6/17/2022

निबंधात्मक परीक्षा क्या हैं? गुण, दोष/सीमाएं

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निबंधात्मक परीक्षा क्या हैं? (nibandhatmak parikshan ka arth)

निबंधात्मक परीक्षायें भारवर्ष में काफी समय से प्रचलित हैं। इन परीक्षाओं में विद्यार्थियों से चार-पाँच प्रश्न पूछे जाते हैं तथा उन्हें उत्तर देने की स्वतंत्रता रहती हैं। इस परीक्षा से विद्यार्थी का इस बात का परीक्षण होता हैं कि वह समस्या को किस दृष्टिकोण से प्रकट करता हैं? अपने ज्ञान का गठन किस प्रकार करता हैं? ज्ञान का कैसे प्रयोग करता है? और एक शाखा का अन्य ज्ञान की शाखाओं में कैसे संबंध स्थापित करता हैं? इसमें प्रायः विषय के व्यापक क्षेत्र पर बल दिया जाता हैं। 

निबंधात्मक परीक्षा के गुण तथा उपयोगिता (nibandhatmak parikshan ke gun)

निबंधात्मक परीक्षा के गुण निम्नलिखित हैं-- 

1. विस्तृत पाठ्यक्रम पर आधारित 

निबंधात्मक परीक्षाओं में पूछे गये प्रश्न संपूर्ण पाठ्यक्रम से संबंधित होते हैं। कम से कम प्रयास यही किया जाता है कि परीक्षा-पत्र में पाठ्यक्रम का कोई महत्वपूर्ण अंश छूटने न पाये। इस परीक्षा के द्वारा किसी भी विषय के सभी अध्यायों के संबंध में छात्रों के ज्ञान तथा विकसित मानसिक योग्यता के संबंध में निर्णय लिया जा सकता हैं।

2. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा उसकी सफल जाँच 

निबंधात्मक परीक्षा में छात्रों को प्रश्नों के लिखित उत्तर देने होते हैं। उत्तर लिखते समय वे अपनी कल्पना, चिंतन, तर्क आदि शक्तियों के आधार पर अपने विचारों को स्वतंत्र रूप से अभिव्यक्त करते हैं, जबकि वस्तुनिष्ठ परीक्षा में इसके विपरीत छात्रों को अपनी तरफ से लिखने की कुछ भी स्वतंत्रता नहीं होती। 

3. निर्माण की दृष्टि से सुगमता 

निबंधात्मक परीक्षा में प्रश्न-पत्रों का निर्माण कोई कठिन काम नहीं हैं। इसके लिए किसी पूर्व-प्रशिक्षण या विशेष कौशल की जरूरत नहीं होती। वस्तुतः हर शिक्षक, जिसे अपने विषय का संतोषजनक ज्ञान हैं, इन प्रश्न-पत्रों का निर्माण कर सकता हैं। इन प्रश्न-पत्रों का निर्माण अल्प समय में ही हो सकता हैं।

4. महत्वपूर्ण मानसिक योग्यताओं की जाँच 

जहाँ वस्तुनिष्ठ परीक्षा द्वारा छात्रों को प्रत्यास्मरण तथा पहचान से संबंधित मानसिक योग्यताओं की जाँच संभव हो पाती हैं वहाँ निबंधात्मक परीक्षा द्वारा छात्रों की स्मरण शक्ति के साथ-साथ तर्क चिंतन, आलोचना, अभिव्यंजना आदि शक्तियों का भी मूल्‍यांकन किया जा सकता हैं। 

5. सभी विषयों के लिए उपयुक्त 

निबंधात्मक परीक्षाओं को लगभग सभी विषयों से संबंधित प्रश्न-पत्रों के निर्माण में प्रयुक्त किया जा सकता है। सभी विषयों के लिए यह समान रूप से प्रयुक्त होती है। वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं का प्रयोग तो सिर्फ कुछ कौशल योग्यताओं की जाँच के लिए ही किया जाता हैं।

6. ज्ञात तथ्यों का अन्य परिस्थितियों में प्रयोग 

शिक्षा जगत से छात्रों को पाठ्यक्रम संबंधी अनुभवों को प्रदान करने का महत्वपूर्ण उद्देश्य मात्र यह नहीं होता कि छात्र प्राप्त तथ्यों को यथानुरूप रट लें, वरन् यह भी होता है कि वे उस प्राप्त ज्ञान को वांछित परिस्थितियों में प्रयोग करना भी सीख लें, वस्तुनिष्ठ परीक्षाएं इस उद्देश्य की प्राप्ति में किसी भी तरह से मददगार नहीं होती जबकि निबंधात्मक परीक्षाएं वर्णनात्मक, विवेचनात्मक, समालोचनात्मक आदि प्रश्नों के द्वारा ज्ञात तथ्यों को प्रयुक्त करने का पर्याप्त अवसर प्रदान करती हैं।

7. लेखन शक्ति के विकास तथा जाँच में सहायक 

वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं के द्वारा छात्रों की लेखन-शक्ति का मूल्‍यांकन नहीं किया जा सकता क्योंकि इनमें उत्तरों को या तो चिन्हांकित करना होता है या एक या दो शब्दों में ही उत्तर पेश करना होता हैं। इसके विपरीत निबंधात्मक परीक्षाओं के अंतर्गत प्रश्नों का उत्तर देने में छात्रों की लेखन शक्ति का विकास तो होता ही हैं, साथ ही उनसे यह भी जाँच हो जाती है कि लेखन में क्रमबद्धता, शुद्धता, प्रवाहपूर्णता, मौलिकता, स्पष्टता, तारतम्यता तथा प्रवाहपूर्णता आदि कितनी हैं? 

8. सत्य, श्रम तथा धन की बचत 

वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं का निर्माण अपेक्षाकृत कठिन होता है तथा इसके लिए प्रश्‍न निर्माताओं को विशेष प्रशिक्षण और परिश्रम की जरूरत होती हैं। इसके अलावा उनके निर्माण, मुद्रण तथा मूल्‍यांकन में भी ज्यादा धन का व्यय होता हैं। इसके विपरीत निबंधात्मक परीक्षा का निर्माण तो सरल हैं ही, इसके मुद्रण तथा मूल्‍यांकन में समय, श्रम और धन की बचत होती हैं। 

निबंधात्मक परीक्षा के उपरोक्त गुणों के अलावा भी निम्नलिखित गुण और हैं--

9. यह परीक्षा सामूहिक परीक्षण हेतु उपयुक्त होती हैं। 

10. इससे छात्रों की मौलिकता को आंका जा सकता हैं। 

11. इससे छात्रों के व्यक्तित्व को भी आंका जा सकता हैं। 

12. ये परीक्षाएं छात्रों को अधिकाधिक अध्ययन करने हेतु प्रेरित करती हैं। 

13. इनसे छात्रों में विचारों का संगठन करने की योग्यता का विकास होता हैं। 

14. छात्र इसके माध्‍यम से किसी विस्तृत व्याख्या का संक्षिप्‍त विवरण तैयार करने में दक्षता प्राप्त करते हैं। 

15. एक ही मापदंड से न्यायपूर्ण ढंग से योग्यता का मापन हो सकता हैं। 

16. संदेह की दशा में लिखित उत्तरों को दुबारा मूल्‍यांकन किया जा सकता हैं।

निबंधात्मक परीक्षा के दोष अथवा सीमाएं (nibandhatmak parikshan ke dosh)

निबंधात्मक परीक्षा के दोष/सीमायें निम्नलिखित हैं--

1. मात्र रटने पर बल 

निबंधात्मक परीक्षा में संपूर्ण पाठ्यक्रम में से कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न ही पूछे जाते हैं। अतः छात्र संपूर्ण पाठ्यक्रम को तैयार न करके मात्र कुछ अनुमानित प्रश्नों को रट ही लेते है। अगर प्रश्न-पत्र में उनके ये अनुमानित प्रश्न आ जाते हैं तो छात्र उत्तीर्ण हो जाते हैं, अन्यथा असफल। यही कारण है कि शिक्षा-क्षेत्र में इन परीक्षाओं की आजकल काफी कटु आलोचना हो रही हैं। छात्रों के विकास तथा सही मूल्यांकन की दृष्टि से यह प्रविधि पूर्णतः अमनोवैज्ञानिक हैं। 

2. पुस्कीय ज्ञान तक सीमित

निबंधात्मक परीक्षा से सिर्फ इस बात की जाँच होती है कि छात्रों ने पुस्तकों में निहित ज्ञान को किस सीमा तक आत्मसात किया? इस परीक्षा से उनकी संवेदनाओं, भावनाओं, अन्य गुणों तथा कौशलों की जाँच नहीं हो पाती, इसके द्वारा यह जाँच भी नहीं हो पाती कि पुस्तकों में दिये गये ज्ञान को प्रयोग करने की बालक में कितनी क्षमता हैं? 

3. उद्देश्यों की अस्पष्टता 

मूल्यांकन तथा उद्देश्यों का परस्पर घनिष्ठ संबंध होता हैं। मूल्यांकन का प्रमुख उद्देश्य शिक्षण उद्देश्यों की प्राप्ति के संबंध में जानकारी प्राप्त करना होता हैं। वस्तुतः परीक्षा-निर्माण से पूर्व परीक्षक को यह ज्ञात जरूर होना चाहिए कि उसे किन उद्देश्यों की प्राप्ति के संबंध में जानकारी प्राप्त करनी है। पर निबंधात्मक परीक्षाओं में परीक्षक संपूर्ण पाठ्यक्रम में से अधिकाधिक प्रश्नों की रचना करना ही परीक्षा का उद्देश्य मान बैठते हैं तथा इस तरह वे वास्तविक लक्ष्यों की पूर्णतः उपेक्षा करते हैं। यही कारण है कि इन परीक्षाओं द्वारा वास्तविक शैक्षिक उद्देश्यों का मूल्‍यांकन नहीं हो पाता।

4. पाठ्यक्रम का अपर्याप्त प्रतिनिधित्व 

निबंधात्मक परीक्षाओं में जो मुख्य-मुख्य प्रश्न पूछे जाते हैं, उनसे वास्तव में संपूर्ण पाठ्यक्रम का प्रतिनिधित्व नहीं होता। प्रायः इन प्रश्न-पत्रों में दस पश्न पूछे जाते हैं, उनमें से छात्रों को पाँच प्रश्नों का उत्तर लिखना होता हैं। वास्तविकता यह हैं कि इन परीक्षाओं में लगभग पचास प्रतिशत पाठ्यक्रम से ही प्रश्न पूछे जाते हैं। प्रश्नों के इस अपर्याप्त प्रतिनिधित्व के कारण छात्रों के विकास का उचित मूल्यांकन नहीं हो पाता। 

5. साधन नहीं साध्य 

परीक्षा छात्र की यथार्थ स्थिति के मापन का एक साधन मात्र हैं। इस यथार्थ स्थिति का आकलन करने पर ही उसके भावी कार्यक्रम के संबंध में कोई निर्णय लिया जा सकता है। वस्तुतः शिक्षा के मुख्य लक्ष्य सर्वांगीण विकास की प्राप्ति में छात्र की स्थिति के संबंध में लगातार प्रमाण प्रस्तुत करते हुए परीक्षा को एक साधन के रूप में प्रयुक्‍त होना चाहिए पर आज परीक्षा एक साधन न होकर साध्य मान ली गई हैं। येन-केन-प्रकारेण छात्र परीक्षा उत्तीर्ण कर लेना ही अपना लक्ष्य मानने लगे हैं। 

6. समय व धन का अपव्यय 

निबंधात्मक परीक्षाओं में प्रश्न-पत्रों के निर्माण, उनके मुद्रण, उत्तर पुस्तिकाओं की व्यवस्था एवं उनके मूल्यांकन के लिए काफी व्यय करना पड़ता हैं। इनके संचालन में तो प्रायः एक माह का समय लगता ही हैं, उत्तरों को जाँचने में भी काफी समय व धन का व्यय करना पड़ता हैं। 

7. उचित तथा निष्पक्ष मूल्यांकन अत्यंत कठिन 

निबंधात्मक परीक्षाओं में मूल्यांकन के अंतर्गत अभी तक कोई ऐसा मापदंड नहीं बनाया गया है जिसके आधार पर बालक की प्रगति की उचित जाँच की जा सके। 

8. मूल्यांकन संदेहास्पद तथा असंतोषजनक 

निबंधात्मक परीक्षाओं के अंतर्गत प्रश्न-पत्रों में कभी-कभी पाठ्यक्रम में निहित ज्ञान के स्थान पर सामान्य प्रकृति के प्रश्न पूछ लिये जाते हैं। इस कारण कम बुद्धि तथा कम ज्ञान प्राप्‍त करने वाले छात्र अपने से अग्रणी छात्र से आगे बढ़ जाता हैं जबकि अधिकांश पाठ्य-वस्तु को याद करने वाला छात्र संतोषप्रद अंक भी प्राप्त नहीं कर पाता। 

9. उद्दीपन का अभाव 

निबंधात्मक परीक्षा के अंतर्गत छात्रों को स्थायी रूप से ज्ञान प्राप्‍त करने के लिए उद्दीपन नहीं मिल पाता। इसका मुख्य कारण यह हैं कि छात्रों को प्रायः ऐसी विषय वस्तु को स्मृत करना पड़ता है जिसका उनके वास्तविक जीवन से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं होता। इसी कारण से छात्र केवल परीक्षा को उत्तीर्ण कर लेना ही अपना उद्देश्य मान बैठते हैं। पाठ्यवस्तु के स्मरण करने या उसके अवबोध में दे कोई रूचि नहीं लेते।

10. छात्रों का मूल्‍यांकन प्रायः बाह्य परीक्षक करते हैं जो उनकी कार्यक्षमता, प्रगति तथा योग्यता से अनभिज्ञ होते हैं।

11. छात्रों द्वारा विरोधी अथवा मौलिक विचार व्यक्त किये जाने पर परीक्षक प्रायः उन्हें कम अंक देते हैं।

12. इन परीक्षाओं के द्वारा शिक्षक के लिए छात्रों की कठिनाइयों तथा कमजोरियों आदि का पता लगाना मुश्किल होता हैं। 

13. छात्र परीक्षा उत्तीर्ण करने हेतु नकल करने का प्रयास करते हैं, इससे परीक्षा का प्रयोजन ही खत्म हो जाता हैं। 

14. इन परीक्षाओं में कभी-कभी एक ही प्रश्न के द्वारा छात्रों की तर्क शक्ति, स्मरण शक्ति एवं विषय संबंधी अभ्यास जैसी तीनों क्रियाओं के मूल्यांकन करने की एक साथ अपेक्षा की जाती हैं, जो कि पूर्णतः गलत हैं।

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