6/17/2022

शिक्षण प्रतिमान के प्रकार/वर्गीकरण, मौलिक तत्व, उपयोगिता

By:   Last Updated: in: ,

शिक्षण प्रतिमानों के प्रकार या वर्गीकरण 

शिक्षण प्रतिमानों का विभाजन तथा वर्गीकरण विभिन्न तरह से किया गया हैं, जो निम्न प्रकार से हैं--

1. दार्शनिक शिक्षण-प्रतिमान 

इस प्रकार के शिक्षण-प्रतिमानों की चर्चा इजराइल सैफलर ने किया था। दार्शनिक शिक्षण-प्रतिमान निम्न हैं--

(अ) प्रभाव प्रतिमान 

आम धारणा यह है कि जन्म के समय बच्चे का मस्तिष्क रिक्त होता है। शिक्षण द्वारा जो भी अनुभव प्रदान किये जाते है वे अनुभव बच्चे के मस्तिष्क पर प्रभाव डालते रहते है। इस प्रभाव को अधिगम भी कह देते है। इस अधिगम-प्रक्रिया मे ज्ञान-इन्द्रियों की अनुभूतियों एवं भाषा सिद्धांतों को ज्यादा महत्व दिया जाता हैं। संपूर्ण शिक्षण प्रक्रिया की सफलता तथा प्रभावशीलता शिक्षक की योग्यता और उसकी संप्रेषण की क्षमताओं पर निर्भर करती हैं। 

(ब) सूझ-बूझ प्रतिमान 

यह प्रतिमान प्रभाव-प्रतिमान के उत्तर हैं। सूझ-बूझ प्रतिमान प्रभाव प्रतिमान की इस धारणा का खंडन करता है कि शिक्षण द्वारा विचारों या ज्ञान को विद्यार्थी के मानसिक क्षेत्र अथवा भंडाय में पहुँचाना ही शिक्षण प्रतिमान का अर्थ है। सूझ प्रतिमान का विश्वास है कि ज्ञान मात्र इन्द्रियों की अनुभूति द्वारा ही प्रदान नहीं किया जा सकता वरन् इसके लिए विषय-वस्तु का बोध होना अति आवश्यक है। इस प्रतिमान का विकासकर्ता प्लेटो था। उसका विचार था कि ज्ञान सिर्फ शब्दों को बोल देने से या सुन लेने से ही प्रदान नहीं हो सकता या अर्जित नहीं किया जा सकता। मानसिक प्रक्रिया और भाषा दोनों मिलकर ही ये कार्य करते हैं। 

(स) नियम प्रतिमान 

प्रभाव प्रतिमान तथा सूझ प्रतिमान दोनों ही अपनी-अपनी सीमाएं रखते है। इनकी कमियों को नियम-प्रतिमान में दूर किया गया है। इस प्रतिमान मे तर्क-शक्ति को अधिक महत्व दिया है। काण्ड इस नियम में तर्क-शक्ति को महत्व देता है। तर्क में किन्हीं नियमों का लक्ष्य बालकों की क्षमताओं का विकास करना है। इस कार्य के लिए विशेष प्रकार के नियमों का पालन किया जाता है। जैसे, शिक्षण का नियोजन, व्यवस्था तथा अंतःप्रक्रिया विशेष नियमों द्वारा की जाती है। इस प्रतिमान द्वारा सांस्कृतिक, नैतिक तथा मूल्यों का विकास भी किया जाता हैं। 

2. मनोवैज्ञानिक शिक्षण प्रतिमान 

मनोवैज्ञानिकों की यह धारणा है कि शिक्षण प्रतिमान शिक्षण-सिद्धांतों का स्थान ग्रहण कर सकते है। संक्षेप में यह भी कहा जा सकता है कि शिक्षण-प्रतिमान ही शिक्षण-सिद्धांतों का आदि रूप है। शिक्षण-प्रतिमानों के मनोवैज्ञानिक रूप में शिक्षण के लक्ष्य और शिक्षण तथा अधिगम की विभिन्न क्रियाओं में संबंधों की व्याख्या की जाती है--

जाॅन पी. डिकेको ने निम्न मनोवैज्ञानिक शिक्षण प्रतिमान बताये हैं--

(अ) बुनियाद शिक्षण प्रतिमान 

इस प्रतिमान का विकास राबर्ट ग्लेसर ने किया था। उसने इस प्रतिमान में मनोवैज्ञानिक नियमों तथा सिद्धांतों का शिक्षण-प्रक्रिया में प्रयोग किया हैं। इस शिक्षण प्रतिमान में निम्न तत्व भाग लेते है--

1. अनुदेशनात्मक उद्देश्य 

इस तरह के उद्देश्यों से अभिप्राय हैं-- वे क्रियाएं जो विद्यार्थी को शिक्षण से पूर्व करनी चाहिए। दूसरे शब्दों में शिक्षकों और विद्यार्थियों के उद्देश्यों को अनुदेशनात्मक उद्देश्य कहते है। इस प्रतिमान के इस तत्व से हमें यह पता चलता है कि अनुदेशनात्मक उद्देश्यों को व्यावहारिक कथनों में बदलकर किस तरह लिखा जा सकता है। इस प्रक्रिया को 'कार्य-विवरण' भी कहते हैं। इस तत्व द्वारा स्कूल, शिक्षक तथा विद्यार्थियों के उद्देश्यों में भी अंतर किया जा सकता है अर्थात् स्कूल के उद्देश्य, शिक्षक के उद्देश्य एवं विद्यार्थियों के उद्देश्यों में विभेदीकरण किया जाता है। 

2. पूर्व-व्यवहार 

पूर्व-व्यवहार से अभिप्राय विद्यार्थियों की उन योग्यताओं अथवा व्यवहारों से है जो पाठ्य-वस्तु की समझ के लिए अति आवश्यक हैं। साधारण शब्दों में, अध्यापक की आशा अनुसार भविष्य मे स्तर ग्रहण करने के संदर्भ में विद्यार्थी के ज्ञान तथा कौशल का वर्तमान स्तर पूर्व-व्यवहार होता है। पूर्व-व्यवहार वहीं पर होगा जहाँ से अनुदेशन का प्रारंभ होता हैं।

3. अनुदेशनात्मक प्रक्रिया 

इस तत्व का अर्थ हैं-- शिक्षण की वे क्रियाएं जो पाठ्य-वस्तु के प्रस्तुतीकरण के लिए प्रयुक्त की जाती हैं। अनुदेशनात्मक प्रक्रिया शिक्षण का क्रियात्‍मक पक्ष कहलाता है। इस पक्ष में विभिन्न विधियाँ, प्रविधियाँ, व्यूह रचनाएं आदि का प्रयोग सम्मिलित होता है। संक्षेप में, इस तत्व या पद में वे क्रियायें सम्मिलित है जो किसी पाठ्य-वस्तु के प्रस्तुतीकरण के लिए प्रयुक्त होती हैं। 

4. निष्पत्ति या निष्पादन मूल्‍यांकन 

इस पद का तात्पर्य हैं-- वे परीक्षा एवं निरीक्षण विधियाँ जिनके आधार पर शिक्षक कोई भी निर्णय लेता है। वह यह तय करता है कि विद्यार्थी ने किस सीमा तक किसी पाठ्य-वस्तु में निपुणता प्राप्त की हैं। 

इस पद के अंतर्गत निष्‍पादन का किसी भी तरह से मापन करें, पर यह मापन सत्य, विश्वसनीय, वस्तुनिष्ठ तथा कुशल होना चाहिए। अतः इस पद में प्रयुक्त होने वाला परीक्षण वस्तुनिष्ठ एवं कुशल होने चाहिए। 

(ब) कंप्यूटर पर आधारित शिक्षण प्रतिमान 

इस शिक्षण प्रतिमान का विकास लारेन्स स्टूलोरो तथा डेनियल डेविस ने 1965 में किया था। इस प्रतिमान को सबसे जटिल प्रतिमान माना जाता है। इस प्रतिमान के निम्नलिखित तत्व होते है-- 

1. विद्यार्थी का पूर्व-व्यवहार 

2. अनुदेशन के उद्देश्यों का निर्धारण। 

3. शिक्षण पक्ष-इस तत्व के अंतर्गत विद्यार्थी के पूर्व-व्यवहारों तथा अनुदेशन के उद्देश्यों के अनुसार कंप्यूटर शिक्षण योजना का चयन किया जाता है। विद्यार्थियों की निष्पत्तियों का निरीक्षण किया जाता है। यदि परिणाम संतोषजनक हों तो दूसरी शिक्षण योजना पेश की जाती हैं। इस प्रतिमान में शिक्षण तथा निदान की क्रियाएं एक साथ ही होती हैं। निदान के आधार पर ही उपचारात्मक अनुदेशन प्रदान किया जाता है। इस प्रतिमान में व्यक्तिगत विभिन्नताओं को भी महत्व दिया गया हैं। 

(स) विद्यालय अधिगम का शिक्षण प्रतिमान 

इस प्रतिमान का विकास जाॅन करौल ने किया था। उसकी धारणा यह है कि विद्यार्थियों को उनकी आवश्यकताओं के अनुसार समय एक आवश्यक तथा महत्‍वपूर्ण घटक माना जाता हैं। इस प्रतिमान के महत्वपूर्ण तत्व निम्नलिखित हैं-- 

1. उद्देश्यों की परिभाषा व्यावहारिक रूप में।

2. पूर्व व्यवहार में बुद्धि एवं निष्पत्ति की अधिक प्रधानता। 

3. अनुदेशन का स्तर विद्यार्थियों के अनुसार होना। 

4. विद्यार्थियों को उनकी आवश्यकताओं के अनुसार अधिगम हेतु समय देना। 

5. विद्यार्थियों को निष्पत्ति के लिए पूर्व स्वामित्व भी निहित होना चाहिए। 

इस प्रतिमान में अनुदेशन की प्रक्रिया में विद्यार्थियों को पूरे अवसर प्रदान किये जाते हैं। उनकी आवश्यकताओं के अनुसार ही उन्हें समय प्रदान किया जाता है जिससे व्यक्तिगत विभिन्नताओं पर नियंत्रण हो जाता है। इसकी सबसे बड़ी त्रुटि यह है कि इसमें निष्पत्ति परीक्षण की क्रमबद्ध ढंग से व्यवस्था नहीं की जा सकती। 

(द) अंत-प्रक्रिया शिक्षण प्रतिमान

इस प्रतिमान का दूसरा नाम भी हैं-- नैड ए. फलैंडर (1960) का सामाजिक अंतःप्रक्रिया प्रतिमान 1 फ्लैंडर ने शिक्षण प्रक्रिया एक को अंतःप्रक्रिया माना हैं। 

फलैंडर ने कक्षा-व्यवहारों को दस वर्गों में बाँटा हैं। इसे फलैंडर का दस वर्गीय प्रणाली भी कहा जाता हैं। इस प्रतिमान में शिक्षक तथा विद्यार्थी के व्यवहारों का विश्लेषण किया जाता हैं। इस प्रतिमान के निम्न तत्व अथवा पक्ष होते हैं-- 

1. उद्देश्य-शिक्षक एवं विद्यार्थियों के अंतःप्रक्रिया के स्वरूप का निर्धारण किया जाता है। 

2. पूर्व-व्यवहार, इसमें विद्यार्थियों की भावनाओं, विचारों एवं वर्तमान सूचनाओं को सम्मिलित किया जाता है। 

3. प्रस्तुतीकरण-शिक्षक एवं विद्यार्थियों में शाब्दिक अंत-प्रक्रिया होती है जिसका विस्तार अप्रत्यक्ष प्रभाव तक होता हैं। 

4. मूल्‍यांकन- इसमें निष्पत्तियों का मूल्‍यांकन परीक्षा द्वारा किया जाता है एवं अंतःप्रक्रिया की प्रभावशीलता के संबंध में निर्णय लिया जाता हैं। 

स्पष्ट है कि इस प्रतिमान में शिक्षक तथा विद्यार्थी में अंतःप्रक्रिया को ज्यादा महत्व दिया गया है। इसमें अशाब्दिक अंतःप्रक्रिया का विश्लेषण या निरीक्षण नहीं हो पाता। इसकी एक त्रुटि यह भी हैं कि इस प्रतिमान में पाठ्य-वस्तु के संबंध में कोई निर्णय नहीं लिया जा सकता।

3. आधुनिक शिक्षण प्रतिमान 

ब्रूस आर. जायस ने सभी शिक्षण प्रतिमानों को 'आधुनिक शिक्षण प्रतिमान' शीर्षक के अंतर्गत निम्नलिखित चार वर्गों में बाँटा हैं--

(अ) सामाजिक अंतःप्रक्रिया स्त्रोत पर आधारित प्रतिमान 

सामाजिक अंतःप्रक्रिया स्त्रोत पर आधारित प्रतिमानों में मानव के सामाजिक पक्ष को दृष्टि में रखते हुए उनके सामाजिक विकास पर बल दिया जाता है। चूँकि मानव सामाजिक संबंधों पर अधिक बल देता हैं, इसलिए उसका विश्लेषण इस तरह से शिक्षण प्रतिमानों के अंतर्गत किया जाता हैं। स्मरण रहे कि सामाजिक अंतःप्रक्रिया स्त्रोत पर आधारित प्रतिमानों का प्रयोग जनतंत्र में सफलतापूर्वक किया जा सकता हैं। सामाजिक अंतःप्रक्रिया स्त्रोत में निम्न चार तरह के प्रतिमान पाये जाते हैं-- 

1. सामूहिक अन्वेषण प्रतिमान 

2. जूरिस पुटेंसल प्रतिमान

3. सामाजिक पृच्छा प्रतिमान 

4. प्रयोगशाला विधि प्रतिमान

(ब) सूचना प्रक्रिया स्त्रोत पर आधारित प्रतिमान 

सूचना प्रक्रिया स्त्रोतों में विद्यार्थी को तथ्यों का ज्ञान तथा आवश्यक सूचनाएं दी जाती हैं। इनमें समस्या का समाधान एवं प्रत्ययों का बोध उद्दीपन एवं प्रभावपूर्ण वातावरण का निर्माण करके दिया जाता है। ये प्रतिमान विद्यार्थियों की बौद्धिक क्षमताओं को विकसित करने हेतु अधिक लाभप्रद सिद्ध हुए हैं। इन प्रतिमानों में निम्न छः तरह के प्रतिमान सम्मिलित होते हैं--

1. निष्पत्ति प्रत्यय प्रतिमान, 

2. आगमन प्रतिमान, 

3. प्रच्छा प्रशिक्षण प्रतिमान, 

4. जैविक विज्ञान पृच्छा प्रतिमान, 

5. प्रगत संगठनात्मक प्रतिमान, 

6. विकासात्मक प्रतिमान। 

(स) व्यक्तिगत स्त्रोत पर आधारित प्रतिमान 

व्यक्तिगत स्त्रोत पर आधारित प्रतिमानों के द्वारा व्यक्तिगत विकास को विशेष महत्व दिया जाता हैं। ऐसे प्रतिमानों में विद्यार्थी के भावात्मक पक्ष को विकसित करके उसको आंत्रिक तथा बाह्य शक्तियों के विकास के लिए बल दिया जाता हैं जिससे उसमें आत्म कल्पना तथा आत्म बोध का विकास होता हैं। व्यक्तिगत स्त्रोत की प्रधानता वाले निम्न पाँच प्रतिमान हैं-- 

1. दिशाविहीन शिक्षण प्रतिमान,

2. कक्षा सभा प्रतिमान, 

3. सार्वजनिक शिक्षण प्रतिमान,

4. जागरूकता प्रतिमान,

5. प्रत्यय-व्यवस्था प्रतिमान। 

(द) व्यवहार परिवर्तन स्त्रोत पर आधारित प्रतिमान 

ऐसे प्रतिमानों में विद्यार्थियों के व्यवहार में सीखने की क्रिया तथा समुचित पुनर्बलन की सहायता से वांछित परिवर्तन लाये जाने पर अधिक बल दिया जाता हैं।

शिक्षण प्रतिमान के मौलिक तत्व 

शिक्षण प्रतिमान के मौलिक तत्व निम्नलिखित हैं-- 

1. उद्देश्य 

प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान का कोई न कोई उद्देश्य जरूर होता है जिसे उसका लक्ष्य बिन्दु कहते हैं। इसी लक्ष्य बिन्दु को ध्यान में रखते हुए प्रतिमान को विकसित किया जाता हैं। दूसरे शब्दों में शिक्षण प्रतिमान का उद्देश्य उस बिन्दु को कहते हैं जिसके लिए प्रतिमान का विकास किया जाता है। स्मरण रहे कि प्रतिमान के विभिन्‍न पक्ष होते हैं। अतः इसके द्वारा विशेष तरह की क्षमताओं को विकसित किया जाता हैं। 

2. संरचना 

शिक्षण प्रतिमान की संरचना का अभिप्राय उन बिन्दुओं से होता है जो विभिन्‍न अवस्थाओं में शैक्षिक लक्ष्यों पर केन्द्रित क्रियाओं को पैदा करते है। इस तरह संरचना के अंतर्गत शिक्षण की क्रियाओं, युक्तियों एवं विद्यार्थी तथा शिक्षक की अंतःप्रक्रिया के प्रारूप को इस तरह से क्रमबद्ध रूप में निर्धारित किया जाता है कि वांछित परिस्थितियाँ पैदा होकर शिक्षण का उद्देश्य सरलतापूर्वक प्राप्त हो जाये। 

3. सामाजिक प्रणाली 

सामाजिक प्रणाली शिक्षण प्रतिमान के उद्देश्य के अनुसार होती है। चूँकि प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान का उद्देश्य अलग-अलग होता हैं, अतः प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान की सामाजिक प्रणाली भी अलग-अलग ही होती हैं। वस्तुस्थिति यह है कि प्रत्येक कक्षा एक समाज है जिसकी कोई न कोई व्यवस्था अवश्य होती हैं। इस व्यवस्था का निर्माण विद्यार्थी, शिक्षक एवं पाठ्यक्रम आदि करते हैं। समाज इस व्यवस्था को शैक्षिक अंतःप्रक्रिया द्वारा सक्रिय बनाता हैं जिससे विद्यार्थियों के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन हो जाये। इस तरह सामाजिक प्रणाली के अंतर्गत विद्यार्थी और शिक्षक की क्रियाओं एवं उनके आपसी संबंधों पर विचार किया जाता हैं। साथ ही यह निर्णय लिया जाता है कि विद्यार्थियों को किन-किन नीतियों और प्रविधियों द्वारा प्रेरणा दी जाये। इस तरह शिक्षण को प्रभावशाली बनाने में सामाजिक प्रणाली का महत्त्वपूर्ण स्‍थान हैं। 

4. मूल्‍यांकन प्रणाली

मूल्‍यांकन प्रणाली में मौखिक या लिखित परीक्षाओं द्वारा यह निर्णय लिया जाता है कि शिक्षण का उद्देश्य प्राप्त हुआ अथवा नहीं। दूसरे शब्दों में शिक्षण सफल हुआ या नहीं। इस सफलता या असफलता के आधार पर उन नीतियों, प्रविधियों एवं युक्तियों की प्रभावशीलता के विषय में स्पष्ट ज्ञान प्राप्‍त हो जाता हैं जिनका शिक्षण के समय प्रयोग किया गया। यदि शिक्षण असफल रहा तो नितियों तथा युक्तियों में परिवर्तन किया जाना चाहिए। स्मरण रहे कि चूँकि शिक्षण के प्रत्येक प्रतिमान का उद्देश्य अलग-अलग होता हैं, अतः प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान की मूल्‍यांकन प्रणाली भी अलग-अलग होती हैं। 

शिक्षण प्रतिमान की उपयोगिता

निम्नलिखित पंक्तियों में हम शिक्षण प्रतिमान की उपयोगिता पर प्रकाश डाल रहे हैं--

1. शिक्षण प्रतिमान किसी विशिष्ट उद्देश्य को प्राप्‍त करने में मदद करता हैं। 

2. शिक्षण प्रतिमान का स्वरूप व्यावहारिक होता है। साथ ही इसके द्वारा सीखने की उपलब्धि संभव हैं।

3. शिक्षण प्रतिमान के द्वारा शिक्षण के क्षेत्र में विशिष्‍टीकरण की संभावना हैं। 

4. शिक्षण प्रतिमान शिक्षक के शिक्षण को प्रभावोत्पादक बनाने में मदद प्रदान करता हैं। 

5. शिक्षण प्रतिमान ऐसी उपयुक्त उद्दीपन परिस्थितियों के चयन करने में मदद करता हैं जिनके द्वारा विद्यार्थियों के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन हो जाये। 

6. शिक्षण प्रतिमान के अंतर्गत ऐसी उपयुक्त नीतियों एवं युक्तियों का प्रयोग किया जाता हैं जो विद्यार्थियों के व्यवहार परिवर्तन में सहायता प्रदान करती हैं। 

7. शिक्षण प्रतिमान के द्वारा शिक्षण में परिवर्तन एवं सुधार किया जा सकता हैं। 

8. शिक्षण प्रतिमान विद्यार्थियों के व्यवहार का मूल्‍यांकन करता हैं। इस महान कार्य के लिए यह एक ऐसा विशिष्‍ट मानदण्ड पेश करता हैं जिसकी सहायता से विद्यार्थियों के व्यवहार परिवर्तन का मूल्‍यांकन सरलतापूर्वक हो जाता हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:
Write comment

आपके के सुझाव, सवाल, और शिकायत पर अमल करने के लिए हम आपके लिए हमेशा तत्पर है। कृपया नीचे comment कर हमें बिना किसी संकोच के अपने विचार बताए हम शीघ्र ही जबाव देंगे।