही ऋण ले सकते हैं।
कंपनी ऋण लेने के अधिकार संबंधी नियम
एक सार्वजनिक कम्पनी के ऋण लेने के अधिकार के संबंध में निम्नलिखित नियम हैं--
1 .व्यापार प्रारम्भ करने से पूर्व
किसी भी कम्पनी को व्यापार प्रारम्भ करने का प्रमाण-पत्र प्राप्त होने से पूर्व ऋणपत्रों को निर्गमित करने का अधिकार नहीं होता। आई. एन. सी-21, आई. एन. सी-22 में घोषणा के बाद व्यवसाय आरंभ के प्रमाण-पत्र को प्राप्त करने के बाद ही ऋण ले सकेगी।
2. साधारण सभा की सहमति
कम्पनी का संचालक मण्डल कम्पनी की साधारण सभी की सहमति के बिना ऋण नहीं ले सकते। यह राशि चुकता पूंजी और सामान्य संचय के जोड़ से अधिक नहीं होनी चाहिए।
3. प्रतिनिधि के ऋण लेने के अधिकार का हस्तान्तरण
संचालक मण्डल की बैठक में प्रस्ताव पास कर के संचालक अपने इस अधिकार को अपने प्रतिनिधि के रूप में, प्रबन्धक या कम्पनी के किसी प्रमुख अधिकारी को हस्तान्तरित कर सकते है। इस प्रस्ताव में उस राशि का उल्लेख अवश्य होना चाहिए। जिस तक वे ऋण ले सकते है।
4. अस्थायी ऋणों का आशय
उधार लेने की सीमा में बैंकों से अस्थायी ऋण शामिल नहीं हैं, अस्थायी ऋणों का आशय उन ऋणों से है जो ऋण की तारीख से 6 माह के भीतर या मांग पर देय हों
5. आधिक्य की दशा में कम्पनी की साधारण सभा से स्वीकृति लेना
ऊपर के वर्णित दशा में यदि ऋण ली जाने वाली राशि और पहले से ऋण ली हुई राशियों का जोड़ कम्पनी की चुकता पूंजी और स्वतन्त्र संचय के जोड़ से अधिक होता हैं तो इस आधिक्य के लिए कम्पनी की साधारण से स्वीकृति लेना आवश्यक है। बिना इस प्रकार की स्वीकृति के इस आधिक्य की राशि का ऋण नहीं लिया जा सकता है, उक्त प्रस्ताव में राशि का उल्लेख अवश्य होना चाहिए, जितना ऋण लेना है।
6. ऋणों का अवैध होना
ऊपर वर्णित सीमाओं से बाहर लिए हुए ऋण अवैध होते हैं, जब तक कि ऋण देने वाला यह साबित न कर दे कि उसने ऋण सद्भावना से दिया है। उसे इसकी जानकारी नहीं थी कि ऐसा करने से कम्पनी ऋण लेने के अधिकार की सीमा का उल्लंघन होता है।
अधिकारों के बाहर लिये गये ऋण
1. कम्पनी के अधिकारों के बाहर ऋण
यदि कोई कम्पनी सीमानियम और अन्तर्नियमों से उल्लिखित ऋण लेने के अधिकार के बाहर ऋण लेती है। या ऋण के लिए कोई प्रतिभूति देती है तो इस सीमा से अधिक लिया गया ऋण कम्पनी के अधिकारों के बाहर होता है। ऐसी स्थिति में कम्पनी के विरूद्ध किसी भी प्रकार की कार्यवाही नहीं की जा सकती।
अधिकारों के बाहर ऋण लेने पर ऋणदाताओं को प्राप्त उपचार
यदि कोई ऋण कम्पनी के अधिकारों के बाहर है तो ऋणदाता को कम्पनी से रूपया वसूल करने का कोई अधिकार नहीं होता और वह कम्पनी पर मुकदमा नहीं चल सकता। वैसे लोकनीति के अनुसार ऐसा ऋण नहीं लिया जाना चाहिये।
समानता के आधार पर ऋणदाता को निम्नाकिंत अधिकार होते है--
1. खर्च करने से रोकने के लिये निषेधाज्ञा
यदि कम्पनी को ऋण के रूप में दी गई राशि खर्च नहीं की गई हो तो ऋणदाता इस राशि को खर्च करने से रोकने के लिये निषेधाज्ञा प्राप्त कर सकता है।
2. स्थान ग्रहण का अधिकार
यदि कम्पनी ने किसी ऋणदाता से अधिकार के बाहर ली गई ऋणराशि अपने लेनदारों को दे दी है तो वह व्यक्ति उस लेनदार के सब अधिकार प्राप्त कर लेगा।
3. पहचानने का अधिकार
जिस ऋणदाता ने कम्पनी को अधिकारों के बाहर ऋण दिया है यह अधिक राशि वह अगर कम्पनी के ढूंढ सकता है तो उसे वापस लेने का अधिकार है।
4. संचालकों के विरूद्ध अधिकार
ऋण देने वाला उन संचालकों पर दावा कर सकता है जिन्होंने अधिकारों के बाहर ऋण लिया है।
5. संचालकों के अधिकारों के बाहर ऋण
यदि कोई ऋण कम्पनी के अधिकारों के अन्दर है, लेकिन संचालकों के अधिकारों के बाहर है तो इन्हें संचालकों के अधिकार के बाहर वाले ऋण कहा जावेगा। संचालकों द्वारा लिये गये ऋणों की कम्पनी पुष्टि कर सकती है। पुष्टि करने के बाद कम्पनी ऋणदाताओं के प्रति ऐसे उत्तरदायी होगी जैसे ऋण लेने के लिए कम्पीन की पूर्व अनुमति प्राप्त कर ली गई थी। प्रत्येक कम्पनी में संचालकों के ऋण लेने के अधिकारों पर कुछ प्रतिबन्ध लगा दिये जाते है।
कम्पनी द्वारा उधार लेने की मुख्य रीतियां
1. बैंकों से अधिविकर्ष के रूप में ऋण लेना।
2. प्रतिज्ञा-पत्र, हुण्डी या विनिमय ऋणपत्र, विपत्र के आधार पर ऋण लेना।
3. प्रपत्रों को जारी करके ऋण लेना।
4. साधारण ऋण लेना।
5. सम्पत्ति के बन्धक या प्रभार के रूप में ऋण।
6. जनता से जमा रकम प्राप्त करना आदि।
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